प्रस्तावना
दुनिया जैव-नवाचार (Bio-innovation) द्वारा संचालित एक नई औद्योगिक क्रांति की राह पर है। उभरती हुई अर्थव्यवस्थाओं में, भारत की जैव-अर्थव्यवस्था (Bioeconomy) नवाचार, विकास, और वैश्विक प्रभाव बढ़ाने की एक अद्वितीय यात्रा को दर्शाती है। पिछले दशक में, भारत की जैव-अर्थव्यवस्था ने उल्लेखनीय वृद्धि की है, जो 2014 के 10 बिलियन डॉलर से बढ़कर 2023 के अंत तक 151 बिलियन डॉलर तक पहुंच गई है। महत्वाकांक्षी BioE3 (अर्थव्यवस्था, पर्यावरण और रोजगार के लिए जैव प्रौद्योगिकी) की शुरुआत के साथ, भारत की जैव-अर्थव्यवस्था के 2030 तक 300 बिलियन डॉलर तक पहुंचने की उम्मीद है। यह आर्थिक परिवर्तन में एक महत्वपूर्ण कदम है और भारत को वैश्विक जैव-प्रौद्योगिकी या बायोटेक के क्षेत्र में अग्रणी राष्ट्र के रूप में स्थापित करेगा।
1. जैव-अर्थव्यवस्था का क्या अर्थ है?
संयुक्त राष्ट्र खाद्य और कृषि संगठन (FAO) के अनुसार, जैव अर्थव्यवस्था (बायोइकोनॉमी) में “जैविक संसाधनों का उत्पादन, उपयोग और संरक्षण सहित संबंधित ज्ञान-विज्ञान, प्रौद्योगिकी और नवाचार शामिल होते हैं, जो सभी आर्थिक क्षेत्रकों को जानकारी, उत्पाद, प्रक्रियाएँ और सेवाएँ प्रदान करते हैं।” सरल शब्दों में, जैव-अर्थव्यवस्था प्राकृतिक संसाधनों का संधारणीय उपयोग करके आर्थिक विकास और पर्यावरण संरक्षण को प्रोत्साहित करती है।
1.1. जैव-अर्थव्यवस्था के अलग-अलग उप-क्षेत्रक कौन-से हैं?
जैव-अर्थव्यवस्था का विस्तार कई प्रमुख उप-क्षेत्रकों तक है, जिनमें से प्रत्येक जैवप्रौद्योगिकी के माध्यम से राष्ट्रीय विकास में महत्वपूर्ण योगदान देता है।
- बायोइंडस्ट्रियल: यह उभरता हुआ क्षेत्रक एंजाइमों, बायोसिंथेटिक प्रक्रियाओं और रिकॉम्बिनेंट DNA प्रौद्योगिकी का उपयोग करके बनाए गए जैव आधारित रसायनों और उत्पादों से संबंधित है। इसमें बायोप्लास्टिक, बायोगैस और विभिन्न उद्योगों में एंजाइमेटिक उपयोग शामिल हैं।
- बायोमैन्युफैक्चरिंग: जैव प्रौद्योगिकी उद्योग की उत्पादन शाखा होती है। यह बड़े पैमाने पर व्यावसायिक रूप से महत्वपूर्ण उत्पादों का उत्पादन करने के लिए बेहतर सटीकता और नियंत्रित दशाओं में इंजीनियर्ड माइक्रोबियल, पादप और पशु (मानव सहित) कोशिकाओं के उपयोग को संदर्भित करती है।
- बायोफार्मा और बायोमेडिकल: इसमें फार्मास्यूटिकल्स, चिकित्सा उपकरण, डायग्नोस्टिक्स और प्रयोगशाला में विकसित ऑर्गेनोइड का विकास करना शामिल है।
- यह मेडटेक (MedTech) और डायग्नोस्टिक्स सहित कैंसर इम्यूनोथेरेपी, जीन एडिटिंग, प्रिसिजन मेडिसिन और बायोलॉजिक्स जैसे क्षेत्रों पर ध्यान केंद्रित करता है।
- बायोएग्री (BioAgri): यह कृषि जैव प्रौद्योगिकी से संबंधित है। इसमें आनुवंशिक रूप से संशोधित फसलों और जीवों, परिशुद्ध कृषि और जैव-आधारित उत्पादों को शामिल किया गया है।
- उदाहरण के लिए, बीटी कॉटन कृषि उपज और संधारणीयता को बढ़ाने में बायोटेक की भूमिका को दर्शाता है।
- बायोरिसर्च और बायोआईटी (बायोसर्विसेज): इसमें अनुबंध आधारित अनुसंधान, क्लिनिकल ट्रायल बायोटेक सॉफ्टवेयर और डेटाबेस, विशेष प्रकार के उपकरण और बायोसाइंस शिक्षा सेवाएं शामिल हैं।


2. भारत की विकास यात्रा में जैव-अर्थव्यवस्था को क्या आवश्यक बनाता है?
