प्रस्तावना
“जो कोई भी जल संबंधी समस्याओं का समाधान कर सकता है, वह दो नोबेल पुरस्कार हासिल करने का हकदार होगा– एक शांति के लिए और दूसरा विज्ञान के लिए”। जॉन एफ कैनेडी का यह कथन जल संसाधन प्रबंधन की खराब स्थिति और इसके गवर्नेंस के संबंध में मौजूद चुनौतियों को सही मायने में दर्शाता है। निस्संदेह, स्वच्छ जल एक मूलभूत मानवाधिकार है। खाद्य और कृषि संगठन (FAO) के अनुसार, 2025 तक 1.8 बिलियन लोगों को गंभीर जल संकट का सामना करना पड़ सकता है। इसलिए वाटर गवर्नेंस का प्रश्न महत्वपूर्ण हो जाता है।
भारत में विश्व की लगभग 18% जनसंख्या निवास करती है, लेकिन यहां विश्व के मीठे जल का केवल 4% हिस्सा ही उपलब्ध है। जल क्षेत्र में महत्वपूर्ण निवेश और सुधार के बावजूद, भारत में जल की बढ़ती मांग का प्रबंधन करना बहुत मुश्किल होता जा रहा है। यदि वर्तमान स्थिति नहीं बदली गई, तो भारत की जल संबंधी समस्याएं और गंभीर हो जाएंगी।
1. वाटर गवर्नेंस क्या है तथा भारत में वाटर गवर्नेंस के कौन-कौन से घटक हैं?
वाटर गवर्नेंस उन राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक और प्रशासनिक प्रणालियों के कार्यक्षेत्र से संबंधित है, जो जल संसाधनों के विकास एवं प्रबंधन तथा समाज के अलग-अलग स्तरों पर जल सेवाओं की आपूर्ति के लिए बनाई गई हैं।
- सामान्य रूप से यह एक सक्षमकारी परिवेश है, जहां जल प्रबंधन संबंधी गतिविधियां शामिल होती हैं। इसमें निम्नलिखित शामिल हैं:
- जल संसाधनों से संबंधित नीतियों, रणनीतियों, योजनाओं, वित्त और प्रोत्साहन संरचनाओं का विकास;
- जल से जुड़े कानूनी व विनियामक ढांचे और संस्थान;
- योजना, निर्णय-निर्माण और निगरानी प्रक्रियाएं आदि।
- इसमें जल संसाधनों के संरक्षण और सतत उपयोग को सुनिश्चित करने के लिए जिम्मेदारीपूर्ण कार्रवाई शामिल है।

भारत में वाटर गवर्नेंस के घटक
जल, राज्य सूची का एक विषय है। इसलिए जल संसाधनों के संवर्धन, संरक्षण और दक्ष प्रबंधन के लिए मुख्य रूप से संबंधित राज्य सरकारों द्वारा कदम उठाए जाते हैं। राज्य सरकारों के प्रयासों को समर्थन देने के लिए, केंद्र सरकार अलग-अलग योजनाओं और कार्यक्रमों के माध्यम से उन्हें तकनीकी एवं वित्तीय सहायता प्रदान करती है।
संवैधानिक ढांचा
- अनुच्छेद 262: इसके तहत संसद कानून द्वारा किसी भी अंतर्राज्यीय नदी या नदी घाटियों के जल के उपयोग, वितरण या नियंत्रण के संबंध में किसी भी विवाद के न्यायनिर्णयन के लिए प्रावधान कर सकती है।
