फैसले का संदर्भ
तुकाराम बनाम महाराष्ट्र राज्य मामले में सर्वोच्च न्यायालय के 1979 के फैसले को भारत के मुख्य न्यायाधीश बी.आर. गवई ने "संस्थागत शर्मिंदगी का क्षण" कहा था। इस मामले में एक किशोर आदिवासी लड़की के साथ बलात्कार के आरोपी दो पुलिसकर्मियों को बरी कर दिया गया था।
- यह निर्णय यौन हिंसा के मामलों में सामाजिक-आर्थिक और शक्ति गतिशीलता को स्वीकार करने में विफल रहा।
- इसके कारण व्यापक विरोध प्रदर्शन हुए और भारत में बलात्कार संबंधी कड़े कानूनों के लिए महिला अधिकार आंदोलन शुरू हो गया।
- हिरासत में बलात्कार से बचाव के लिए मजबूत कानूनी ढांचे की आवश्यकता और दहेज निषेध अधिनियम में सुधार की आवश्यकता पर प्रकाश डाला गया।
प्रभाव और कानूनी सुधार
मथुरा बलात्कार मामले के दूरगामी परिणाम हुए, जिससे भारत में महत्वपूर्ण कानूनी सुधार हुए:
- आपराधिक कानून संशोधन अधिनियम 1983 ने हिरासत में बलात्कार को भारतीय दंड संहिता की धारा 376 के अंतर्गत एक अलग अपराध के रूप में शामिल किया।
- संशोधन के तहत हिरासत में बलात्कार के मामलों में साक्ष्य प्रस्तुत करने का भार बलात्कार पीड़िता से हटाकर अभियुक्त पर डाल दिया गया।
- भंवरी देवी के साथ सामूहिक बलात्कार के बाद कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न से निपटने के लिए विशाखा दिशा-निर्देश तैयार किए गए थे।
बाद के कानूनी घटनाक्रम
- न्यायमूर्ति जे.एस. वर्मा समिति से प्रभावित होकर 2013 के आपराधिक कानून संशोधन अधिनियम ने बलात्कार की परिभाषा का विस्तार किया तथा यह निर्धारित किया कि चुप्पी या कमजोर 'नहीं' का अर्थ सहमति नहीं हो सकता।
- सहमति की आयु 16 वर्ष से बढ़ाकर 18 वर्ष कर दी गई।
- बार-बार अपराध करने वालों या बलात्कार के परिणामस्वरूप पीड़िता की मृत्यु हो जाने या लगातार निष्क्रिय अवस्था में रहने पर मृत्युदंड का प्रावधान किया गया।
- उन्नाव और कठुआ बलात्कार मामलों के बाद 2018 में और संशोधन किए गए, जिससे कानून और अधिक कठोर हो गए और 12 वर्ष से कम उम्र की नाबालिगों के साथ बलात्कार के लिए मृत्युदंड और 16 वर्ष से कम उम्र की पीड़िताओं के लिए न्यूनतम 20 वर्ष कारावास का प्रावधान किया गया।
आपराधिक कानून संशोधन अधिनियम, 2023
भारतीय न्याय संहिता (BNS) ने 2023 में और सुधार पेश किए:
- यौन अपराधों को पीड़ितों और अपराधियों दोनों के लिए जेंडर-न्यूट्रल बना दिया गया।
- 18 वर्ष से कम आयु की महिला के साथ सामूहिक बलात्कार के लिए मृत्युदंड या आजीवन कारावास का प्रावधान किया गया।
- झूठे बहाने से यौन संबंध बनाने जैसे नए अपराधों को शामिल किया गया तथा यौन उत्पीड़न की परिभाषा को व्यापक बनाया गया।
सार्वजनिक और बौद्धिक प्रतिक्रिया
उपेन्द्र बक्सी, वसुधा धागमवार, रघुनाथ केलकर और लोतिका सरकार जैसे बुद्धिजीवियों द्वारा लिखे गए एक पत्र में 1979 के फैसले की आलोचना की गई थी, क्योंकि इसमें पुलिस की कार्रवाई की निंदा नहीं की गई थी और पीड़ित की सामाजिक-आर्थिक पृष्ठभूमि पर विचार नहीं किया गया था।