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Society Class Hindi

जाति व्यवस्था , संस्कृतिकरण, पाश्चात्यीकरण और गांधी- अंबेडकर के विचारों पर आज के क्लास के शुरुआती घंटे में चर्चा   

ब्रिटिश काल में जाति व्यवस्था तथा दलित प्रख्यान (11:17:14 AM ) -

  • यद्यपि प्राचीन एवं मध्यकालीन भारत में जाति के संदर्भ में गतिशीलता एवं परिवर्तन के साक्ष्य दिखाई पड़ते है।
  • परंतु जाति व्यवस्था की स्वीकार्यता अर्थात जाति आधारित असमानता की स्वीकृति स्पष्ट रूप से दिखाई पड़ती है।
  • परंतु ब्रिटिश काल में राजनीतिक चिंतन के अंतर्गत समता का दृष्टिकोण तथा जाति आधारित कार्यों के स्थान पर,
  •  कार्य जो क्षमता आधारित थे (जैसे  वकील ,इंजीनियर) का मिला जुला परिणाम रहा की जाति एक व्यवस्था के रूप में कमजोर होनी शुरू हुई।
  • इसी क्रम में जातीय वरीयता क्रम में बहिष्कृत लोगों के संदर्भ में विमर्श प्रारंभ हुए ।  

गांधी एवं अंबेडकर का अस्पृश्यता पर विचार (11:22:35 AM)

  • गांधी जी का यह तर्क था कि किसी भी समाज में श्रम-विभाजन एक सामान्य प्रक्रिया है जिसके अंतर्गत,
  • भिन्न-भिन्न जातियों के लोग भिन्न-भिन्न कार्य करते रहे.  परंतु जाति व्यवस्था में कुरीतियाँ तब शुरू हुई,
  •  जब धर्म में आए भ्रष्टाचार के परिणामस्वरूप कुछ कार्यों को हिन बताते हुए सामाजिक वंचना प्रारंभ की गई। 
  • गांधी जी का यह तर्क था कि 'सफाई' किसी भी समाज के लिए एक सर्वश्रेष्ठ कार्य है तथा
  • जो जाति समूह यह कार्य करता है वह ईश्वर का सबसे प्रिय है। 
  • यही कारण है कि उन्होंने अस्पृश्य समाज को 'हरिजन' कहा तथा अस्पृश्यता को समाप्त करने के लिए सामाजिक सहजीवन एवं नए सामाजिकरण पर बल दिया । 
  • वहीं दूसरी तरफ अंबेडकर का यह तर्क था कि यह दलित समाज राजनीतिक स्तर पर कभी समृद्ध समाज था।
  • जिसे तिरस्कृत करते हुए अधिकारों से वंचित किया गया (अपनी चर्चित पुस्तक इनहीलीएसन ऑफ कास्ट ) मे  उन्होंने एक मार्जिनल मैन सिद्धांत दिया था।
  • अंबेडकर को यह तर्क था, कि यह अस्पृश्यता तब समाप्त होगी जब दलित समूह का राजनीतिक सशक्तिकरण होगा । 
  • वे यह चिन्हित करते थे कि "हरिजन" के स्थान पर "दलित" शब्द का ही प्रयोग हो परंतु यह सम्मान सूचक होनी चाहिए । 
  • इसी क्रम में उन्होंने पृथक इलोकटोरेट  की परिकल्पना दी।
  • जिसका गांधी जी द्वारा विरोध किया गया और अंततोगत्वा 'पूना पैक्ट' के अंतर्गत यह निर्धारित किया गया कि
  • राजनीतिक सशक्तिकरण हेतु दलितों को आरक्षण दिया जाएगा। 
  • इसी क्रम में वर्ष 1934 में 1931 की जनगणना के संलग्नक के रूप में जाति जनगणना कराई गई।
  • जिसमें दलित जातियों को सूचीबद्ध करते हुए उन्हे अनुसूचित जाति कहा गया । 
  • अंबेडकर तथा पेरियार जैसे समाज सुधारक 'दलित पहचान' के पक्षधर थे।
  • उनका यह तर्क था कि इस दलित पहचान की वकालत एवं पैरोकारी होनी चाहिए।
  • परंतु स्वततंत्रता के पश्चात विशेषकर अंबेडकर के राजनीतिक तटस्थता के अनुसार दलित पैंथर द्वारा दलित पहचान को आक्रामक स्वरूप दिया। 
  • आगे जिसमें दलित आंदोलनों का मुख्य उद्देश्य दलित पहचान को अन्य जातियों के समकक्ष लाना रहा ।
  • इसी क्रम में वर्ष 1978 में बामसेप  का गठन किया गया तथा वर्ष 1986 में विभिन्न वंचित समूहों को एक साथ लाते हुए बहुजन समाज की संज्ञा दी गई। 
  • वर्ष 2002 के चर्चित भोपाल अधिवेशन में महिलाओं को भी बहुजन समाज का हिस्सा माना गया । 

स्वतंत्रता पश्चात जाति व्यवस्था (12:03:08 PM)

  • स्वतंत्रता के पश्चात समता के अधिकार के अंतर्गत जातिगत असमानताओं को समाप्त करने की बात कही गई।
  • परंतु राजनैतिक घटना क्रमों में जाति वोट बैंक राजनीति के परिणामस्वरूप जाति का एक नया अवतार दिखाई पड़ा,
  • जिसमें जाति व्यवस्था नए सहचरों अर्थात राजनीतिक युग्मों के रूप में परिवर्तित होती रही। 
  • परिणामस्वरूप जहां एक तरफ जाति एक व्यवस्था के रूप में कमजोर  हुई। 
  • लेकिन एक राजनीतिक पहचान द्वारा राजनीतिक शक्ति के श्रोत के रूप में बलवती हुई। 
  • 1970-80 के दशक में तेजी से बढ़ रही पहचान आधारित राजनीति ने इसे और मजबूती  प्रदान की। 
  • परंतु 21 वीं सदी में यह जाति एक दोराहे पर खड़ी दिखाई पड़ती है।
    • जहां एक तरफ एक विकल्प उपलब्ध है कि क्या जाति को पूर्ण रूप से समाप्त किया जाए।
      • यदि हाँ तो उन सभी घटकों को, जहां जातिगत पहचाना है समाप्त किए जाने चाहिए।
      • जैसे जाति आधारित विवाह, जाति आधारित आरक्षण आदि (विकल्प में अन्तर्जातीय विवाह,ने समाजिक आर्थिक मानकों पर आरक्षण आदि)
    • क्या जाति पहचान को  बनाय रखा जाए परंतु उसमें व्याप्त कुरीतियों को समाप्त किया जाए, इसके अंतर्गत समाजीकरण एवं संवेदिकरण की महत्वपूर्ण भूमिका होगी। 

TOPIC FOR THE NEXT CLASS- अनुसूचित जनजातियां और उनके लिए किए गए प्रयास , महिलाओं की प्रस्थिति