पिछले दशक में वैक्सीन, जैव-चिकित्सा, बायोएथेनॉल जैसे प्रमुख क्षेत्रकों द्वारा संचालित भारत की जैव अर्थव्यवस्था एक महत्वपूर्ण शक्ति के रूप में उभरी है। इस क्षेत्रक की प्रगति ने न केवल संधारणीय विकास को बढ़ावा दिया है बल्कि स्वास्थ्य सेवा, कृषि जैसे प्रमुख क्षेत्रों में मजबूती और अनुकूलनशीलता बढ़ाने में भी अहम भूमिका निभाई है।
- आर्थिक संवृद्धि: जैव-अर्थव्यवस्था कृषि और फार्मास्युटिकल जैसे क्षेत्रों में नए उद्योगों, व्यवसायों और रोजगार के अवसर पैदा करके, साथ ही भारत के आर्थिक आधार में विविधता लाकर, देश के आर्थिक विकास में महत्वपूर्ण योगदान दे सकती है।
- वर्ष 2050 तक वैश्विक जैव-अर्थव्यवस्था के बड़े पैमाने पर विस्तार की संभावना है, जिससे वैश्विक अर्थव्यवस्था में 30 ट्रिलियन डॉलर का योगदान होगा। वर्तमान में यह 4 ट्रिलियन डॉलर की दर से बढ़ रही है और अनुमान है कि यह आंकड़ा वैश्विक सकल घरेलू उत्पाद (GDP) के लगभग 12% के बराबर है।
- खाद्य सुरक्षा: यह कृषि उत्पादकता और मृदा स्वास्थ्य में सुधार करते हुए, किसानों को नवीन जैव प्रौद्योगिकी और जैव उर्वरक जैसे जैविक विकल्पों के उपयोग से पौष्टिक और जलवायु-परिवर्तन को सहने में सक्षम फसलें उगाने की सुविधा प्रदान करके भारत की खाद्य सुरक्षा को मजबूत कर सकती है।
- उदाहरण के लिए, अनुवांशिक रूप से संशोधित तकनीक ने फसल की पैदावार में 21% की वृद्धि की है और गोल्डन राइस विकासशील देशों में विशेष रूप से महिलाओं और बच्चों में विटामिन-A की कमी को दूर करने में मदद करता है।
- स्वास्थ्य देखभाल: जैव-अर्थव्यवस्था में प्रगति से नई दवाओं, टीकों आदि का विकास संभव हुआ है, जिससे स्वास्थ्य देखभाल सुविधाओं की पहुंच और क्षमता में वृद्धि हो रही है। इससे स्वास्थ्य परिणामों में सुधार हो सकता है। उदाहरण के लिए-
- सीरम इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया ने भारत में क्वाड्रिवेलेंट ह्यूमन पैपिलोमावायरस (qHPV) की पहली स्वदेशी रूप से विकसित वैक्सीन CERVAVAC तैयार की है, जो महिलाओं के स्वास्थ्य की सुरक्षा में एक महत्वपूर्ण मील का पत्थर साबित हुई है।
- हीमोफीलिया A के उपचार लिए भारत के पहले जीन थेरेपी के क्लिनिकल ट्रायल को मंजूरी दे दी गई है। इससे आनुवंशिक रक्त विकारों के उपचार में मदद मिलेगी।
- रोजगार के अवसर: जैव अर्थव्यवस्था भारत में विशेषकर बायोफार्मास्यूटिकल्स, बायोएनर्जी आदि क्षेत्रकों में रोजगार सृजन को बढ़ावा दे सकती है। साथ ही, जैव-विनिर्माण केंद्रों के विकास के माध्यम से टियर-2 और टियर-3 शहरों में उद्यमिता को बढ़ावा भी मिल सकता है।
- एक अनुमान के अनुसार 2030 तक जैव अर्थव्यवस्था से 35 मिलियन रोजगार सृजित होंगे।
- बायो स्टार्टअप: भारत की जैव-अर्थव्यवस्था एक आकर्षक और उभरते हुए स्टार्टअप इकोसिस्टम को प्रोत्साहित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाएगी।
- भारत में बायोटेक स्टार्ट-अप्स की संख्या 2023 में 8,531 से बढ़कर 2030 तक 35,460 हो जाने की उम्मीद है।
- निर्यात: भारत विश्व में कम लागत वाली दवाओं और टीकों के सबसे बड़े आपूर्तिकर्ताओं में से एक है। बायोलॉजिक्स और बायोसिमिलर उद्योग में वृद्धि होने से भारत के निर्यात को बढ़ावा मिल सकता है।
