“भारत में सीमांत किसानों की दशा, 2025” शीर्षक से एक रिपोर्ट जारी की गई | Current Affairs | Vision IAS
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रिपोर्ट में सीमांत किसानों की सहकारी समितियों पर निर्भरता पर प्रकाश डाला गया है, जो सीमित संसाधनों, ज्ञान और बुनियादी ढांचे जैसी बाधाओं का सामना कर रहे हैं, और सहकारी भागीदारी और ग्रामीण आजीविका को बढ़ाने के लिए सिफारिशें प्रस्तुत की गई हैं।

In Summary

यह रिपोर्ट सहकारी संस्थाओं में सीमांत किसानों (Marginal farmers) की भागीदारी का विश्लेषण करती है। गौरतलब है कि सहकारी संस्थाएं निर्धनता उन्मूलन, आजीविका की सुरक्षा और ग्रामीण क्षेत्र में परिवर्तन लाने में उत्प्रेरक की भूमिका निभाती हैं।  

  • भारत में एक हेक्टेयर से कम भू-स्वामित्व वाले कृषकों को सीमांत किसान कहा जाता है। देश में कुल कृषकों में 65.4% सीमांत किसान हैं, किंतु उनके पास देश की केवल 24% कृषि योग्य भूमि है।
  • सीमांत किसान देश में सर्वाधिक संकटों का सामना करने वाले समुदायों में शामिल हैं। ऐसा निम्नलिखित कारणों से है:
    • भूखंड का आकार छोटा होना, 
    • ऋण और कृषि आदानों (इनपुट्स) की प्राप्ति में समस्या, 
    • लाभकारी बाजारों तक पहुंचने में समस्या,
    • लोक-सेवाओं की प्राप्ति में समस्या, इत्यादि।
  • इन किसानों के लिए प्राथमिक कृषि ऋण समितियां (PACS) और अन्य कृषि सहकारी संस्थाएं कृषि एवं आजीविका संबंधी अनिवार्य आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए सबसे नजदीकी और प्रभावी संस्थागत माध्यम हैं। 

सीमांत किसानों को सहकारी संस्थाओं से जुड़ने में सामान्य बाधाएं

  • कृषक-स्तरीय बाधाएं: इनमें शामिल हैं; सरकारी योजनाओं और लाभकारी कार्यक्रमों की कम जानकारी होना, लंबी और जटिल नौकरशाही-प्रक्रियाएं, सहकारी कार्यालयों का दूर स्थित होना, डिजिटल उपकरणों को संचालित करने का कम ज्ञान, आदि। 
  • वित्तपोषण संबंधी बाधाएं: PACS के पास पूंजी अपर्याप्त है और ऋण देने के लिए धनराशि भी कम उपलब्ध होती है। इससे उनकी सेवाओं का अधिक विस्तार नहीं हो पाता है और सेवा-प्रदायगी बाधित होती है।
    • उत्तराखंड और महाराष्ट्र में ऐसी ही समस्याएं दर्ज की गई हैं। 
  • सहकारी सेवाओं का कम उपयोग: सहकारी संस्थाओं को स्थानीय स्तर पर क्षमता की कमी, प्रशिक्षित कर्मियों की कम संख्या तथा भौगोलिक या लॉजिस्टिक संबंधी बाधाओं का सामना करना पड़ता है।  
  • अवसंरचना की कमी: भौतिक सुविधाओं की कमी सहकारी संस्थाओं के संचालन को बाधित करती हैं। इन संस्थाओं का पर्याप्त डिजिटलीकरण नहीं होने के कारण पारदर्शिता व सेवाओं की उपलब्धता प्रभावित होती है। जैसा कि  उत्तराखंड में देखा गया है।
  • महिलाओं की कम भागीदारी: सहकारी संस्थाएं अब भी मुख्यतः पुरुष-प्रधान बनी हुई हैं। यह समस्या उन प्रदेशों में भी देखी गई है जहां कृषि और घरेलू आर्थिक कार्यों में महिलाओं की अधिक भागीदारी रही है।  

सहकारी संस्थाओं में सीमांत किसानों की भागीदारी बढ़ाने हेतु सिफारिशें

  • PACS संस्था को अधिक लोकप्रिय बनाना: ऐसा जनसंचार एवं सामुदायिक स्तर के अभियानों, डिजिटल टूल्स के उपयोग तथा PACS के विविध कार्यों के प्रचार के माध्यम से किया जा सकता है। 
  • मिशन-मोड दृष्टिकोण अपनाना: ‘कृषक-पहले’ के सिद्धांत के साथ “सहकार से समृद्धि” को बढ़ावा देना चाहिए। इसके लिए सहकार शक्ति–सखा/सखी मॉडल के रूप में एक अलग सहकारी कैडर का निर्माण करना चाहिए।  
  • संस्थाओं के माध्यम से सहायता बढ़ाना: इसके लिए प्रशासनिक बाधाओं को कम करने, वित्तीय एवं डिजिटल समावेशन को बढ़ावा देने, तथा डिजिटल पब्लिक इंफ्रास्ट्रक्चर (DPI) और कोऑपरेटिव स्टैक का विकास करने की आवश्यकता है।  
  • द्वि-संरचना स्तरीय मॉडल को अपनाना: बिहार में PACS के साथ-साथ किसान उत्पादक कंपनियों (FPCs) के नेटवर्क का भी विस्तार हो रहा है। इस तरह राज्य में सामूहिक कृषक संस्थाओं की एक विशिष्ट और पूरक सह-अस्तित्व वाली संरचना विकसित हो रही है।   
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