दिवाला एवं शोधन अक्षमता संहिता पर राष्ट्रीय कंपनी कानून न्यायाधिकरण का फैसला
राष्ट्रीय कंपनी कानून न्यायाधिकरण (NCLT) ने दिवाला एवं शोधन अक्षमता संहिता (IBC) के तहत ऋण स्थगन के दायरे के संबंध में एक महत्वपूर्ण फैसला सुनाया है। न्यायाधिकरण ने स्पष्ट किया है कि ऋण स्थगन बैंकों को धोखाधड़ी वाले खातों की पहचान करने और उन्हें वर्गीकृत करने से नहीं रोकता है और इस कृत्य को बैंक का एक प्रशासनिक निर्णय बताया।
फैसले के निहितार्थ
- यह निर्णय ऐसे अनेक मामलों को प्रभावित कर सकता है, जहां ऋणदाता कॉर्पोरेट दिवाला समाधान प्रक्रिया (CIRP) के दौरान कॉर्पोरेट देनदार के खाते को 'धोखाधड़ीपूर्ण' घोषित करने का प्रयास कर रहे हैं।
- न्यायाधिकरण ने इस बात पर जोर दिया कि CIRP और धोखाधड़ी की पहचान अलग-अलग उद्देश्यों की पूर्ति करती है और दोनों अलग-अलग प्रक्रियाएं हैं।
- न्यायाधिकरण की भूमिका CIRP की अखंडता सुनिश्चित करना और इसके अंतर्गत धोखाधड़ी संबंधी गतिविधियों को रोकना है, न कि बैंक के वर्गीकरण निर्णयों को चुनौती देना।
कानूनी दृष्टिकोण
- IBC का उद्देश्य दिवालियापन समाधान को प्रभावित करने वाली कार्रवाइयों को रोकना है तथा धोखाधड़ी का वर्गीकरण CIRP में बाधा नहीं डालता है।
- इसके अतिरिक्त, धारा 66(2) CIRP के दौरान धोखाधड़ी वाले व्यापार को संबोधित करने में रिज़ोल्यूशन प्रोफेशनल्स का समर्थन करती है।
रणनीतिक निहितार्थ
- इस निर्णय से हितधारकों के लिए मुकदमेबाजी की रणनीतियों में बदलाव आवश्यक हो गया है, क्योंकि न्यायाधिकरण बैंकों के प्रशासनिक निर्णयों में हस्तक्षेप करने से बचेंगे।
- इससे कॉर्पोरेट देनदारों और प्रमोटरों को CIRP के दौरान संभावित आपराधिक जांच का सामना करना पड़ सकता है, जिससे रिज़ोल्यूशन एप्लिकेंट्स के लिए जोखिम बढ़ सकता है। उन्हें ऐसी कानूनी चुनौतियों और लागतों का सामना करना पड़ सकता है।