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पारिस्थितिकी-केंद्रित दृष्टिकोण

01 Jun 2025
25 min

सुर्ख़ियों में क्यों?

हाल ही में, सुप्रीम कोर्ट ने यह उल्लेख किया है, कि अंतर्राष्ट्रीय न्यायशास्त्र (International jurisprudence) के क्षेत्र में भारत पहला देश है जिसने मानव-केंद्रित (Anthropocentric) दृष्टिकोण से हटकर पारिस्थितिकी-केंद्रित दृष्टिकोण अपनाया है।

अन्य संबंधित तथ्य

  • भारत के सुप्रीम कोर्ट ने तेलंगाना के वन्यजीव वार्डन को कांचा गाचीबोवली 'वन' क्षेत्र की 100 एकड़ वन भूमि के विनाश से प्रभावित वन्यजीवों की सुरक्षा हेतु त्वरित कार्रवाई करने का निर्देश दिया है।
  • यह निर्देश उस समय जारी किया गया जब तेलंगाना सरकार ने हैदराबाद विश्वविद्यालय के पास लगभग 400 एकड़ वन भूमि की नीलामी कर IT पार्क बनाने की योजना बनाई थी। इस नीलामी का छात्र बड़े स्तर पर विरोध प्रदर्शन कर रहे हैं।

पारिस्थितिकी-केंद्रित दृष्टिकोण के बारे में

  • यह दृष्टिकोण सम्पूर्ण पारिस्थितिक-तंत्र और उसके घटकों के संवर्धन को प्राथमिकता देता है। साथ ही, यह प्रकृति को स्वयं में मूल्यवान मानता है, न कि केवल मानव उपयोग के लिए।
  • हालांकि, इसके विपरीत मानव-केंद्रित दृष्टिकोण इस विश्वास पर आधारित है कि मनुष्य पृथ्वी पर सबसे महत्वपूर्ण इकाई है और अन्य प्राणियों अथवा चीजों को मुख्य रूप से मनुष्यों के लिए उनकी उपयोगिता के आधार पर महत्व दिया जाता है।
  • उदाहरण के लिए, एम.सी. मेहता बनाम भारत संघ वाद (1986) में, सुप्रीम कोर्ट ने माना कि प्रदूषण मुक्त वातावरण में रहने का अधिकार संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत जीवन का मौलिक अधिकार है।
  • इस दृष्टिकोण को मान्यता नॉर्वे के दार्शनिक अर्ने नेस द्वारा डीप इकोलॉजी मूवमेंट से भी मिली है।
    • इस आंदोलन ने इस विचार को बढ़ावा दिया कि मनुष्य को प्रकृति के साथ अपने जुड़ाव में आमूलचूल परिवर्तन करना होगा। इसमें प्रकृति को केवल मानव के लिए उसकी उपयोगिता के आधार पर महत्व देने के स्थान पर प्रकृति के अंतर्निहित मूल्य को स्वीकार करने वाले दृष्टिकोण को अपनाना चाहिए।
  • यह विचार हित सिद्धांत (Interest Theory) से भी सुसंगत है, जो यह कहता है कि कोई भी व्यक्ति उन अधिकारों का दावा कर सकता है जो उसके हित में हों, और जिनसे मिलने वाला लाभ आंतरिक या अंतिम मूल्य वाला हो।

मानव-केंद्रित और पारिस्थितिकी-केंद्रित दृष्टिकोण के बीच अंतर

 

मानव-केंद्रित

पारिस्थितिकी-केंद्रित

कानूनी अधिकार

कानूनी अधिकार केवल मनुष्यों या मानव हितों तक ही सीमित होते हैं।

प्रकृति (जैसे नदियां) के भी कानूनी अधिकार हो सकते हैं।

नैतिक आधार

मनुष्य को साध्य के रूप में माना जाता है।

  • दार्शनिक इमैनुअल कांट ने तर्क दिया कि मनुष्य का यह स्पष्ट कर्तव्य है कि वह लोगों को सदैव साध्य के रूप में देखेकभी भी मात्र साधन के रूप में नहीं