- इसके अलावा, न तो सुप्रीम कोर्ट और न ही कोई अन्य न्यायालय ऐसे किसी विवाद के संबंध में अपने अधिकार क्षेत्र का उपयोग कर सकते हैं।
कानूनी ढांचा
- अंतर्राज्यीय नदी जल विवाद (ISRWD) अधिनियम, 1956: इसके तहत जल विवाद के निपटारे के लिए केंद्र सरकार जल विवाद अधिकरण का गठन कर सकती है।
- अब तक 9 नदी जल विवाद अधिकरण गठित किए गए हैं। इनमें से 5 अधिकरणों ने संबंधित विवाद का निपटान कर दिया है और 4 अभी भी सक्रिय हैं।
- नदी बोर्ड अधिनियम, 1956: यह केंद्र सरकार को अंतर्राज्यीय नदियों और नदी घाटियों के विनियमन एवं विकास के लिए नदी बोर्ड का गठन करने का प्रावधान करता है।
- जल (प्रदूषण निवारण और नियंत्रण) अधिनियम, 1974: इसके तहत सीवेज और संयंत्र से निकलने वाले अपशिष्ट जल की निगरानी, नियंत्रण एवं निर्देश देने के लिए केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड तथा संबंधित राज्य बोर्ड स्थापित किए गए हैं।
- पर्यावरण (संरक्षण) अधिनियम, 1986: यह केंद्र सरकार को सभी प्रकार के पर्यावरण प्रदूषण को रोकने के लिए अधिकृत प्राधिकरण स्थापित करने का अधिकार देता है।
संस्थागत ढांचा
- केंद्रीय भूजल बोर्ड (CGWB): यह जल शक्ति मंत्रालय के तहत कार्यरत एक शीर्ष राष्ट्रीय एजेंसी है। इसे भूजल संसाधनों के प्रबंधन, अन्वेषण, निगरानी, संवर्धन और विनियमन के लिए वैज्ञानिक इनपुट प्रदान करने की जिम्मेदारी सौंपी गई है।
- केंद्रीय जल आयोग (CWC): यह राज्य सरकारों के परामर्श से बाढ़ नियंत्रण, सिंचाई तथा पेयजल के लिए जल के नियंत्रण और संरक्षण की योजनाओं के समन्वय जैसी सामान्य जिम्मेदारियों को पूरा करने वाला एक प्रमुख तकनीकी संगठन है।
- राष्ट्रीय जल विज्ञान संस्थान: यह भी जल शक्ति मंत्रालय के तहत आता है। यह भारत में जल विज्ञान और जल संसाधन के क्षेत्र में कार्य करने वाला प्रमुख अनुसंधान संगठन है।
- राष्ट्रीय स्वच्छ गंगा मिशन (NMCG): इसे पर्यावरण (संरक्षण) अधिनियम, 1986 के तहत गठित किया गया है। इसे गंगा नदी के कायाकल्प, संरक्षण और प्रबंधन के लिए राष्ट्रीय परिषद की कार्यान्वयन शाखा के रूप में कार्य करने वाली पंजीकृत सोसाइटी के रूप में मान्यता प्राप्त है। ज्ञातव्य है कि गंगा नदी के कायाकल्प, संरक्षण और प्रबंधन के लिए राष्ट्रीय परिषद को प्रधान मंत्री की अध्यक्षता वाली राष्ट्रीय गंगा परिषद भी कहा जाता है।

2. हमें प्रभावी वाटर गवर्नेंस की आवश्यकता क्यों है?