- उदाहरण के लिए, अकेले भारतीय दवा विनिर्माताओं ने विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) के द्वारा खरीदे गए कुल वैक्सीन में लगभग 25% की आपूर्ति की है।
- पर्यावरणीय लाभ:
- चक्रीय अर्थव्यवस्था को बढ़ावा: जैव अर्थव्यवस्था में उत्पादन और खपत के मामले में क्लोज्ड लूप प्रणाली के माध्यम से अपशिष्ट को कम करने और संसाधन दक्षता को अधिकतम करने पर ध्यान केंद्रित किया जाता है।
- उदाहरण के लिए, कृषि अपशिष्ट को बायोगैस (अवायवीय अपघटन) में परिवर्तित किया जा सकता है, एवं अवशेषों का उपयोग पोषक तत्वों से भरपूर खाद के निर्माण में किया जाता है। इससे कृषि संबंधी गतिविधियों से उत्पन्न होने वाले अपशिष्ट में कमी आती है और उनके पुन: उपयोग को बढ़ावा मिलता है।
- पर्यावरण प्रदूषण में कमी: जैव-अर्थव्यवस्था से संबंधित उत्पाद, जैसे- जैव-उर्वरक, जैव-कीटनाशक आदि पर्यावरण में हानिकारक रसायनों के उत्सर्जन को कम करते हैं और पारिस्थितिकी तंत्र के स्वास्थ्य में सुधार करते हैं।
- जैव विविधता का संरक्षण: जैव-अर्थव्यवस्था पारंपरिक और स्वदेशी ज्ञान का उपयोग कर सकती है और जैव विविधता के संरक्षण और उससे जुड़े ज्ञान को बढ़ावा देने के लिए काम कर सकती है। इसमें डीएनए अनुक्रमण सहित जैव-विज्ञान और नवाचार में हुई नवीनतम प्रगति का उपयोग किया जा सकता है।
- उदाहरण के लिए, विश्व वन्यजीव कोष (WWF) द्वारा 2018 में पेरू में जैव विविधता की खोज और संरक्षण के लिए पर्यावरण डी.एन.ए. का उपयोग किया गया था।
- पारिस्थितिकी का पुनरुद्धार (Eco-restoration): बायोरेमेडिएशन का उपयोग प्रदूषित मिट्टी, आर्द्रभूमि और ताजे जल के पारिस्थितिकी तंत्र का पुनरुद्धार करने के लिए किया जा सकता है।
- उदाहरण के लिए, टेरी (TERI) की ऑयलजैपर तकनीक में प्राकृतिक रूप से पाए जाने वाले सूक्ष्मजीवों का उपयोग करते हुए मिट्टी में मौजूद हाइड्रोकार्बन संदूषकों को गैर विषैले यौगिकों में बदला जाता है।
- उद्योगों का जैविकीकरण: जैविक संसाधन वस्तुतः पेट्रोकेमिकल-आधारित ऊर्जा स्रोतों और रसायनों को जैविक रूप से प्राप्त विकल्पों से प्रतिस्थापित कर सकते हैं।
- उदाहरण के लिए, CRISPR का उपयोग करके पेड़ों में लिग्निन को संशोधित करके पारंपरिक रूप से पेट्रोलियम से बने औद्योगिक रसायनों के स्थान पर पर्यावरण के अनुकूल विकल्प उपलब्ध हो सकते हैं।
- जलवायु कार्रवाई: जैव-अर्थव्यवस्था भारत के कार्बन फुटप्रिंट को कम कर सकती है। इसके अलावा जैव-अर्थव्यवस्था भारत सरकार द्वारा निर्धारित जलवायु संबंधी विभिन्न लक्ष्यों को पूरा करने में भी मदद कर सकती है, जैसे- 2030 तक उत्सर्जन तीव्रता में 45% तक की कमी करना एवं 2070 तक निवल शून्य उत्सर्जन (Net zero emission) का लक्ष्य हासिल करना आदि।
- चक्रीय अर्थव्यवस्था को बढ़ावा: जैव अर्थव्यवस्था में उत्पादन और खपत के मामले में क्लोज्ड लूप प्रणाली के माध्यम से अपशिष्ट को कम करने और संसाधन दक्षता को अधिकतम करने पर ध्यान केंद्रित किया जाता है।

3. भारत की जैव-अर्थव्यवस्था को बढ़ावा देने के लिए कौन-सी विभिन्न पहलें शुरू की गई हैं?
