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Geography Class 01 Hindi

आगे के सिलेबस व कक्षा अप्रोच के संबंध में चर्चा ( 09:08 am ) |

तटीय स्थलाकृतियां ( 09:15 am ) :- 

  • तटीय प्रक्रियाएं |
  • सागरीय लहरों की क्रियाविधि |
  • तटीय अपरदन द्वारा निर्मित अपरदनात्मक स्थलाकृतियां |
  • तटीय अपरदन द्वारा निर्मित निक्षेपात्मक स्थलाकृतियां |
  • समुद्री तट :- उन्मज्जित तट तथा निमज्जित तट |

तटीय प्रक्रियाएं ( 09:22 am ) :- 

  • तटीय क्षेत्रों में सागरीय तरंगों द्वारा अपरदन क्रिया निम्नलिखित पाँच रूपों द्वारा संपन्न की जाती है :-
    • जलगति क्रिया |
    • अपघर्षण |
    • सन्नीघर्षण |
    • संक्षारण |
    • जल दाब की क्रिया |

तटीय अपरदन द्वारा निर्मित अपरदनात्मक स्थालाकृतियाँ ( 09:31 am ) :- 

1. तटीय क्लिफ और तरंग घर्षित प्लेटफ़ॉर्म :- 

  • सागरीय तरंगों द्वारा अधिकतम अपरदन तटीय चट्टानों के आधार पर (निचले भाग पर) किया जाता है |
  • परिणामस्वरूप चट्टानों के निचले भाग का अपरदन ऊपरी भाग की तुलना में अधिक तीव्रता से होता है |
  • इस प्रकार सागरीय तल पर तीव्र ढाल वाली भू-आकृतियों का निर्माण होता है जिन्हें क्लिफ कहते हैं। भारत में कोकण तट के सहारे काफी संख्या में तटीय क्लिफ पाए जाते हैं |

2. तरंग घर्षित प्लेटफ़ॉर्म :- 

  • जैसे ही क्लिफ तट की ओर पीछे हटता है, क्लिफ के आधार पर एक मंद ढाल वाली भू-आकृति का निर्माण जाता है जिसे तरंग घर्षित प्लेटफार्म कहते हैं |
  • इसकी सतह पूर्ण रूप से समतल न होकर उबड़-खाबड़ होती है |

3. कंदराएं , महराब और स्टैक ( 09:42 am ) :- 

  • सागरीय तरंगें जलीय शक्ति तथा अपघर्षण जैसी कटाव की क्रिया द्वारा तटीय भागों में अवस्थित ऊर्ध्वाधर चट्टानों के आधार तल से टकरा कर रिक्त स्थान बना देती हैं और इसे गहराई तक खोखला कर देती हैं जिससे सागरीय कन्दराएँ बनती हैं |
  • हालाँकि, इसके निर्माण के लिए अपेक्षाकृत कठोर या संगठित चट्टानों की जरुरत होती है, अन्यथा कन्दरा बनने से पहले ही ध्वस्त हो जायेगी |

4. वात छिद्र ( 09:46 am ) :- 

  • कन्दरा की छत के ऊपरी भाग में स्थित छिद्र को वात छिद्र कहते हैं |
  • जब लहरों के जलीय दाब के कारण कन्दरा की वायु संपीड़ित होती है तो कुछ बात वायु कन्दरा की छत को तोड़ कर ऊपर निकल जाती है |
  • कन्दरा की छत के ऊपरी भाग में निर्मित ऐसे छिद्रों को वात छिद्र कहते हैं |
  • इन छिद्रों से वायु सीटी की आवाज करती हुई बाहर निकलती है |

5. अंतरीप और खाड़ी ( 09:50 am ) :- 

  • अंतरीप और खाड़ी अनियमित समुद्र तट की विशेषताएँ हैं |
  • इस प्रकार की आकृतियों का निर्माण उन क्षेत्रों में होता है जहाँ ग्रेनाइट एवं चूना पत्थर जैसी कठोर चट्टानें तथा रेत एवं मिट्टी जैसी कोमल चट्टानें एक के बाद एक बैंड के रूप में पाई जाती हैं |

