भूमिका (Introduction)
भूमिका (Introduction)
21वीं सदी की एक प्रमुख विशेषता पारस्परिक निर्भरता (interdependence) है। जलवायु परिवर्तन से लेकर महामारियों तक, आतंकवाद से लेकर डिजिटल प्रशासन तक, कोई भी राष्ट्र अकेले इन चुनौतियों का सामना कर पाने में सक्षम नहीं है। वैश्वीकरण का तर्क ही बहुपक्षीय सहयोग को अनिवार्य बनाता है, जहां तीन या तीन से अधिक राष्ट्र एक समान नियमों और साझा सिद्धांतों के आधार पर सामूहिक लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए एक साथ आते हैं।
फिर भी, ऐसे समय में जब मानवता सबसे गंभीर वैश्विक संकटों का सामना कर रही है, बहुपक्षवाद पर भारी दबाव देखने को मिल रहा है। COVID-19 महामारी ने वैक्सीन राष्ट्रवाद को उजागर किया; रूस-यूक्रेन युद्ध ने संयुक्त राष्ट्र प्रणाली को खंडित कर दिया; और व्यापार युद्धों के कारण विश्व व्यापार संगठन (WTO) की स्थिति कमजोर हो गई। बढ़ते राष्ट्रवाद और महाशक्तियों के मध्य प्रतिद्वंद्विता ने इस बहस को जन्म दिया है कि क्या बहुपक्षवाद अप्रासंगिक हो गया है या इसमें कुछ सुधार किए जाने की आवश्यकता है।
इस प्रकार, बहुपक्षवाद का भविष्य इस बात पर निर्भर करता है कि वैश्विक संस्थाएं शक्ति संतुलन की उभरती वास्तविकताओं के अनुरूप स्वयं को कैसे ढालती हैं, सामूहिक कार्रवाई के समक्ष चुनौतियों का प्रबंधन कैसे करती हैं एवं राष्ट्रों और नागरिकों दोनों की नजरों में अपनी वैधता को कैसे बहाल करती हैं।
2. बहुपक्षवाद क्या है?
2. बहुपक्षवाद क्या है? (What is Multilateralism?)

बहुपक्षवाद, तीन या तीन से अधिक देशों के बीच सहयोग को संदर्भित करता है ताकि उन मुद्दों का समाधान किया जा सके, जो राष्ट्रीय सीमाओं से परे महत्त्व रखती हैं और जिनके लिए सामूहिक कार्रवाई की आवश्यकता है। इसके तहत, राष्ट्र एकतरफा या द्विपक्षीय रूप से कार्य करने के बजाय, संयुक्त राष्ट्र, विश्व व्यापार संगठन, या क्षेत्रीय समूहों जैसे औपचारिक संगठनों के माध्यम से संरचित संवाद और निर्णय लेने की प्रक्रिया में संलग्न होते हैं। यह अक्सर एकसमान नियमों, मानदंडों और संधि-आधारित तंत्रों पर आधारित होता है जो पूर्वानुमेयता और निष्पक्षता प्रदान करते हैं। संसाधनों को जुटाकर और सामूहिक रूप से संवाद करके देश शांति और सुरक्षा, जलवायु परिवर्तन, व्यापार और सार्वजनिक स्वास्थ्य जैसी वैश्विक चुनौतियों का समाधान करने का लक्ष्य रखते हैं। साथ ही, यह भी सुनिश्चित करते हैं कि समाधान समावेशी, वैध और व्यापक रूप से स्वीकार्य हों।
2.1. बहुपक्षवाद का इतिहास (History of Multilateralism)
2.1. बहुपक्षवाद का इतिहास (History of Multilateralism):
एक औपचारिक ढांचे के रूप में बहुपक्षवाद का विकास प्रथम और द्वितीय विश्व युद्ध के बाद राष्ट्रों के बीच शांति और सहयोग को बढ़ावा देने के लिए किया गया था। इसे सर्वप्रथम, संस्थागत रूप देने के लिए प्रथम विश्व युद्ध के बाद लीग ऑफ नेशंस (League of Nations) की शुरुआत की गई थी। यद्यपि, यह आगे के संघर्षों को रोकने में विफल रहा, किंतु इसनें सामूहिक सुरक्षा और कूटनीति के लिए मूलभूत सिद्धांत स्थापित किए। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद, संयुक्त राष्ट्र, ब्रेटन वुड्स संस्थाओं (IMF, विश्व बैंक) और विश्व व्यापार संगठन जैसे संगठनों के निर्माण के साथ बहुपक्षवाद का वैश्विक स्तर पर विस्तार हुआ। इसने एक नियम-आधारित, सहकारी अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था की स्थापना की जिसने शांति, आर्थिक विकास और वैश्विक मुद्दों पर सामूहिक कार्रवाई को सुविधाजनक बनाया। शीत युद्ध के दौरान विभाजन के बावजूद, बहुपक्षवाद कायम रहा और अनुकूलित हुआ, जो आज वैश्विक शासन का केंद्र बन गया है।
2.2. बहुपक्षवाद का दर्शन (The Philosophy of Multilateralism):
2.2. बहुपक्षवाद का दर्शन (The Philosophy of Multilateralism):
बहुपक्षवाद और बहुपक्षीय प्रणाली अंतर्राष्ट्रीय सहयोग के ढांचे के भीतर बारीकी से जुड़ी हुई अवधारणाएं हैं। बहुपक्षीय प्रणाली, बहुपक्षवाद का व्यावहारिक कार्यान्वयन है, जिसे संयुक्त राष्ट्र और उसकी विभिन्न एजेंसियों द्वारा मूर्त रूप दिया जाता है। यह अंतर्राष्ट्रीय मुद्दों का समाधान करने में समावेशी निर्णय लेने की प्रक्रियाओं और साझा जिम्मेदारी के महत्व पर जोर देती है।

3. बहुपक्षवाद का महत्व क्या है? (What is the Significance of multilateralism?)
