वैश्विक व्यवधान और उभरते बाजार
वर्तमान वैश्विक उथल-पुथल का केंद्रबिंदु अक्सर अमेरिका और चीन हैं; हालाँकि, इसका वास्तविक प्रभाव उभरते बाजारों और विकासशील अर्थव्यवस्थाओं पर ज़्यादा गहरा है। ये क्षेत्र टैरिफ़, व्यापार विचलन और तेज़ी से बदलते तकनीकी बदलावों के संयुक्त प्रभावों से जूझ रहे हैं।
टैरिफ
- अंतर्राष्ट्रीय व्यापार की भूमिका: 25 वर्षों से, अंतर्राष्ट्रीय व्यापार उभरते बाजारों (EMs) के लिए महत्वपूर्ण रहा है।
- वर्तमान संकट: वैश्विक व्यापार एक गंभीर संकट का सामना कर रहा है, जो वैश्विक वित्तीय संकट के बाद आई मंदी से शुरू हुआ है। यह कोविड से उत्पन्न गैर-टैरिफ बाधाओं से और भी जटिल हो गया है तथा अमेरिकी टैरिफ के कारण और भी बढ़ गया है।
- अमेरिकी टैरिफ का प्रभाव: अमेरिकी टैरिफ 2.7% से बढ़कर लगभग 18% हो गए हैं, जो 1930 के दशक के स्तर की याद दिलाते हैं।
- उभरते बाजारों के लिए चुनौती: उभरते बाजार अमेरिका की तुलना में निर्यात पर अधिक निर्भर हैं, इसलिए उन्हें बढ़ते संरक्षणवाद और आर्थिक विखंडन से निपटना होगा।
व्यापार विचलन और चीन से संबंधित आघात 2.0
- संरक्षणवाद के प्रभाव: जैसे ही अमेरिका ने चीन पर टैरिफ लगाया, चीन ने अपने निर्यात को विकासशील अर्थव्यवस्थाओं की ओर मोड़ दिया।
- चीन पर अमेरिकी टैरिफ: 10% से बढ़ाकर 42% किया गया, जिससे व्यापार पुनर्निर्देशन में तेजी आई।
- चीन की अतिरिक्त क्षमता: EMs बाजारों में संभावित व्यापकता, जिसके कारण थाईलैंड, इंडोनेशिया और भारत जैसे देशों में घरेलू विनिर्माण संबंधी चुनौतियां उत्पन्न होंगी।
- चीन संबंधी आघात 2.0: उभरते बाजारों को चीनी आयातों से बढ़ती प्रतिस्पर्धा के लिए तैयार रहना चाहिए।
तकनीकी
- तकनीकी परिवर्तन: तीव्र परिवर्तन से श्रम-संवर्द्धन से श्रम-प्रतिस्थापन की ओर स्थानांतरण का खतरा उत्पन्न होता है।
- नौकरियों पर दबाव: बढ़ते पूंजी-श्रम अनुपात से नीली कॉलर वाली नौकरियों को खतरा है और यह सफेद कॉलर वाली नौकरियों तक भी फैल रहा है।
- विकासशील अर्थव्यवस्थाओं पर प्रभाव: दक्षिण एशिया और उप-सहारा अफ्रीका जैसे क्षेत्रों में युवा आबादी सबसे अधिक जोखिम में है।
नीतिगत प्रतिक्रिया और सिफारिशें
- संरक्षणवाद के विरुद्ध: अंतर्मुखी होना तथा आयात प्रतिस्थापन का सहारा लेना हानिकारक हो सकता है।
- निर्यात-आधारित विकास: ऐतिहासिक साक्ष्य दर्शाते हैं कि मजबूत निर्यात और वैश्विक सहभागिता सतत विकास के लिए महत्वपूर्ण हैं।
- भारत की स्थिति: वैश्विक विनिर्माण में भारत की हिस्सेदारी 2% से भी कम है, जिससे वैश्विक व्यापार में बड़ी हिस्सेदारी की आवश्यकता के बिना भी विकास की गुंजाइश बनी हुई है।
सुधार संबंधी अनिवार्यताएँ
- प्रतिस्पर्धात्मकता: बढ़ते संरक्षणवाद और चीनी आयात का मुकाबला करने के लिए आवश्यक।
- आधारभूत सुधार: भूमि, श्रम, बिजली, स्वास्थ्य और शिक्षा पर ध्यान केंद्रित। हाल ही में GST का सरलीकरण एक सकारात्मक शुरुआत है।
- पूंजी-श्रम अनुपात: ऐसी नीतियों की आवश्यकता जो श्रम को पूंजी के साथ प्रभावी ढंग से प्रतिस्पर्धा करने में मदद करें।
निष्कर्ष: उभरते बाजारों के लिए रणनीति बनाना
उभरते बाज़ार एक निर्णायक मोड़ का सामना कर रहे हैं, जिसमें कई प्रबल झटके लग रहे हैं। फलने-फूलने के लिए, उन्हें सुधारों को अपनाना होगा और संरक्षणवाद का विरोध करना होगा। इन रणनीतियों में रचनात्मक विनाश, पुनः कौशल विकास, मज़बूत सुरक्षा जाल और एक सहायक कर प्रणाली शामिल होगी। यह प्रतिगमन के बजाय परिवर्तन का अवसर है।