समतावादी (Egalitarian) दृष्टिकोण

नीतिगत दृष्टिकोण

पर्यावरण संरक्षण प्रतिक्रियात्मक और मानव-हित से प्रेरित है।

सक्रिय रूप से पारिस्थितिकी का संरक्षण।

संरक्षण संबंधी  रणनीति

उपयोगितावादी संरक्षण (जो उपयोगी है उसका संरक्षण करना)।

समग्र संरक्षण (सभी जैव विविधता का समान रूप से संरक्षण करना)।

उदाहरण

इको-टूरिज्म को बढ़ावा देना (संरक्षण को आर्थिक गतिविधि से जोड़ना)।

नदियों या वनों को कानूनी व्यक्ति  के समान अधिकार प्रदान करना।

  • उत्तराखंड हाई कोर्ट ने गंगा और यमुना नदियों को "विधिक यानी जीवित व्यक्ति" का दर्जा प्रदान कर उन्हें  उसके अनुरूप अधिकार प्रदान किए जाने का आदेश दिया है।

पारिस्थितिकी-केंद्रित दृष्टिकोण के लिए प्रमुख चालक/ सुविधाकर्ता

  • संवैधानिक आधार:
  • अनुच्छेद 21: इसमें जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार शामिल है।
  • अनुच्छेद 48A: राज्य को पर्यावरण और वन्य जीवन का संरक्षण और सुधार करने का निर्देश देता है। 
  • अनुच्छेद 51A (g): प्राकृतिक संसाधनों का संरक्षण करना नागरिकों का मौलिक कर्तव्य है।
  • न्यायिक सक्रियता: इसके जरिए न्यायपालिका ने खुद अपनी बात नहीं कह सकने वालों जैसे कि पशु, वन और प्रकृति के पक्ष को रखा।
    • सामाजिक कार्यकर्ताओं, गैर सरकारी संगठनों और नागरिकों द्वारा दायर जनहित याचिकाओं (PIL) ने इसमें महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। 
  • पर्यावरणीय न्यायशास्त्र का विकास: उदाहरणार्थ, पब्लिक ट्रस्ट सिद्धांत और एहतियाती सिद्धांत।
    • पब्लिक ट्रस्ट सिद्धांत: इसका मतलब है कि प्रकृति सभी की है और सरकार इसे जनता के लिए एक ट्रस्टी की तरह संभालती है।
    • एहतियाती सिद्धांत (Precautionary Principle): इसका मतलब है कि नुकसान होने से पहले ही कदम उठाए जाएं।
  • पर्यावरणीय क्षरण और पारिस्थितिकी संकट: जैसे वनों की कटाई, नदी प्रदूषण, आदि।
  • सांस्कृतिक लोकाचार: भारत की पारंपरिक विचारधारा यह नहीं मानती है कि मनुष्य प्रकृति से श्रेष्ठ है। इसके बजाय, पर्यावरण को एक जीवित इकाई माना गया है और मनुष्य उसका एक हिस्सा है।
  • विधायी उपाय: उदाहरणार्थ, पशु क्रूरता निवारण अधिनियम (1960), वन्यजीव (संरक्षण) अधिनियम (1972), आदि।

निष्कर्ष

भारत की न्यायपालिका द्वारा पारिस्थितिक तंत्र को केंद्र में रखकर निर्णय लेना एक बड़ा और परिवर्तनकारी कदम है। यह प्रकृति के अपने आप में मूल्यवान होने को मान्यता देता है। यह हमारे संविधान की उस सोच को फिर से मजबूत करता है जिसमें मनुष्य और प्रकृति के बीच संतुलित सह-अस्तित्व की बात की गई है। इससे दीर्घकालिक पारिस्थितिक न्याय सुनिश्चित होता है।

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