WTO में MFN पर अमेरिकी प्रस्ताव का भारत द्वारा विरोध
भारत विश्व व्यापार संगठन (WTO) में 'मोस्ट-फेवर्ड-नेशन' (MFN) दायित्व को खत्म करने के अमेरिकी प्रस्ताव का विरोध करने के लिए तैयार है। अमेरिका का तर्क है कि यह बहुपक्षीय सिद्धांत वर्तमान आर्थिक और रणनीतिक वास्तविकताओं को नहीं दर्शाता है।
अमेरिका का दृष्टिकोण
- अमेरिका का तर्क है कि MFN सिद्धांत पुराना हो चुका है और देशों को व्यापार संबंधों को बेहतर बनाने से रोकता है, जिससे कल्याणकारी उदारीकरण में बाधा आती है।
- अमेरिका का सुझाव है कि MFN सदस्यों को WTO ढांचे के भीतर 'सभी-के-लिए एक ही तरह का दृष्टिकोण अपनाने ' (one-size-fits-all) के लिए मजबूर करता है।
- अमेरिका के अनुसार, विकसित और विकासशील देशों के बीच का अंतर तेजी से धुंधला होता जा रहा है।
- अमेरिका ने प्रस्ताव दिया है कि सभी सदस्यों को ऐसे पारस्परिक रूप से लाभकारी समझौते करने की अनुमति दी जानी चाहिए जो हर सदस्य तक विस्तारित न हों।
भारत की प्रतिक्रिया
- भारत ने अभी तक औपचारिक रूप से कोई जवाब नहीं दिया है, लेकिन वह अमेरिकी प्रस्ताव का विरोध करने की योजना बना रहा है, क्योंकि यह विश्व व्यापार संगठन के मूल सिद्धांतों के विपरीत है।
- भारत सर्वसम्मति आधारित निर्णय लेने, सदस्य-संचालित चरित्र और 'विशेष और विभेदक व्यवहार' (SDT) जैसे मूलभूत सिद्धांतों को संरक्षित करने के महत्व पर जोर देता है।
- भारत में एक सुसंगत रणनीति विकसित करने और अपनी 'रेड लाइन्स' (अंतिम सीमाएं) की पहचान करने के लिए 'WTO सुधार पर विशेषज्ञों का एक समूह' स्थापित किया गया है।
विश्व व्यापार संगठन (WTO) सुधार और आगामी चर्चाएँ
- 26-29 मार्च, 2026 को याउंडे, कैमरून में निर्धारित 14वीं मंत्रिस्तरीय बैठक (MC14) में WTO सुधार एक महत्वपूर्ण विषय होने की उम्मीद है।
- भारत इस बात पर जोर देता है कि 'मर्राकेश समझौते' के मूलभूत सिद्धांतों पर फिर से बातचीत नहीं की जानी चाहिए।
'विशेष और विभेदक व्यवहार' (SDT) पर अमेरिका का विरोध
- अमेरिका भारत और चीन जैसे विकासशील देशों के लिए SDT का विरोध करता है और कहता है कि WTO की विश्वसनीयता के लिए यह (विरोध) आवश्यक है।
- उसका तर्क है कि व्यापार प्रणाली के महत्वपूर्ण खिलाड़ियों को अनिश्चित काल तक तरजीही व्यवहार नहीं मिलना चाहिए, क्योंकि यह WTO प्रतिबद्धताओं के अनुपालन को कमजोर करता है।
यह चल रही बहस व्यापार नीतियों और WTO की भविष्य की दिशा के संबंध में विकसित और विकासशील देशों के बीच बढ़ते तनाव को दर्शाती है।