दालों में आत्मनिर्भरता: चुनौतियाँ और पहल
दालें अधिकांश भारतीयों के लिए प्रोटीन का एक प्रमुख स्रोत हैं, फिर भी इनके उत्पादन में आत्मनिर्भरता हासिल करना अभी भी मुश्किल है। दशकों के प्रयासों के बावजूद, आयात पर निर्भरता बढ़ी है, और आयात 2020-21 में 26 लाख टन से बढ़कर 2024-25 में अनुमानित 70 लाख टन हो गया है।
आत्मनिर्भरता की दिशा में ऐतिहासिक प्रयास
- 1966 में दालों पर अखिल भारतीय समन्वित अनुसंधान परियोजना के साथ प्रयास शुरू हुए।
- पिछले दशकों में कई कार्यक्रम शुरू किए गए:
- दलहन विकास योजना (1969-74)
- दालों पर खाद्यान्न उत्पादन कार्यक्रम (1985-90)
- दलहन, तिलहन और मक्का पर प्रौद्योगिकी मिशन (1990 के दशक)
- तिलहन, दलहन और मक्का पर एकीकृत योजना (2004-10)
- दालों के लिए राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा मिशन (2007-12)
- त्वरित दलहन उत्पादन कार्यक्रम (2010-14)
इनमें से ज़्यादातर कार्यक्रमों में एक जैसी रणनीतियाँ अपनाई गईं, जिसके परिणामस्वरूप सीमित सफलता मिली। दालों की औसत उपज 0.74 टन प्रति हेक्टेयर बनी हुई है, जो वैश्विक औसत 0.97 टन से कम है।
वर्तमान चुनौतियाँ
- दालों की प्रति व्यक्ति उपलब्धता 2017 में 54.4 ग्राम प्रतिदिन से घटकर वर्तमान में 43.6 ग्राम रह गई है, जबकि राष्ट्रीय पोषण संस्थान द्वारा प्रतिदिन 85 ग्राम दालों की अनुशंसित मात्रा निर्धारित की गई है।
- दलहन की खेती का शुद्ध क्षेत्रफल 2021-22 में 31 मिलियन हेक्टेयर से घटकर 2024-25 में 27.5 मिलियन हेक्टेयर रह गया है।
- इसी अवधि में उत्पादन 27.3 मिलियन टन से घटकर 25.2 मिलियन टन रह गया।
नई पहल
दलहन में आत्मनिर्भरता के लिए ₹11,440 करोड़ के मिशन (दलहन आत्मनिर्भरता मिशन) की घोषणा की गई, जिसका लक्ष्य दिसंबर 2027 तक दलहन की खेती का रकबा बढ़ाने, मिश्रित खेती और न्यूनतम समर्थन मूल्य पर सुनिश्चित विपणन जैसी रणनीतियों के माध्यम से आत्मनिर्भरता हासिल करना है। हालाँकि, दृष्टिकोण पिछली रणनीतियों जैसा ही है।
आर्थिक विचार
अन्य फसलों की तुलना में दालों की खेती कम लाभदायक है, जिसके कारण इन्हें सीमांत भूमि पर उगाया जाता है। उत्पादन में सतत वृद्धि के लिए दालों की खेती की आर्थिक व्यवहार्यता पर ध्यान देना अत्यंत आवश्यक है।