संविधान सभा की भूमिका और चुनौतियाँ
भारत की संविधान सभा को एक ऐसे संवैधानिक लोकतंत्र को परिभाषित करने का कार्य सौंपा गया था जो ब्रिटिश मॉडल के विपरीत, पूर्ण संसदीय संप्रभुता की अनुमति न दे। मूल अधिदेश यह था कि संसद को कानून बनाने का अधिकार है, लेकिन ऐसे कानून संविधान के विरुद्ध नहीं होने चाहिए। कानूनों को रद्द करने की शक्ति का संयम से उपयोग करने का इरादा था।
वर्तमान विधायी प्रथाओं से संबंधित मुद्दे
- संसद द्वारा संवैधानिक सटीकता के साथ कानून बनाने में विफलता के कारण संवैधानिक न्यायालय वास्तविक विधायिका के रूप में विकसित हो गए हैं।
- कानून को अक्सर निम्नलिखित चुनौतियों का सामना करना पड़ता है:
- संवैधानिक जांच
- राजनीतिक रंगमंच
- त्रुटिपूर्ण ड्राफ्टिंग
- इसमें अस्पष्ट परिभाषाएँ, असंगत धाराएँ और मौजूदा कानूनों के साथ विरोधाभास जैसे प्रणालीगत मुद्दे शामिल हैं।
विधायी प्रक्रिया और उसकी विफलताएँ
- संसदीय प्रक्रिया नियमावली के अध्याय 9 में कानून बनाने के लिए एक संरचित प्रक्रिया का प्रावधान किया गया है, जिसमें हितधारकों से परामर्श और संसद में कई बार पढ़ना शामिल है।
- व्यवहार में, इस प्रक्रिया को अक्सर नजरअंदाज कर दिया जाता है, जिससे विधायी त्रुटियां हो जाती हैं।
- उदाहरण: ट्रांसजेंडर व्यक्ति (अधिकारों का संरक्षण) अधिनियम, 2019 की धारा 18 (D) बनाम भारतीय न्याय संहिता, 2023 के तहत दंड में असमानता, संभावित संवैधानिक चुनौतियों को उजागर करती है।
संसद में एक संवैधानिक पदाधिकारी की आवश्यकता
- कानून अक्सर जटिल कानूनी भाषा में तैयार किया जाता है, जिससे सांसदों के लिए उसे पूरी तरह समझना कठिन हो जाता है।
- कानूनी और संवैधानिक खामियों को रोकने के लिए विधायी प्रक्रिया के दौरान हस्तक्षेप करने के लिए अटॉर्नी जनरल (AG) जैसे संवैधानिक पदाधिकारी की आवश्यकता है।
- संविधान का अनुच्छेद 88 अटॉर्नी जनरल को संसद की कार्यवाही में भाग लेने की अनुमति देता है। इसका लाभ उठाकर विसंगतियों को दूर किया जा सकता है और सांसदों के मतदान संबंधी निर्णयों को सूचित किया जा सकता है।
निष्कर्षतः विधायी विचार-विमर्श के दौरान अटॉर्नी जनरल को शामिल करने से अच्छी तरह से तैयार किए गए कानून सुनिश्चित हो सकते हैं, अदालती अमान्यताएं कम हो सकती हैं और यह सुनिश्चित हो सकता है कि संसद की विधायी मंशा संरक्षित रहे।