भारत ने अपनी जैव अर्थव्यवस्था को बढ़ावा देने के लिए जैव प्रौद्योगिकी, संधारणीय कृषि, जैव ईंधन, स्वास्थ्य सेवा और पर्यावरणीय संधारणीयता पर केंद्रित परिवर्तनकारी नीतिगत सुधारों की एक श्रृंखला शुरू की है। जैव अर्थव्यवस्था को बढ़ावा देने के लिए उठाए गए कुछ प्रमुख कदम इस प्रकार हैं:
नीति निर्माण
- BioE3 (अर्थव्यवस्था, पर्यावरण और रोजगार के लिए जैव प्रौद्योगिकी) नीति: यह नीति जैव प्रौद्योगिकी विभाग (DBT) द्वारा लागू की गई है, जिसका उद्देश्य हाई-परफॉर्मेंस मैन्युफैक्चरिंग को बढ़ावा देना है।

- क्षेत्रक विशेष नीतिगत पहल:
- राष्ट्रीय जैव-अर्थव्यवस्था मिशन, 2016: यह मिशन जैव-संसाधन और संधारणीय विकास संस्थान (Institute of Bio-resources and Sustainable Development) द्वारा विज्ञान और प्रौद्योगिकी मंत्रालय के तहत शुरू किया गया था। इसका उद्देश्य जैव-संसाधनों का उपयोग करके ग्रामीण अर्थव्यवस्था को बढ़ावा देना है।
- राष्ट्रीय जैव प्रौद्योगिकी विकास रणनीति (2020-2025) का ड्राफ्ट: यह रणनीति भारत को जैव प्रौद्योगिकी संबंधी अनुसंधान, नवाचार, वैज्ञानिक अनुसंधान को व्यावहारिक उपयोगों में बदलने, उद्यमिता और औद्योगिक विकास में वैश्विक स्तर पर प्रतिस्पर्धी बनाने के लिए बनाई गई है। इसका लक्ष्य 2025 तक भारत की जैव अर्थव्यवस्था को 150 अरब डॉलर का बनाना है।
- अन्य नीतियां: इसमें राष्ट्रीय चिकित्सा उपकरण नीति, 2023; राष्ट्रीय जैव ईंधन नीति, 2018 आदि शामिल हैं।
योजनाएं और पहल
- नवाचार को बढ़ावा देने के लिए: जैव प्रौद्योगिकी अनुसंधान नवाचार और उद्यमिता विकास (Biotechnology Research Innovation and Entrepreneurship Development: Bio- RIDE/ बायो-राइड) योजना; बायोटेक विज्ञान क्लस्टर आदि।
- वैश्विक जैव ईंधन गठबंधन (Global Biofuels Alliance): यह गठबंधन भारत, ब्राजील और संयुक्त राज्य अमेरिका के नेतृत्व में शुरू किया गया है। यह भारत के लिए महंगे तेल आयात को कम करने, घरेलू बायोफ्यूल उत्पादन को बढ़ावा देने और आर्थिक स्थिरता को बढ़ाने का एक अवसर प्रदान करता है।
- क्षेत्रक विशेष योजनाएं: इसमें राष्ट्रीय बायोफार्मा मिशन; फार्मास्यूटिकल्स के लिए उत्पादन संबद्ध प्रोत्साहन (PLI) योजना; नेशनल ग्रीन हाइड्रोजन मिशन; पी.एम.-जीवन योजना, सतत (SATAT) और गोबरधन योजना आदि शामिल हैं।

गवर्नेंस एवं विनियामक पहल
- जैव प्रौद्योगिकी अनुसंधान और नवाचार परिषद (Biotechnology Research and Innovation Council: BRIC): इसका उद्देश्य गवर्नेंस को सुव्यवस्थित करना और पूरे देश में जैव प्रौद्योगिकी अनुसंधान के प्रभाव को बढ़ाना है। इसने विभिन्न उद्योग केंद्रित योजनाएं स्थापित की हैं जैसे-
- बायोटेक्नोलॉजी इग्निशन ग्रांट स्कीम: यह भारत में प्रारंभिक चरण के दौरान बायोटेक फंडिंग कार्यक्रम है।
- बायोइनक्यूबेटर्स नर्चरिंग एंटरप्रेन्योरशिप फॉर स्केलिंग टेक्नोलॉजीज (BioNEST/ बायोनेस्ट): इसका उद्देश्य देश भर में वैश्विक रूप से सक्षम बायोइनक्यूबेशन सुविधाएं विकसित करना है।
- लघु व्यवसाय नवाचार अनुसंधान पहल (SBIRI) और जैव प्रौद्योगिकी उद्योग भागीदारी कार्यक्रम (BIPP): इसका उद्देश्य जैव प्रौद्योगिकी उत्पाद और संबंधित प्रौद्योगिकी विकास के लिए अनुसंधान एवं विकास क्षमताओं को बढ़ावा देना है।