जल से संबंधित प्रभावी नियम और कानून जलवायु संकट से निपटने, खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करने, गरीबी से लड़ने और संघर्षों का समाधान करने जैसे कई लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए महत्वपूर्ण हैं। इससे एक संधारणीय और समानता युक्त विश्व का आधार तैयार होता है।
- जीवन के लिए जल का अधिकार: प्रत्येक व्यक्ति को अपने घर के आस-पास आसानी से जीवन जीने के लिए पर्याप्त मात्रा में सुरक्षित जल प्राप्त करने का अधिकार है।
- उल्लेखनीय है कि स्वच्छ पेयजल का अधिकार एक मौलिक अधिकार है, जो संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत संरक्षित है।
- सीमा-पार नदियों की उपस्थिति: भारत में 25 प्रमुख नदी बेसिन और 103 उप-बेसिन हैं, जो कई देशों में फैले हुए हैं।
- इनमें सिंधु, तीस्ता, ब्रह्मपुत्र जैसी कई अंतर्राष्ट्रीय नदियां भी शामिल हैं, जिन पर प्रत्येक संबंधित देश अपने अधिकार क्षेत्र का दावा करते हैं।

- जल की कमी से निपटना: कई कारक जल के अभाव में योगदान करते हैं। इनमें निम्नलिखित शामिल हैं-
- भौतिक अभाव: जलवायु परिस्थितियों या असंधारणीय प्रबंधन के कारण सीमित उपलब्धता;
- सामाजिक-आर्थिक अभाव: अतिरिक्त जल अवसंरचना बनाने की समाज की अक्षमता; तथा
- दबावपूर्ण अभाव: राजनीतिक संघर्ष के कारण अभाव।
- भारत का 54% हिस्सा उच्च से अत्यधिक उच्च जल तनाव का सामना कर रहा है (चित्र 2.1)।
- जल प्रदूषण: देश की अधिकांश नदियां और भू-जल अनुपचारित अपशिष्ट जल एवं सीवेज से दूषित हैं।
- केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के 2011 के एक सर्वेक्षण में बताया गया है कि देश के केवल 2% कस्बों में सीवरेज सिस्टम और सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट, दोनों हैं।
- जल, साफ-सफाई और स्वच्छता को बढ़ावा देना: यह दस्त, ट्रैकोमा जैसे उपेक्षित उष्णकटिबंधीय रोगों और जलजनित अन्य विविध बीमारियों को दूर करने में भूमिका निभा सकता है।
- जलवायु परिवर्तन: यह जल चक्र पर अपने प्रभावों के साथ नई चुनौतियां पेश करता है।
- इससे वर्षा और वाष्पीकरण-उत्सर्जन की तीव्रता में वृद्धि के कारण बाढ़ एवं सूखे के प्रभाव में और अधिक बढ़ोतरी होगी।
- कृषि में जल उपयोग दक्षता का कम होना: भारत में कुल जल खपत का लगभग 80% हिस्सा सिंचाई और अन्य कृषि गतिविधियों में उपयोग किया जाता है। ज्ञातव्य है कि भारत में कृषि कार्यों की जल उपयोग दक्षता पूरे विश्व में सबसे कम है।
- वर्तमान में भारत में कृषि कार्यों की जल उपयोग दक्षता 25-35 प्रतिशत है। यह मलेशिया और मोरक्को में 40-45 प्रतिशत तथा इजरायल, जापान, चीन व ताइवान में 50-60 प्रतिशत की तुलना में अत्यधिक कम है।
- आभासी जल का निर्यात (Virtual water export): 1990 तक भारत से आभासी जल का निर्यात लगभग नगण्य था और वर्तमान में भारत का आभासी जल निर्यात 1990-2018 की अवधि में 32 बिलियन घन मीटर तक बढ़ गया है।
- आभासी जल को “एम्बेडेड वाटर (Embedded water)” भी कहा जाता है। यह वस्तुओं और सेवाओं के उत्पादन में उपयोग किया जाने वाला जल है, लेकिन अंतिम उपयोगकर्ता द्वारा इसे प्रत्यक्षतः नहीं देखा जाता है।
- जल संबंधी अवसंरचना का निर्माण: कार्यात्मक और प्रभावी वाटर गवर्नेंस ढांचा, निवेशकों के लिए जोखिम को कम करके जल संबंधी अवसंरचना में मजबूत और अधिक कुशल निवेश के अवसर प्रदान करता है।
- जल की बर्बादी का समाधान: एक अन्य अनुमान के अनुसार, हर दिन 4,84,20,000 करोड़ घन मीटर पानी अर्थात् 48.42 अरब लीटर पानी बर्बाद होता है।
3. वाटर गवर्नेंस की मौजूदा रणनीतियों में कौन-सी कमियां मौजूद हैं?
