क्रेडाई बनाम वनशक्ति मामले में सर्वोच्च न्यायालय के फैसले की समीक्षा
भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने 18 नवंबर, 2025 को क्रेडाई बनाम वनशक्ति मामले में मई में दिए गए अपने पिछले फैसले की समीक्षा की और उसे वापस ले लिया। प्रारंभिक फैसले में पूर्वव्यापी पर्यावरणीय मंज़ूरी (EC) की अनुमति देने वाली अधिसूचनाओं को अवैध घोषित किया गया था। यह निर्णय महत्वपूर्ण था क्योंकि इसमें पर्यावरण कानूनों के प्रवर्तन पर ज़ोर दिया गया था। हालाँकि, न्यायालय ने अब इस रुख में संशोधन करते हुए कहा है कि पूर्वव्यापी पर्यावरणीय मंज़ूरी कुछ मामलों में जनहित में हो सकती है। इस बदलाव पर, खासकर न्यायमूर्ति उज्ज्वल भुयान की ओर से असहमति जताई गई है।
मूल निर्णय और उसका तर्क
- न्यायमूर्ति ए.एस. ओका द्वारा लिखित मूल फैसले में 2017 और 2021 की अधिसूचनाओं को खारिज कर दिया गया था, जिसमें पूर्वव्यापी पर्यावरणीय मंजूरी की अनुमति दी गई थी।
- इसने भारत के पर्यावरण कानूनों के केंद्रीय तत्व के रूप में पूर्व पर्यावरणीय स्वीकृति की आवश्यकता पर बल दिया, जिसे पारिस्थितिकी क्षति को रोकने के लिए बनाया गया है।
- निर्णय में पूर्व निर्णयों और अंतर्राष्ट्रीय मानकों का संदर्भ दिया गया, जिसमें एहतियाती सिद्धांत और 1972 का स्टॉकहोम सम्मेलन भी शामिल था।
- उद्धृत प्रमुख मामलों में कॉमन कॉज बनाम भारत संघ (2017) और एमसी मेहता मामले शामिल हैं, जिन्होंने पूर्व-निवारक पर्यावरणीय जांच के महत्व को रेखांकित किया।
समीक्षा निर्णय से संबंधित मुद्दे
- समीक्षा निर्णय में परिपत्र तर्क के माध्यम से पूर्वव्यापी मंजूरी को उचित ठहराने का प्रयास किया गया है, जिसमें सुझाव दिया गया है कि पूर्व पर्यावरणीय मंजूरी के अभाव में परियोजनाओं को रोकने से जन कल्याण को नुकसान पहुंचेगा।
- सिद्धांत से सुविधा की ओर यह बदलाव पर्यावरणीय विनियमों के प्रवर्तन को कमजोर करता है तथा गैर-अनुपालन के लिए एक मिसाल कायम करता है।
- न्यायमूर्ति भुयान की असहमति बहुमत की राय की विसंगतियों और प्रतिगामी प्रकृति को उजागर करती है।
पर्यावरणीय शासन के लिए निहितार्थ
- यह निर्णय पर्यावरण प्रभाव आकलन (EIA) प्रक्रिया को कमजोर करता है तथा सार्वजनिक भागीदारी, विशेषज्ञ मूल्यांकन और वैज्ञानिक मूल्यांकन को मात्र औपचारिकता तक सीमित कर देता है।
- अनुपालन पर कम जोर दिया जाता है, जिससे विनियामक प्रवर्तन और निवारण कमजोर हो जाता है।
- यह निर्णय बढ़ते जलवायु परिवर्तन और पर्यावरणीय नाजुकता के युग में एक चिंताजनक संकेत देता है।
पूर्वव्यापी पर्यावरणीय स्वीकृति (EC) पर अपने रुख में संशोधन करने का न्यायालय का निर्णय भारत के विधि-शासन की विश्वसनीयता के लिए एक चुनौती है और पर्यावरणीय शासन के भविष्य को लेकर चिंताएँ पैदा करता है। यह न्यायालय द्वारा अधिसूचनाओं की वैधता और पर्यावरणीय जवाबदेही के व्यापक निहितार्थों से जुड़े मुद्दों का पुनर्मूल्यांकन करने की आवश्यकता पर प्रकाश डालता है।