तटीय अपरदन द्वारा निर्मित निक्षेपात्मक स्थालाकृतियाँ ( 10:01 am ) :- 

1. पुलिन ( 10:02 am ) :- 

  • सागरीय तट के सहारे पाये जाने वाले निक्षेप से बने स्थलाकृतियों में पुलिन प्रमुख है |
  • पुलिन का निर्माण उच्च ज्वारतल तथा निम्र ज्वारतल के बीच वाले स्थानों में होता है |
  • इसमें प्रवाहित जलोढ़ से आच्छादित रेत व अन्य पदार्थ शामिल होते हैं |
  • पुलिन के निर्माण के लिए अवसादों की प्राप्ति के स्रोतों में नदियाँ और सागरीय तरंगें सम्मिलित हैं |
  • पुलिन एक अस्थायी निक्षेपजनित स्थलाकृति है |
  • अधिकतर पुलिन रेत के आकार के छोटे कणों से बने होते हैं |
  • चेनई का मरीना पुलिन और तिरुवनंतपुरम का कोवलम पुलिन भारत के प्रसिद्ध पुलिन हैं |

2. रोधिका, स्पिट तथा संयोजक रोधिका ( 10:09 am ) :- 

  • ये रेत, कंकड़ या पंक से बने कटक होते हैं | 
  • रोधिका एक प्रकार का कटक है जो खाड़ी के आर-पार दो अन्तरीपों को जोड़ता है |
  • रेत से निर्मित रोधिका जो सैकड़ों किलोमीटर की लम्बाई में तट के प्रायः समानांतर होती हैं परन्तु तट से सम्बंधित नहीं होती हैं, उन्हें अपतट रोधिका या तटीय रोधिका कहते हैं |
  • कई बार रोधिका का निर्माण इस प्रकार होता है कि इसका एक सिरा तट के शीर्षस्थल से संलग्र होता है तथा दूसरा सिरा सागर की ओर निकला तथा खुला हुआ होता है ; इस तरह की आकृति को स्पिट कहते हैं |

3. टोम्बोलो ( 10:22 am ) :- 

  • शीर्ष स्थल से किसी द्वीप को मिलाने वाली संयोजक रोधिका को टोम्बोलो कहते हैं ; इस तरह टोम्बोलो तट एवं द्वीप के मध्य प्राकृतिक पुल का कार्य करता है |

समुद्री तट ( 10:35 am ) :- 

A. निमज्जित तट (Coastlines of submergence ) :- रिया तट , फियोर्ड तट , डाल्मेशियन या अनुदैर्ध्य तट , ज्वारनदमुख तट |

1. रिया तट / Ria Coast :- 

  • नदियों के अपरदन द्वारा निर्मित (गैर-हिमानीकृत) पर्वतीय घाटियों के जलमग्न होने और सागरीय जल से भर जाने से रिया तट का निर्माण होता है |
  • ये जलमग्न घाटियाँ प्रायः V-आकार की होती हैं |
  • इस प्रकार के तट उत्तर-पश्चिमी स्पेन और दक्षिण पश्चिमी आयरलैंड में पाये जाते हैं |

2. फियोर्ड तट / Fjord Coast ( 10:42 am ) :- 

  • उच्च अक्षांशों में जलमग्न हिमानीकृत घाटियों को फियोर्ड कहते हैं।
  • फियोर्ड एक संकीर्ण, खड़ी दीवारों वाली जलमग्न लम्बी हिमानीकृत घाटी है।
  • पर्वतों से नीचे उतरती हुई हिम नदियाँ U-आकार की घाटी के आधार तल को काटकर फियोर्ड घाटी का निर्माण करती हैं।
  • जब ये फियोर्ड घाटियाँ जलमग्न हो जाती है तो फियोर्ड तट का निर्माण होता हैं। नार्वे को फियोर्ड तटों का देश कहते हैं।

3. डाल्मेशियन या अनुदैर्ध्य तट / Dalmatian coast ( 11:09 am ) :- 

  • सागरीय तट के समानान्तर पर्वतीय श्रेणी जब जलमग्न हो जाती हैं तो इस प्रकार के तट का निर्माण होता है।
  • निचले भाग डूब जाते हैं और उच्च भाग द्वीप सदृश दिखते हैं।

4 ज्वारनदमुख तट / Estuarine coasts ( 11:14 am ) :- 

  • यह ऐसा तट है जहाँ पर निम्नवर्ती तट जलमग्न होकर, नदी में बाढ़ ले आता (उल्टा प्रवाह) है।
  • यहाँ पर नदी का प्रवेश द्वार रेत तथा पंक से मुक्त होता है,
  • भारत में नर्मदा एवं ताप्ती ज्वारनदमुख का निर्माण करती हैं 
  • ब्रिटेन की थेम्स नदी के तट पर इस प्रकार के उदाहरण देखने को मिलते हैं।