जल संकट की वर्तमान स्थिति ने वर्तमान फ्रेमवर्क में मौजूद चुनौतियों को उजागर किया है। इन चुनौतियों के उचित मूल्यांकन के बिना वाटर गवर्नेंस हेतु बेहतर रणनीति तैयार नहीं की जा सकती हैं।
- कमांड-एंड-कंट्रोल प्रकृति: वाटर गवर्नेंस के इस दृष्टिकोण में नदी प्रणालियों, उनके जलग्रहण क्षेत्रों (कैचमेंट एरिया) की स्थिति, या भूजल के साथ उनके परस्पर जुड़ाव को शामिल नहीं किया जाता है।
- यह एक संकीर्ण दृष्टिकोण है जिसमें बांधों का निर्माण या भूजल की निकासी (चित्र 3.1 देखें) शामिल होती है और यह इंजीनियरिंग एवं हाइड्रोजियोलॉजी पर आधारित होता है।
- यह एक-आयामी दृष्टिकोण है, जो केवल जल के आर्थिक उपयोग पर केंद्रित है।
- नौकरशाही आधारित गवर्नेंस: यह एक बड़ा, केंद्रीकृत या टॉप-टू-डाउन दृष्टिकोण है। यह स्थानीय समुदायों, सरकार, उद्योगों आदि सहित वाटर गवर्नेंस में शामिल विभिन्न हितधारकों के दृष्टिकोण को शामिल नहीं करता है।
- जल के प्रति वस्तुपरक दृष्टिकोण: नदियों और भूजल को पूरी तरह से उपयोग के संदर्भ में देखा जाता है और उनके द्वारा प्रदान की जाने वाली पारिस्थितिक सेवाओं की उपेक्षा की जाती है।
- इस स्थिति में, नदियों और भूजल दोनों ही मामलों में जल संसाधनों के संधारणीय उपयोग पर ध्यान नहीं दिया जाता है।
- जल की आपूर्ति पर ध्यान: जल की आपूर्ति बढ़ाने पर पूरा ध्यान केंद्रित होने के कारण, जल संसाधनों की मांग के प्रबंधन में शायद ही कोई प्रयास किया गया हो।
- जल संबंधी नीति का अन्य नीतियों के साथ समन्वय न होना: भूजल और सतही जल के साथ-साथ सिंचाई और घरेलू कार्यों में उपयोग होने वाले जल को अलग-अलग समझा जाता है। इस कारण से वाटर गवर्नेंस से संबंधित निकायों के बीच बेहतर ढ़ंग से संचार नहीं होता है।
- CGWB, CWC और स्थानीय निकाय जैसे विभिन्न संस्थाओं के कार्यों में तालमेल का अभाव रहता है।
- पारदर्शिता और जल-संबंधित सूचना की उपलब्धता का अभाव: जल-संबंधित सूचनाओं के सीमित साझाकरण ने जल की उपलब्धता के मामले में विभिन्न हितधारकों के बीच संघर्ष को जन्म दिया है।
- ब्रिटिश कॉमन लॉ: जल से संबंधित कानूनी ढांचा 19वीं सदी के ब्रिटिश कॉमन लॉ पर आधारित है, जो भूमि मालिकों को असीमित मात्रा में जल निकालने का अधिकार देकर जल की असमान उपलब्धता को वैध बनाता है और उसे बनाए रखता है।
- अंतरराज्यीय (नदी) जल विवाद: यह भारत में संघीय वाटर गवर्नेंस के समक्ष एक निरंतर चुनौती पेश करता है।



4. जल संसाधनों के प्रबंधन में स्थानीय सरकारों की क्या भूमिका है?
