अनुच्छेद 200 और राज्यपाल की शक्तियाँ
भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने हाल ही में राज्य विधान मंडल द्वारा पारित विधेयकों पर स्वीकृति के संबंध में अनुच्छेद 200 के तहत राज्यपाल की शक्तियों की जाँच की। न्यायमूर्ति जेबी पारदीवाला की अध्यक्षता वाली दो न्यायाधीशों की पीठ ने राज्यपाल के लिए किसी विधेयक पर निर्णय लेने हेतु तीन महीने की समय-सीमा निर्धारित की। यह समय-सीमा भारत के राष्ट्रपति पर भी लागू होती है।
अनुच्छेद 200 के तहत राज्यपाल के विकल्प
- विधेयक को स्वीकृति।
- सहमति न दें।
- विधेयक को पुनर्विचार के लिए विधानसभा में वापस भेजें।
- विधेयक को राष्ट्रपति के विचारार्थ सुरक्षित रखें।
राज्यपाल की विवेकाधीन शक्तियाँ
न्यायालय ने इस बात पर विचार-विमर्श किया कि क्या राज्यपाल को अनुच्छेद 200 के तहत विवेकाधिकार प्राप्त है। अनुच्छेद 163 के अनुसार, राज्यपाल मंत्रिपरिषद की सलाह के आधार पर कार्य करेगा, सिवाय उन मामलों के जहाँ संविधान द्वारा अन्यथा निर्दिष्ट किया गया हो। शमशेर सिंह बनाम पंजाब राज्य (1974) और नबाम रेबिया (2016) जैसे ऐतिहासिक मामलों ने इस बात को पुष्ट किया है कि राज्यपाल एक संवैधानिक प्रमुख है जिसके कार्यों का मार्गदर्शन मंत्रिपरिषद द्वारा किया जाना चाहिए।
संवैधानिक व्याख्या और आयोग
- सरकारिया और पुंछी आयोगों ने दोहराया कि राज्यपाल को परिषद की सलाह के आधार पर कार्य करना चाहिए।
- भारत सरकार अधिनियम, 1935 जैसे ऐतिहासिक दस्तावेजों में राज्यपाल के विवेकाधिकार का उल्लेख था, जिसे भारतीय संविधान में हटा दिया गया, जिससे यह संकेत मिलता है कि राज्यपाल को मंत्रिपरिषद की सलाह का पालन करना होगा।
न्यायिक निर्णय और विधायी प्रक्रिया
तमिलनाडु राज्य बनाम तमिलनाडु के राज्यपाल एवं अन्य (2025) जैसे मामलों ने स्पष्ट किया कि राज्यपाल को विवेकाधीन शक्तियाँ प्रदान करने से विधायी प्रक्रियाएँ बाधित हो सकती हैं। इसलिए, राज्यपाल स्वतंत्र रूप से विधायी तंत्र को बाधित नहीं कर सकते।
सर्वोच्च न्यायालय की समय सीमा
- न्यायालय ने राज्यपाल और राष्ट्रपति के लिए विधेयकों पर निर्णय लेने हेतु तीन महीने की समय सीमा निर्धारित की है, ताकि राज्य शासन में रुकावट पैदा करने वाली देरी को रोका जा सके।
- संविधान में स्पष्ट रूप से ऐसी कोई समय-सीमा निर्धारित नहीं की गई है, लेकिन सुचारू विधायी कार्य सुनिश्चित करने के लिए न्यायालय का हस्तक्षेप आवश्यक समझा गया।
अनुच्छेद 355 की भूमिका
अनुच्छेद 355 की व्याख्या इस प्रकार की जा सकती है कि केंद्र सरकार राज्यपाल को समय पर कार्रवाई करने का निर्देश देकर संवैधानिक प्रावधानों का अनुपालन सुनिश्चित कर सकती है। ऐतिहासिक निष्क्रियताओं के बावजूद, सर्वोच्च न्यायालय की निर्धारित समय-सीमा विधायी प्रक्रिया को सुगम बनाती है।
ऐतिहासिक निर्णय
- पंजाब राज्य बनाम राज्यपाल के प्रधान सचिव (2023) और तमिलनाडु राज्य बनाम तमिलनाडु के राज्यपाल एवं अन्य जैसे मामलों में हाल के निर्णयों ने संघवाद पर जोर दिया और संवैधानिक अस्पष्टताओं को स्पष्ट किया।
- मेनका गांधी (1978) में अनुच्छेद 21 के विकास को देखा गया है, जो दर्शाता है कि न्यायिक व्याख्याएं नई संवैधानिक चुनौतियों का सामना करने के लिए विकसित होती हैं।
निष्कर्षतः, अनुच्छेद 200 के तहत राज्यपाल की शक्तियों पर बहस संवैधानिक व्याख्या के संतुलन और लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं को बनाए रखने में न्यायिक हस्तक्षेप की भूमिका पर प्रकाश डालती है।