- जैविक अनुसंधान विनियामक अनुमोदन पोर्टल (Biological Research Regulatory Approval Portal: BioRRAP): यह जैविक अनुसंधान के लिए अनुमोदन प्रक्रिया को सरल बनाता है।
- बौद्धिक संपदा (IP) दिशा-निर्देश, 2023: DBT (जैव प्रौद्योगिकी विभाग) ने सार्वजनिक धन से किए गए शोध के व्यावसायीकरण में सुधार के लिए नए बौद्धिक संपदा (IP) दिशा-निर्देश जारी किए हैं।
- आनुवंशिक रूप से इंजीनियर्ड कीटों के लिए दिशा-निर्देश, 2023: यह जेनेटिक इंजीनियरिंग के लाभों को अधिकतम करते हुए सख्त जैव सुरक्षा उपाय सुनिश्चित करता है।
क्षेत्रीय पहल
- उत्तर प्रदेश फार्मास्युटिकल और मेडिकल डिवाइस उद्योग नीति 2023: इसका उद्देश्य विनियामक प्रक्रियाओं को सुव्यवस्थित करना और निवेश को आकर्षित करना है।
- तमिलनाडु की इथेनॉल मिश्रण नीति: 2025 तक 20% इथेनॉल मिश्रण के लक्ष्य को हासिल करने की राष्ट्रीय जैव ईंधन नीति के दृष्टिकोण के अनुरूप, तमिलनाडु का लक्ष्य राज्य में इथेनॉल उत्पादन को बढ़ाने के लिए अपनी विकसित कृषि का लाभ उठाना है।

4. भारत में एक मजबूत जैव-अर्थव्यवस्था का निर्माण करने के समक्ष क्या चुनौतियां हैं?
जैव-अर्थव्यवस्था बनने की राह में नीतिगत, अवसंरचना, तकनीकी विकास और सामाजिक-आर्थिक कारकों से संबंधित विभिन्न चुनौतियां शामिल हैं-
- विनियामकीय चुनौतियां: भारत में विनियामक परिदृश्य बहुत बिखरा हुआ है। जैसे कि विभिन्न एजेंसियों (DBT, FSSAI आदि) की भूमिकाओं का एक-दूसरे से टकराव होता है, जिससे देरी और भ्रम की स्थिति पैदा होती है।
- उदाहरण के लिए, भारत में आनुवंशिक रूप से संशोधित फसलों के लिए अनुमोदन प्रक्रिया विवादास्पद और समय लेने वाली रही है, जैसा कि बी.टी. बैंगन के मामले में देखा गया है।
- इसके अलावा, विभिन्न भारतीय राज्यों में जटिल और अलग-अलग विनियम, परिचालन संबंधी बाधाएं उत्पन्न करते हैं।
- वित्त-पोषण संबंधी मुद्दे: जैव-अर्थव्यवस्था संबंधी परियोजनाओं (जैसे, जैव-प्लास्टिक, जैव ईंधन) की उच्च अग्रिम लागत और रिटर्न प्राप्त होने में लगने वाले लंबे समय के चलते स्टार्ट-अप और यहां तक कि स्थापित कंपनियों के लिए निरंतर निवेश हासिल करना मुश्किल हो जाता है।
- इसके अलावा, बायोटेक के क्षेत्र में निवेश पर रिटर्न की अनिश्चितता निजी निवेशकों को हतोत्साहित कर सकती है।
- बौद्धिक संपदा अधिकारों के संरक्षण से जुड़े हुए मुद्दे: जैव प्रौद्योगिकी में नवाचार के लिए बौद्धिक संपदा अधिकार (IPR) सुरक्षित करना एक जटिल, चुनौतीपूर्ण और धीमी प्रक्रिया है, जो जैव-अर्थव्यवस्था के क्षेत्र में नवाचार को हतोत्साहित करती है। इसके अलावा, पेटेंट अधिनियम की धारा 3(d) भारत में जैव प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (FDI) को बाधित करती है।
- बायोपायरेसी से संबंधित मुद्दे/ समस्या: भारत की समृद्ध जैव विविधता इसे बायोपायरेसी का हॉटस्पॉट बनाती है। विदेशी कंपनियां उचित लाभ-साझाकरण के बिना देशज जैविक संसाधनों का दोहन करने का प्रयास करती रहती हैं।
- उदाहरण के लिए, अमेरिकी पेटेंट कार्यालय द्वारा "घाव भरने में हल्दी के उपयोग" के लिए पेटेंट प्रदान किया गया।