B. उन्मज्जित तट / Coastlines of Emergence ( 11:22 am ) :-

  • उन्मज्जित या उत्थित तट ऐसा किनारा है जहाँ तट में उभार देखा जाता है (स्थलखंड के ऊपर उठने या समुद्री जल स्तर के नीचे गिरने के कारण) और सागरीय तरंगें इस तट की निचली सतह को काट देती हैं |
  • उत्थित तटों के सहारे नदियाँ तटीय मैदान एवं डेल्टा बनाकर अपनी लंबाई बढ़ा लेती हैं |
  • कहीं-कहीं लैगून व संकरी ज्वारीय खाड़ी के अतिरिक्त तटरेखा लगभग सम होती है |
  • सागरोन्मुख स्थल मंद ढाल लिए हुए होता है। तटों के साथ समुद्री पंक व दलदल पाए जाते हैं |
  • इन तटों पर निक्षेपित स्थलाकृतियों की बहुतायत होती है | 

हैफा तट या निमग्न निम्नभूमि तट ( 11:27 am ) :- 

  • सागरीय तटीय भाग में किसी निम्न भूमि के डूब जाने से निर्मित तट को निमग्न निम्नभूमि का तट कहते हैं।
  • यह तट कटा-फटा नहीं होता तथा इस पर घाटियों का अभाव होता है।
  • इस पर रोधिकाओं की समानांतर श्रृंखला मिलती हैं।
  • इन रोधिकाओं द्वारा सागरीय जल के घिरने से लैगून झीलों का निर्माण होता है। जैसे- यूरोप का बाल्टिक तट।

विश्व के प्रमुख मरूस्थलों की चर्चा एटलस के माध्यम से ( 11:33 am ) |

पवनों के द्वारा निर्मित स्थलाकृति ( 11:39 am ) :- 

  • पवन भी अनाच्छादन का एक प्रमुख कारक है , जो शुष्क तथा अर्द्धशुष्क मरुस्थलीय क्षेत्रों में अधिक सक्रीय रहता है |

मरुस्थलों की विशिष्ट अवस्थिति : 

  • भू-पटल का लगभग एक तिहाई भाग अतिशुष्क शुष्क एवं अर्द्धशुष्क भागों के रूप में वर्गीकृत है |
  • विश्व के प्रमुख मरुस्थलीय प्रदेशों में सहारा मरुस्थल , अरब मरुस्थल , कालाहारी, नामिब, अटाकामा  आदि सम्मिलित है |
  • विश्व में मरुस्थलों की अवस्थिति का एक निश्चित पैटर्न पाया जाता है . लगभग सभी मरुस्थल 15 डिग्री से 30 डिग्री उत्तरी और दक्षिणी अक्षांशों के मध्य के क्षेत्रों में सीमित हैं |

मरुस्थल में पवन के कार्य ( 11:42 am ) :- 

  • शुष्क तथा अर्द्धशुष्क क्षेत्रों में पवन ही अपरदन का सबसे शक्तिशाली साधन है , क्योंकि यहाँ वर्षा की मात्रा अत्यंत कम होती है और आर्द्रता न्यून रहती है |
  • साथ ही इन क्षेत्रों में वनस्पति के अभाव में मिटटी के कण संगठित नहीं रह पाते हैं |
  • पवन द्वारा अपरदन कार्य मुख्यतः किया जाता है :-
    • सन्निघर्षण |
    • अपवाहन |
    • अपघर्षण |

पवन द्वारा निर्मित अपरदनात्मक स्थलाकृतियाँ ( 11:45 am ) : 

1. वेंटिफैक्ट या ड्राईकांटर :-

  •  पथरीले मरुस्थलों में सतह पर खड़े शिलाखंडों पर पवन द्वारा अनेक दिशाओं से होने वाले अपरदन द्वारा इनकी सतह को घिसकर समतल एवं चिकनी बना दिया जाता है | 
  • यदि पवन अनेक दिशाओं से होकर चलती है तो इन शिलाखंडों की आकृति चतुष्फलक जैसी हो जाती है जिसका एक फलक भू-पृष्ट पर होता है तथा शेष फलक बाहर की ओर होते हैं | 
  • इस प्रकार बहार की ओर निकले तीन फलक वाले टुकड़े को वेंटिफैक्ट या ड्राईकांटर कहते हैं |