भारतीय संविधान के अनुसार, जल राज्य सूची का विषय है। हालांकि, संविधान की 11वीं और 12वीं अनुसूची में विशेष रूप से पेयजल, जल आपूर्ति आदि जैसे विषय स्थानीय सरकारों के अधिकार क्षेत्र में आते हैं। इसलिए, स्थानीय सरकारों की महत्वपूर्ण भूमिका पर नीचे प्रकाश डाला गया है।
- नियोजन प्रक्रियायों में भूमिका: स्थानीय सरकारें स्थानीय स्तर पर कृषि विकास, उद्योग या पर्यटन आदि को समझते हुए आर्थिक गतिविधियों के विकास को बढ़ावा देने और नियोजन में सहायता करती हैं।
- आवंटन को प्राथमिकता देना: संसाधनों का विकेंद्रीकृत प्रबंधन यह सुनिश्चित करता है कि जलापूर्ति जैसी आवश्यक सेवाओं को प्रदान करने में उन लोगों को प्राथमिकता दी जाए जिन्हें उनकी सबसे अधिक आवश्यकता है।
- स्थानीय निकाय बुनियादी ढांचे को बनाए रखने और उपयोग के लिए शुल्क एकत्र करने में भी सहायता करते हैं।
- हितधारकों की भागीदारी सुनिश्चित करना: जमीनी स्तर के करीब होने के कारण, स्थानीय निकाय जल संसाधनों के प्रबंधन में किसानों, मछुआरों और सामुदायिक संगठनों जैसे कई हितधारकों की भागीदारी को सक्षम बना सकते हैं (सामुदायिक भागीदारी के उदाहरण के लिए नीचे दिया गया बॉक्स देखें)।
- वाटरशेड प्रबंधन में भूमिका: चूंकि वाटरशेड राज्यों/ देशों की सीमाओं के आर-पार फैले हो सकते हैं, इसलिए स्थानीय सरकारें जल संरक्षण के लिए आम सहमति बनाने में प्रभावी भूमिका निभा सकती हैं।
- आपदा प्रबंधन में सहयोग: बाढ़ जैसी आपदाओं के प्रभाव का बेहतर शमन स्थानीय सरकार के स्तर पर किया जा सकता है।
- उदाहरण: बाढ़ के प्रति शहरों को रेसिलिएंट बनाने के लिए कोलकाता नगर प्रशासन द्वारा बाढ़ पूर्वानुमान और अग्रिम चेतावनी प्रणाली स्थापित की गई है।

5. जल संसाधनों के प्रबंधन के लिए भारत सरकार द्वारा कौन-सी पहलें शुरू की गई हैं?
जल संसाधनों के प्रभावी प्रबंधन के लिए राष्ट्रीय, वैश्विक और साथ ही स्थानीय स्तर पर कई पहलें शुरू की गई हैं। उनमें से कुछ निम्नलिखित हैं-
- जल शक्ति अभियान (2019): इसे जल शक्ति मंत्रालय के अंतर्गत शुरू किया गया है। इसका उद्देश्य वर्षा के जल का संचयन, पारंपरिक और अन्य नदी निकायों के जीर्णोद्धार आदि के माध्यम से जल संरक्षण को बढ़ावा देना है।
- बाद में इसका दायरा बढ़ाकर इसे देश भर के सभी ब्लॉकों में लागू किया गया है। इसकी थीम है - “कैच द रेन व्हेयर इट फॉल्स, व्हेन इट फॉल्स”।
- जल जीवन मिशन (JJM): इसे 2019 में शुरू किया गया था। इस महत्वाकांक्षी योजना का लक्ष्य वर्ष 2024 तक प्रत्येक ग्रामीण घर में नल से जल की उपलब्धता को सुनिश्चित करना है।
- अटल कायाकल्प और शहरी परिवर्तन मिशन (AMRUT) 2.0: इसमें जल निकायों में वर्षा के जल के संचयन के प्रावधान शामिल किए गए हैं।
- ‘जलभृत प्रबंधन योजना’ की तैयारी के माध्यम से, यह भूजल पुनर्भरण की रणनीति बनाने का भी प्रयास करता है।