- विस्तार की सीमित क्षमता: शैक्षणिक और उद्योग जगत के मध्य सीमित जुड़ाव के कारण अनुसंधान कार्य को व्यावसायिक उत्पादों में बदलने की भारत में सीमित क्षमता ट्रांसलेशनल रिसर्च के लिए महत्वपूर्ण बाधाओं में से एक है।
- आपूर्ति श्रृंखला संबंधी मुद्दे: भारत का जैव प्रौद्योगिकी क्षेत्रक आवश्यक कच्चे माल, उपकरण और उन्नत प्रौद्योगिकियों के लिए वैश्विक आपूर्ति श्रृंखलाओं पर निर्भर है।
- इसके अलावा, जलवायु परिस्थितियों, भूमि-उपयोग पैटर्न और प्रतिस्पर्धी मांगों (जैसे, खाद्य या चारे) के कारण कृषि अवशेषों जैसे फीडस्टॉक की उपलब्धता अनिश्चित हो सकती है।
- प्रतिस्पर्धा: भारत के जैव-अर्थव्यवस्था क्षेत्रक के बायोटेक क्षेत्रक में वैज्ञानिक अनुसंधान और नवाचार का अभाव है, जैसे- सिंथेटिक लाइफ साइंस, बायोइंफॉर्मेटिक्स और एंजाइम प्रौद्योगिकी आदि।
- इसके अलावा, भारत को उन्नत जैव प्रौद्योगिकी क्षेत्रकों वाले देशों (अमेरिका, चीन, दक्षिण कोरिया) से कड़ी प्रतिस्पर्धा का सामना करना पड़ रहा है, जिससे निवेश का प्रवाह प्रभावित हो रहा है।
- जैव विविधता पर प्रभाव: जैविक संसाधनों के अत्यधिक दोहन और जैव-आधारित उत्पादों की सीमा-पार आवाजाही से प्रमुख प्रजातियों की कमी हो सकती है और आक्रामक विदेशी प्रजातियों का आगमन भी हो सकता है।
- इसके अलावा, नए जैव-आधारित उत्पादों को विकसित करने के लिए फसलों और पशुधन जैसे आनुवंशिक संसाधनों का व्यापक उपयोग करना पड़ता है, जिसके परिणामस्वरूप आनुवंशिक विविधता की हानि होती है।
- भूमि उपयोग पर प्रभाव: उत्पादन और उपभोग से संबंधित जैव-आर्थिक गतिविधियों के चलते भूमि उपयोग के पैटर्न में परिवर्तन आ सकता है।
- उदाहरण के लिए- बायोइथेनॉल के उत्पादन के लिए मक्का और गन्ना जैसी जैव ईंधन वाली फसलें उगाने के लिए कृषि भूमि का विस्तार किया जाएगा।
- कृषि अवशेषों को जैव-आधारित रसायनों में परिवर्तित करने के लिए ग्रामीण क्षेत्रों में जैव-रिफाइनरियों की स्थापना से कृषिगत क्षेत्र में कमी आ सकती है।
- कौशल संबंधी अभाव: भारत में बायो-इंजीनियरिंग, मॉलिक्यूलर बायोलॉजी, जीनोमिक्स एवं अन्य उच्च-तकनीकी क्षेत्रों में प्रशिक्षित पेशेवरों की कमी है, जो कि शैक्षणिक और उद्योग जगत के मध्य अकुशल जुड़ाव के कारण और भी अधिक बढ़ गई है।
- जलवायु परिवर्तन: जैव अर्थव्यवस्था को जलवायु संबंधी जोखिमों से खतरा है। इसमें तूफान और बाढ़ जैसी अचानक घटित होने वाली घटनाएं और वर्षा पैटर्न में बदलाव जैसे धीमी गति से होने वाले परिवर्तन शामिल हैं।
- सार्वजनिक धारणा: आनुवंशिक रूप से संशोधित सजीवों (Genetically Modified Organisms: GMOs) एवं अन्य जैव-आधारित नवाचारों जैसे- प्रयोगशाला में विनिर्मित खाद्य पदार्थ या जैव ईंधन के बारे में आम लोगों के बीच संदेह बना हुआ है। यह जैव-अर्थव्यवस्था के अंतर्गत आने वाले उत्पादों को अपनाने में एक प्रमुख बाधा है।
- उदाहरण के लिए, भारत में आनुवंशिक रूप से संशोधित फसलों के प्रति जनता में काफी विरोध देखा गया है, जिसके परिणामस्वरूप कुछ आनुवंशिक रूप से संशोधित. खाद्य फसलों पर प्रतिबंध लगा दिया गया है।
5. भारत की भावी जैव अर्थव्यवस्था को मजबूत करने के लिए क्या किया जा सकता है?