3. बहुपक्षवाद का महत्व क्या है? (What is the Significance of multilateralism?)
- शांति और सुरक्षा को बढ़ावा देता है: बहुपक्षवाद, शक्तिशाली राष्ट्रों को नियम-आधारित संस्थाओं से जोड़कर एकपक्षवाद और आक्रामकता को हतोत्साहित करता है। संयुक्त राष्ट्र (UN) जैसे अंतर्राष्ट्रीय संगठन संवाद और विवाद समाधान के लिए एक मंच प्रदान करते हैं, जिससे संघर्षों को रोका जा सकता है।
- उदाहरण: संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद वैश्विक शांति के लिए मौजूद खतरों का समाधान करने के लिए एक मंच प्रदान करती है, और संयुक्त राष्ट्र शांति सैनिकों को कोसोवो और कांगो लोकतांत्रिक गणराज्य जैसे संघर्षरत क्षेत्रों में तैनात किया गया है।
- जटिल वैश्विक चुनौतियों का समाधान करता है: बहुपक्षवाद उन समस्याओं को हल करने के लिए आवश्यक है जिनका विस्तार राष्ट्रीय सीमाओं से परे है, जैसे कि जलवायु परिवर्तन, महामारी और आतंकवाद। यह देशों को अधिक प्रभावी समाधान अपनाने के लिए संसाधनों और विशेषज्ञता को एकजुट करने की सुविधा प्रदान करती है।
- उदाहरण: जलवायु परिवर्तन पर पेरिस समझौता, वैश्विक पर्यावरणीय मुद्दे का समाधान करने का एक बहुपक्षीय प्रयास है।
- एक नियम-आधारित अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था को बढ़ावा देता है: बहुपक्षीय संस्थाएं अंतर्राष्ट्रीय कानूनों और मानदंडों को निर्धारित करते और उन्हें लागू करते हैं, जो स्थिरता और वैश्विक संबंधों, व्यापार एवं सहयोग के मामले में पूर्वानुमेयता को बढ़ावा देते हैं।
- उदाहरण: विश्व व्यापार संगठन, वैश्विक व्यापार के लिए नियम निर्धारित करता है, और परमाणु अप्रसार संधि (NPT) परमाणु हथियारों के प्रसार को रोकने के लिए एक फ्रेमवर्क प्रदान करती है।
- छोटे राष्ट्रों की आवाज को बल प्रदान करता है: बहुपक्षवाद, समावेशी मंच प्रदान करके छोटे और विकासशील देशों को वैश्विक निर्णयों को प्रभावित करने के लिए एक सामूहिक आवाज प्रदान करता है।
- उदाहरण: भारत जैसी उभरती शक्तियां प्रायः संयुक्त राष्ट्र और G-20 जैसे बहुपक्षीय मंचों में ग्लोबल साउथ के हितों को बढ़ावा देती हैं।
- आर्थिक स्थिरता और विकास को सक्षम बनाता है: अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (IMF) और विश्व बैंक जैसी अंतर्राष्ट्रीय संस्थाएं वित्तीय सहायता प्रदान करती हैं और विशेष रूप से आर्थिक संकट के दौरान आर्थिक स्थिरता को बढ़ावा देते हैं
- उदाहरण: G-20 ने 2008 के वित्तीय संकट के लिए एक समन्वित प्रतिक्रिया प्रदान की, और विश्व बैंक जैसी संस्थाएं निम्न आय वाले देशों में विकास परियोजनाओं को वित्त पोषित करती हैं।
4. आज की वैश्विक व्यवस्था में बहुपक्षवाद के सामने कौन सी प्रमुख चुनौतियां हैं? (What are the key challenges facing multilateralism in today’s global order?)
4. आज की वैश्विक व्यवस्था में बहुपक्षवाद के सामने कौन सी प्रमुख चुनौतियां हैं? (What are the key challenges facing multilateralism in today’s global order?)