2. रॉक पेडेस्टल या क्षत्रक शिला ( 11:49 am ) : - 

  • मरुस्थली भागों में कठोर चट्टान के रूप में उपरी आवरण के नीचे कोमल चट्टान लम्बवत रूप में विद्यमान रहती है तथा उस पर पवन की अपघर्षण क्रिया द्वारा कुछ अनियमित आकार के स्थालाकृतियों का निर्माण होता है |
  • अनेक दिशाओं से चलने वाली पवने चट्टानों के नीचले भाग में अधिक अपरदन करती है , जिससे चट्टान का निचला भाग उपरी भाग की तुलना में पतला हो जाता है | 
  • इस तरह एक छतरीनुमा आकृति का निर्माण होता है , जिसे रॉक पेडेस्टल या क्षत्रक शिला कहते हैं |

3. यारडांग ( 11:52 am ) :-

  • जब कोमल एवं कठोर चट्टानों की परतें पवन प्रवाह की लम्बवत दिशा में अवस्थित होती हैं तो कठोर चट्टानों की अपेक्षा कोमल चट्टानों का पर्दान अधिक होता है | 
  • इस प्रकार कठोर चट्टानों के मध्य कोमल चट्टानों के अपरदित हो जाने से कठोर चट्टानों के भाग खड़े रह जाते हैं और वहाँ गहरे और लम्बे नालीनुमा गड्ढे बन जाते हैं | 
  • इस तरह के स्थलाकृति को यारडांग कहा जाता है |

4. ज्यूजेन ( 12:00 pm ) :-

  • जब मरुस्थलीय भागों में कठोर और कोमल चट्टानों की परतें क्षैतिज रूप से एक दुसरे के समानांतर स्थित होते हैं तो अपक्षय तथा पवन द्वारा अपरदन के कारण दवातनुमा आकृति का निर्माण होता है अर्थात उनका उपरी भाग कम चौड़ा तथा निचला भाग अधिक चौड़ा होता है |
  • इस तरह की आकृति को ज्यूजेन कहा जाता है जिसकी ऊंचाई 100 फीट तक होती है |
  • ज्यूजेन की रचना यारडांग के विपरीत होती है |

5. इन्सेलबर्ग ( 12:02 pm ) :-

  • इंसेलवेर्ग जर्मन भाषा का शब्द है जिसका आशय द्वीपीय पर्वत होता है . इस शब्द का प्रयोग टीलों या कठोर चट्टान से निर्मित पहाड़ियों के लिए किया जाता है |
  • मरूस्थलीय भागों में अपक्षय एवं अपरदन के कारण कोमल चट्टानें आसानी से कट-छटकर समतल हो जाती हैं तथा कठोर चट्टानों के अवशेष यत्र-तत्र टीले के रूप में उभरे रह जाते हैं | 
  • इन कठोर चट्टानों के टीलेनुमा अवशेषों को इन्सेलबर्ग कहते हैं | 
  • इन्सेलबर्ग सामान्य सतह से ऊपर उठे हुए होते हैं . इनके किनारे तिरछे ढाल वाले होते हैं | 
  • इन्सेलबर्ग का निर्माण ग्रेनाइट या नीस के अपरदन तथा अपक्षय द्वारा होता है . शुष्क क्षेत्रों में इन्सेलबर्ग को वार्नहार्ट (bornhardts) भी कहा जाता है |

6. जालीदार शिला ( 12:06 pm ) : 

  • जब मरुस्थलीय भागों में तीव्र गति से चलने वाली पवन के मार्ग में ऐसी चट्टानें आ जाती हैं, जिनके विभिन्न भागों में कठोरता की मात्रा में भिन्नता पाई जाती है | 
  • तो रेत के कणों की सहायता से अपघर्षण द्वारा चट्टान के कोमल भागों को अपरदित कर पवन आर-पार प्रवाहित होने लगती है जिससे वह चट्टान जाली के समान दिखाई देने लगती है, जिसे जालीदार शिला कहते हैं |

Topic for next class :-  पवन द्वारा निर्मित निक्षेपात्मक स्थलाकृतियां , जलवायु विज्ञान |