जैव प्रौद्योगिकी के लाभों को अधिकतम और संभावित जोखिमों को न्यूनतम करने के लिए आवश्यक है कि इस क्षेत्र में योजनाओं का विवेकपूर्ण निर्माण, निवेश को बढ़ावा देना, मजबूत विनियामकीय फ्रेमवर्क को विकसित करना और सभी संबंधित हितधारकों के साथ सक्रिय व समावेशी जुड़ाव सुनिश्चित किया जाए।
- विनियामकीय फ्रेमवर्क को अपडेट करना: विनियामकीय सुधार और वैश्विक मानकों के अनुरूप रणनीतिक सुधार, नवीन जैव-आधारित उत्पादों के उत्पादन और व्यावसायीकरण को सुगम बनाने में मदद कर सकते हैं।
- विनियामक चुनौतियों की पहचान करने और संभावित समाधान निकालने के लिए सभी हितधारकों के साथ सक्रिय भागीदारी की आवश्यकता है।
- इसके अलावा, संधारणीयता सुनिश्चित करने के लिए जिम्मेदारीपूर्ण भूमि-उपयोग नियोजन (Responsible land-use planning) की आवश्यकता होती है।
- अंतर्राष्ट्रीय सहयोग: विशेषज्ञता और बाजारों तक पहुंच हासिल करने के लिए वैश्विक बायोटेक हब एवं कंपनियों के साथ साझेदारी को बढ़ावा देना जरूरी है।
- उदाहरण के लिए, राष्ट्रीय जैव प्रौद्योगिकी सूचना केंद्र वैश्विक मंचों पर भारतीय जैव प्रौद्योगिकी क्षेत्रक की क्षमताओं को दर्शाने के लिए यूरोपियन मॉलिक्यूलर बायोलॉजी लेबोरेटरी, जापान के डी.एन.ए. डेटा बैंक के साथ सहयोग कर सकता है।
- सार्वजनिक-निजी भागीदारी: वित्त-पोषण के स्रोतों को बढ़ाने और इसमें विविधता लाने के लिए सरकार, शैक्षणिक संस्थानों और निजी कंपनियों के बीच सहयोग को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए। उदाहरण के लिए, सहयोगात्मक जैव प्रौद्योगिकी परियोजनाओं को वित्त-पोषित करने के लिए यू.एस. स्मॉल बिजनेस इनोवेशन रिसर्च प्रोग्राम शुरू किया गया है।
- अनुसंधान के लिए नए साझेदारी केंद्र (PaCeR): इनकी स्थापना लाइफ साइंस /जैव प्रौद्योगिकी के क्षेत्रों में संस्थागत अनुसंधान क्षमता को बढ़ाने और मजबूत करने के लिए की जा सकती है।
- यह कदम अनुसंधान की गुणवत्ता को बढ़ाने में सहायक होगा और अंतःविषयक अनुसंधान कार्यक्रमों के विकास के लिए विभिन्न क्षेत्रों के बीच सहयोग एवं समन्वय को प्रोत्साहित करेगा।
- स्टार्ट-अप को बढ़ावा देना: स्टार्ट-अप्स को उनकी तकनीकी अवधारणा को मूर्त रूप में साकार करने हेतु सहायता प्रदान करना, तथा नेटवर्किंग, ज्ञान-साझाकरण और वित्त-पोषण तक पहुँच को सुगम बनाने के लिए जैव-नवाचार केंद्र स्थापित करना चाहिए।
- नए और उभरते क्षेत्रों तथा प्राथमिकता वाले क्षेत्रों जैसे कि प्रेसिजन मेडिसिन, CAR-T तकनीक, जीन एडिटिंग और थेरेपी आदि पर अधिक ध्यान देने से भविष्य की तकनीकों के लिए तैयारी करने में मदद मिल सकती है।
