हिरासत में हिंसा और न्यायपालिका की भूमिका
छत्तीसगढ़ उच्च न्यायालय ने हिरासत में हुई मौत के संबंध में हाल ही में दिए गए फैसले में कानून प्रवर्तन एजेंसियों की चिंताजनक मानसिकता को उजागर किया है, तथा महत्वपूर्ण न्यायिक और प्रणालीगत सुधार की आवश्यकता बताई है।
न्यायपालिका की भाषा और निहितार्थ
- उच्च न्यायालय की भाषा से यह संकेत मिलता है कि अधिकारियों का इरादा "सबक सिखाने" का था, जो राज्य हिंसा के खतरनाक औचित्य को दर्शाता है।
- यह परिप्रेक्ष्य संवैधानिक सिद्धांतों के विपरीत, अतिरिक्त-कानूनी हिंसा को एक आवश्यक अनुशासनात्मक उपकरण के रूप में तर्कसंगत बनाता है।
वर्तमान कानूनी ढांचे से संबंधित मुद्दे
- यह घटना जातिगत भेदभाव के व्यापक मुद्दे को दर्शाती है, क्योंकि पीड़ित अनुसूचित जाति से था।
- एससी/एसटी अधिनियम की अक्सर संकीर्ण व्याख्या की जाती है, जिसमें जाति -आधारित प्रेरणा के स्पष्ट प्रमाण की आवश्यकता होती है, जो संरचनात्मक शक्ति गतिशीलता की अनदेखी करता है।
- हिरासत में हिंसा एक सतत समस्या बनी हुई है, जिससे दलितों और आदिवासियों जैसे अल्पसंख्यकों पर असमान रूप से प्रभाव पड़ता है।
न्यायिक मिसालें और सिफारिशें
- सर्वोच्च न्यायालय के पिछले निर्णयों में हिरासत में प्रक्रियागत सुरक्षा और पारदर्शिता की मांग की गई है।
- स्पष्ट दिशानिर्देशों के बावजूद, प्रवर्तन और अनुपालन कमजोर बना हुआ है।
- न्यायालयों को हिरासत में हिंसा को उचित ठहराने से बचना चाहिए तथा जवाबदेही और संरचनात्मक सुधार पर जोर देना चाहिए।
निष्कर्ष और सुधार का आह्वान
- हिरासत में हिंसा कोई अनुशासनात्मक उपाय नहीं बल्कि एक आपराधिक कृत्य है।
- सामाजिक शक्ति के दुरुपयोग के मामलों में एससी/एसटी अधिनियम को सख्ती से लागू किया जाना चाहिए।
- न्यायपालिका को निवारण की आड़ में कानून से इतर दंड को स्वीकार नहीं करना चाहिए।