- प्रधान मंत्री कृषि सिंचाई योजना (PMKSY): इसका उद्देश्य खेत पर पानी की भौतिक पहुंच को बढ़ाना और सुनिश्चित सिंचाई के तहत खेती योग्य क्षेत्र का विस्तार करना, खेत पर जल के उपयोग की दक्षता में सुधार करना एवं संधारणीय जल संरक्षण प्रथाओं को शुरू करना आदि हैं।
- इसके तहत तीन घटक/ योजना शामिल हैं,
- हर खेत को पानी (HKKP),
- जल निकायों की मरम्मत, नवीनीकरण और पुनरुद्धार (Repair, Renovation & Restoration : RRR) योजना और
- सतही लघु सिंचाई (SMI) योजना।
- इसके तहत तीन घटक/ योजना शामिल हैं,
- मिशन अमृत सरोवर: इसके अंतर्गत जल संचयन और संरक्षण के लिए प्रत्येक जिले में कम-से-कम 75 अमृत सरोवरों के निर्माण/ कायाकल्प का प्रावधान शामिल किया गया है।
- राष्ट्रीय जलभृत मानचित्रण (NAQUIM) परियोजना: इसके तहत लगभग 25 लाख वर्ग किलोमीटर के मानचित्रण योग्य क्षेत्र को कवर किया गया है। इसका उद्देश्य जल पुनर्भरण अवसंरचनाओं के निर्माण माध्यम से जल संरक्षण उपायों को लागू करना है। इसके कार्यान्वयन के लिए राज्यों को भी साथ लाया गया है।
- राष्ट्रीय जल नीति (2012): यह वर्षा जल के संचयन और संरक्षण पर जोर देती है। साथ ही, यह नीति जल की उपलब्धता बढ़ाने के लिए वर्षा के जल के प्रत्यक्ष उपयोग का भी समर्थन करती है।
- जल शक्ति मंत्रालय ने 2019 में मिहिर शाह के नेतृत्व में स्वतंत्र विशेषज्ञों की एक समिति गठित की थी, जिसका उद्देश्य नई राष्ट्रीय जल नीति का मसौदा तैयार करना था ।
- नमामि गंगे कार्यक्रम: यह एकीकृत जल संरक्षण मिशन है। इसका उद्देश्य राष्ट्रीय नदी गंगा के प्रदूषण में प्रभावी रूप से कमी लाना तथा गंगा नदी का संरक्षण और कायाकल्प करना है।
- राष्ट्रीय जल मिशन (2009): यह जलवायु परिवर्तन पर राष्ट्रीय कार्य योजना (NAPCC) के 8 मिशनों में से एक है, जो बेसिन स्तर पर समग्र जल प्रबंधन को शामिल करता है।

6. प्रभावी वाटर गवर्नेंस सुनिश्चित करने के लिए कौन-से उपाय आवश्यक हैं?
वाटर गवर्नेंस संबधी एक प्रभावी रणनीति में जल चक्र के सभी पहलुओं को शामिल किया जाना चाहिए, जिसमें जल प्रबंधन के कार्य (जैसे पेयजल आपूर्ति, बाढ़ से सुरक्षा, आदि), जल उपयोग (जैसे घरेलू, उद्योग, कृषि, ऊर्जा हेतु उपयोग) और जल संसाधन का स्वामित्व (जैसे सार्वजनिक, निजी, मिश्रित) आदि शामिल हैं।
- प्रभावी जल प्रबंधन पर OECD सिद्धांतों को अपनाना: इसमें खुले, पारदर्शी जल संस्थानों, समावेशी, न्यायसंगत, नैतिक और उत्तरदायी नीतियों आदि की आवश्यकता पर जोर दिया गया है।
- वाटर गवर्नेंस में नदी घाटी आधारभूत इकाई बनाना: ऐसी नवीन प्रौद्योगिकियाँ विकसित की जानी चाहिए, जो जल की आपूर्ति बढ़ाने पर ध्यान केंद्रित करने के बजाय इसकी सामाजिक, पारिस्थितिक और आर्थिक भूमिकाओं को समझकर जल को बचाने का प्रयास करती हैं।