- IP संरक्षण को बढ़ावा देना: नवाचार को प्रोत्साहित करने एवं निवेश को आकर्षित करने के लिए IP कानूनों और उनके प्रवर्तन को मजबूत करने की आवश्यकता है। बायोटेक पेटेंट विवादों को तेजी से निपटाने हेतु पेटेंट अनुमोदन के लिए सिंगल विंडो क्लीयरेंस प्रणाली और विशेष IP अदालतों को स्थापित करने की आवश्यकता है।
- संधारणीय जैव अर्थव्यवस्था को प्रोत्साहित करना: सतत विकास लक्ष्यों (SDGs) के अनुरूप एक संधारणीय जैव-अर्थव्यवस्था को बढ़ावा देने और जैव-अर्थव्यवस्था के लिए वैश्विक स्तर पर स्वीकृत संधारणीय मानदंड स्थापित करने के लिए देशों के मध्य बेहतर सहयोग और समन्वय की आवश्यकता है।

- कौशल विकास: कुशल कार्यबल विकसित करने के लिए प्रशिक्षण और शैक्षणिक कार्यक्रमों में और अधिक निवेश करने की आवश्यकता है। साथ ही, वैश्विक मानकों के अनुरूप गुणवत्ता सुनिश्चित करना, कुशल कार्यबल विकसित करने के लिए विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रम में जैव-अर्थव्यवस्था-केंद्रित पाठ्यक्रमों को भी शामिल करना चाहिए।
- ग्रामीण जैव-उद्यमिता: समग्र, संधारणीयता को अपनाने के लिए व्यवहार्य, पर्यावरण-अनुकूल प्रौद्योगिकियों का प्रदर्शन करके ग्रामीण जैव-उद्यमिता को प्रोत्साहित करना एवं जमीनी स्तर पर नवाचारों को बढ़ावा देना।
- भागीदारीपूर्ण अनुसंधान के माध्यम से वैज्ञानिक-किसान साझेदारी को बढ़ावा देना, नवीन कृषि समाधान विकसित करने के लिए प्रयोगशालाओं को खेतों से जोड़ना।
- सार्वजनिक विश्वास: डेटा-संचालित संचार की ओर बदलाव, स्वयं सहायता समूहों, नागरिकों आदि को शामिल करना ताकि सार्वजनिक विश्वास का निर्माण हो सके और जैव प्रौद्योगिकी समाधानों की स्वीकृति को बढ़ावा मिले तथा जमीनी स्तर पर विकास को बढ़ावा दिया जा सके।
- सामाजिक-जैव अर्थव्यवस्था को बढ़ावा देना: सामाजिक-जैव अर्थव्यवस्था नवीन उत्पाद तैयार करने, सतत आर्थिक विकास को बढ़ावा देने और जैविक, सांस्कृतिक और सामाजिक विविधता को संरक्षित करने के अवसर प्रदान करती है।
निष्कर्ष
जैव-अर्थव्यवस्था में जैविक संसाधनों का उपयोग करके पर्यावरणीय, आर्थिक और सामाजिक चुनौतियों का समाधान करने की क्षमता है, जिससे संधारणीय विकास को बढ़ावा मिल सकता है। हालांकि, इसकी पूरी क्षमता का लाभ उठाने के लिए संसाधनों की कमी, तकनीकी अंतराल और नीतिगत बाधाओं जैसी चुनौतियों का समाधान करना आवश्यक है। आगे बढ़ते हुए, एक सहयोगी दृष्टिकोण अपनाना होगा, जिसमें नवाचार, मजबूत गवर्नेंस, और संधारणीय कार्य पद्धतियों को प्राथमिकता दी जाए। इससे न केवल हरित और रेसिलिएंट भविष्य सुनिश्चित होगा, बल्कि वर्तमान एवं भविष्य की पीढ़ियों के लिए एक समृद्ध, न्यायसंगत और संधारणीय विकास का मार्ग भी प्रशस्त होगा। यह दृष्टिकोण 2047 तक विकसित भारत के लक्ष्य को हासिल करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाएगा।
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