भारत के नियामक ढांचे में शक्तियों का पृथक्करण
भारत में शक्तियों के पृथक्करण का पारंपरिक केंद्र विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका है। हालाँकि, वर्तमान चुनौती नियामक निकायों तक फैली हुई है, जो अर्ध-विधायी, कार्यपालिका और अर्ध-न्यायिक शक्तियों का प्रयोग करते हुए लघु-राज्यों के रूप में कार्य करते हैं। भूमिकाओं के इस मिश्रण से प्रक्रियागत भ्रम और सार्वजनिक कानून संबंधी चिंताएँ पैदा हो सकती हैं, जैसा कि सर्वोच्च न्यायालय ने विभिन्न मामलों में उजागर किया है।
नियामक चुनौतियाँ और न्यायिक टिप्पणियाँ
- क्लेरिएंट इंटरनेशनल लिमिटेड एवं अन्य बनाम सेबी (2004) मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने विनियम बनाने और उन पर निर्णय देने में नियामकों की दोहरी भूमिका पर गौर किया था, तथा संभावित सार्वजनिक कानून संबंधी चिंताओं के प्रति चेतावनी दी थी।
- विशाल तिवारी बनाम भारत संघ (2024) मामले में, न्यायालय ने भारतीय प्रतिभूति और विनिमय बोर्ड (SEBI) को अपने अर्ध-न्यायिक और कार्यकारी कार्यों को अलग करने का निर्देश दिया।
- वैधानिक आदेशों के बावजूद, कार्यों का अपर्याप्त पृथक्करण कानूनी चुनौतियों को जन्म दे सकता है, जैसा कि डेलोइट हास्किन्स बनाम भारत संघ (2025) में राष्ट्रीय वित्तीय रिपोर्टिंग प्राधिकरण (NFRA) मामले में देखा गया है।
अंतर्राष्ट्रीय तुलनाएँ और सबक
संयुक्त राज्य अमेरिका एक सख्त पृथक्करण मॉडल प्रस्तुत करता है, जैसा कि प्रतिभूति और विनिमय आयोग (SEC) के व्यवहार से प्रमाणित होता है और अमेरिकी सर्वोच्च न्यायालय द्वारा SEC बनाम जार्केसी (2024) में इसे पुष्ट किया गया है। इस मामले में इस बात पर ज़ोर दिया गया कि दंडात्मक मामलों में प्रशासनिक निकायों की बजाय न्यायालयों को निर्णय लेने की आवश्यकता है।
कार्यों के संलयन से संबंधित समस्याएं
- अर्ध-विधायी और अर्ध-न्यायिक कार्यों का विलय महत्वपूर्ण चुनौतियां प्रस्तुत करता है, ठीक उसी प्रकार जैसे कोई विधायी निकाय अपने कानूनों पर निर्णय देता है।
- भारतीय दिवाला एवं शोधन अक्षमता बोर्ड (IBBI) ने शुरू में पक्षपात के विरुद्ध सुरक्षा उपाय लागू किए थे, जिन्हें बाद में व्यवहार में कमजोर कर दिया गया, जिससे नियामक विवेकाधिकार के खतरे स्पष्ट हो गए।
नियामक प्राधिकरण और दंड
भारत में नियामक निकायों को, सेबी सहित, कठोर शर्तों के तहत मौद्रिक दंड लगाने का अधिकार दिया गया है। इस दृष्टिकोण ने नियामक शक्तियों का विस्तार तो किया है, लेकिन विधायी और न्यायिक कार्यों के बीच की रेखाएँ भी धुंधली कर दी हैं, जैसा कि सेबी के नियमों और दंड सूचियों के विस्तार वाले परिपत्रों से स्पष्ट है।
संस्थागत डिजाइन सुधारों की आवश्यकता
जैसे-जैसे नियामकीय क्षेत्र विस्तृत होते जा रहे हैं, नियम-निर्माण, क्रियान्वयन और न्यायनिर्णयन के लिए अलग-अलग शाखाओं की अनिवार्यता वाले संस्थागत कानूनों की आवश्यकता बढ़ती जा रही है। जब आंतरिक पृथक्करण व्यवहार्य न हो, तो स्वतंत्र न्यायाधिकरणों को हस्तक्षेप करना चाहिए। न्यायालयों को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि नियामक कानून बनाने और लागू करने के बीच की रेखा को धुंधला न करें।
निष्कर्ष
भारत का संवैधानिक वादा निष्पक्ष शासन पर टिका है। नियामकों के भीतर विधायी और न्यायिक शक्तियों का सम्मिलन इस सिद्धांत के लिए ख़तरा है। शासन की मज़बूती का आकलन इस बात से होगा कि शक्तियों का प्रयोग किस प्रकार किया जाता है, और शासन की अखंडता को बनाए रखने के लिए कार्यों के स्पष्ट पृथक्करण की आवश्यकता पर बल दिया जाएगा।