- बहु-विषयक ज्ञान का भंडार स्थापित करना: जल प्रबंधन में समुदायों द्वारा निभाई जाने वाली पारंपरिक भूमिकाओं को ध्यान में रखते हुए नदी बेसिन के बारे में जानकारी हासिल करना चाहिए।
- मांग का प्रबंधन: जल आपूर्ति बढ़ाने में विद्यमान बाधाओं के समाधान के लिए फसल विविधीकरण के जरिए मांग के प्रबंधन की ओर ध्यान देना चाहिए।
- प्रभावी अपशिष्ट जल प्रबंधन को बढ़ावा: विकेंद्रीकृत अपशिष्ट जल प्रबंधन का उपयोग करके अपशिष्ट जल को कम करने हेतु रिड्यूस-रीसायकल-रीयूज की रणनीति को अपनाया जाना चाहिए।
- नीति आयोग ने जल के पुनः उपयोग के मामले में वाटर ट्रेड पर विचार करने की सिफारिश की है।
- भूजल का संधारणीय और सहभागी प्रबंधन: समावेशी कार्रवाई के लिए सभी हितधारकों को जलभृत सीमाओं, जल भंडारण क्षमताओं और जल प्रवाह के बारे में पर्याप्त जानकारी उपलब्ध होनी चाहिए।
- वाटर गवर्नेंस को बेहतर बनाने के लिए वित्त और कौशल के मामले में स्थानीय सरकार का क्षमता निर्माण किया जा सकता है।
- एकीकृत जल संसाधन प्रबंधन (IWRM): यह जल, भूमि और संबंधित संसाधनों के समन्वित विकास और प्रबंधन से संबंधित है। अर्थात इसके तहत जल को पारिस्थितिकी तंत्र के एक अभिन्न घटक के रूप में माना जाता है।
- यह दृष्टिकोण पारंपरिक जल प्रबंधन दृष्टिकोण के विपरीत है जिसमें जल संकट को हल करने के लिए बांधों का निर्माण करके जल अधिशेष से जलाभाव वाले क्षेत्रों में स्थानांतरित करना शामिल है।
- मिहिर शाह समिति द्वारा सुझाए गए संस्थागत सुधार करना: इसके द्वारा केंद्रीय जल आयोग (CWC) और केंद्रीय भूजल बोर्ड (CGWB) को मिलाकर एक एकल इकाई के रूप में राष्ट्रीय जल आयोग (NWC) की स्थापना की सिफारिश की गई, जिससे कि वाटर गवर्नेंस में नौकरशाही संबंधी समस्या को समाप्त किया जा सकता है।
- जल प्रबंधन में प्रौद्योगिकी की भूमिका: मौसम के पैटर्न का प्रभावी ढंग से अनुमान लगाने के लिए इंटरनेट ऑफ थिंग्स (IoT) और कृत्रिम बुद्धिमत्ता आधारित उपकरणों जैसी प्रौद्योगिकी को एकीकृत किया जा सकता है।
- जल की बर्बादी का पता लगाने और उसे कम करने के लिए स्मार्ट मीटर का उपयोग किया जा सकता है।
- अंतरराज्यीय जल विवाद: संविधान के कामकाज की समीक्षा करने के लिए राष्ट्रीय आयोग (NCRWC) ने राज्यों के साथ परामर्श के बाद नदी बोर्डों के गठन और इसके अधिकार क्षेत्र को परिभाषित करने के लिए एक व्यापक केंद्रीय कानून की सिफारिश की थी।


निष्कर्ष
वाटर गवर्नेंस के पारंपरिक दृष्टिकोण में संधारणीयता की कमी है, जिससे भविष्य में जल संकट व जल संघर्षों में और वृद्धि हो सकती है। इसलिए, इंजीनियरिंग संबंधी पारंपरिक दृष्टिकोण से समग्र और अंतःविषय दृष्टिकोण के विचार की ओर स्थानांतरित होने की आवश्यकता है। आगामी जल नीतियों को अनिवार्य रूप से अधिक यथार्थवादी होना चाहिए और उनमें 21वीं सदी की समस्याओं से निपटने के संदर्भ में समग्र दृष्टिकोण शामिल होना चाहिए।
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