भू-राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता (Geopolitical Rivalries)
- अमेरिका-चीन प्रतिस्पर्धा: संयुक्त राज्य अमेरिका और चीन के बीच बढ़ती प्रतिद्वंद्विता ने वैश्विक संस्थाओं के लिए आम निर्णय तक पहुंचना चुनौतीपूर्ण बना दिया है।
- उदाहरण: संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद, इजरायल-गाजा संघर्ष पर एक आम सहमति तक पहुंचने में असमर्थ रही है, जिसने युद्ध और मानवीय पीड़ा को बढ़ाया है।
- यूक्रेन पर रूस का आक्रमण (2022): यूक्रेन युद्ध ने यह दिखाया है कि किस प्रकार, वीटो प्रणाली ने सुरक्षा परिषद की कार्रवाई को पंगु बना दिया है।
- उदाहरण: रूस की वीटो शक्ति ने विभिन्न प्रस्तावों को अवरुद्ध किया है, इससे यह पता चलता है कि, कैसे शक्तिशाली राष्ट्र प्रमुख वैश्विक संकटों के दौरान भी सामूहिक निर्णयों को रोकते हैं।
संस्थागत कमजोरियां (Institutional Deficits)
- UNSC में सुधार लंबित हैं: संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद अभी भी 1945 में द्वितीय विश्व युद्ध के बाद स्थापित संरचना पर काम करती है।
- यह आज की वास्तविकताओं को नहीं दर्शाता है, भारत, ब्राजील और दक्षिण अफ्रीका जैसे देशों की महत्वपूर्ण भूमिका के बावजूद उन्हें स्थायी सदस्यता प्राप्त नहीं है।
- WTO में संकट: विश्व व्यापार संगठन एक बड़े गतिरोध का सामना कर रहा है क्योंकि इसका अपीलीय निकाय, जो विवादों का निपटारा करता है, गैर-कार्यात्मक हो गया है।
- अमेरिका ने इसमें न्यायाधीशों की नियुक्ति को अवरुद्ध कर दिया, जिससे यह प्रणाली व्यापार संघर्षों को प्रभावी ढंग से हल करने में असमर्थ हो गई है।
एकपक्षवाद और संरक्षणवाद का उदय (Rise of Unilateralism and Protectionism)
- अमेरिकी टैरिफ: बहुपक्षीय व्यापार ढांचे पर निर्भर रहने के बजाय, अमेरिका ने अपने व्यापार घाटे को कम करने के लिए एकतरफा टैरिफ लगा दिया है।
- उदाहरण: इसने भारत से होने आयात पर 25% पारस्परिक टैरिफ और एक अतिरिक्त 25% जुर्माना लगाया है।
- EU व्यापार उपाय: यूरोपीय संघ ने कार्बन बॉर्डर एडजस्टमेंट मैकेनिज्म (CBAM) और वनों की कटाई विनियम (EUDR) जैसे उपाय किए हैं।
- ये नियम उन आयातों को प्रतिबंधित करते हैं, जो EU पर्यावरणीय मानकों को पूरा नहीं करते हैं। ये नियम विकासशील देशों के लिए नुकसानदेह हो सकते हैं।
- वैक्सीन राष्ट्रवाद: COVID-19 महामारी के दौरान, समृद्ध देशों ने अपनी आबादी के लिए वैक्सीन का भंडारण करने को प्राथमिकता दी।
- इसने, WHO के नेतृत्व वाली COVAX पहल को कमजोर किया, जिसका उद्देश्य वैक्सीन का न्यायसंगत वैश्विक वितरण सुनिश्चित करना था।
वैधता का संकट (Legitimacy Crisis)
- ग्लोबल साउथ का कम प्रतिनिधित्व: एशिया, अफ्रीका और लैटिन अमेरिका के विकासशील देशों का अभी भी IMF, विश्व बैंक और UNSC जैसे प्रमुख संस्थाओं में कम प्रतिनिधित्व बना हुआ है।
- दोहरे मापदंड (Double Standards): वैश्विक शक्तियों द्वारा चयनात्मक कार्रवाई ने आपसी विश्वास को कमजोर कर दिया है।
- गाजा में मानवीय सहायता की कमी देखी गई है, जहाँ लोग अकाल जैसी परिस्थितियों का सामना कर रहे हैं।
वैश्विक शासन के नए मोर्चे (New Frontiers of Global Governance)
- जलवायु परिवर्तन: जलवायु परिवर्तन का समाधान कैसे किया जाए, इस पर कोई वैश्विक सहमति नहीं बन पाई है।
- उदाहरण: विकसित देश (ग्लोबल नॉर्थ) और विकासशील देश (ग्लोबल साउथ) जलवायु वित्त, हानि और क्षति एवं हरित प्रौद्योगिकियों के हस्तांतरण जैसे मुद्दों पर असहमत हैं।
- डिजिटल डोमेन (AI विनियमन): कृत्रिम बुद्धिमत्ता (AI) का तेजी से विस्तार हो रहा है, लेकिन अलग-अलग देशों के मध्य इस बात पर मतभिन्नता है कि कितना विनियमन आवश्यक है।
- वैश्विक स्वास्थ्य: COVID-19 महामारी ने यह दिखाया है कि वैश्विक स्वास्थ्य शासन अभी भी खंडित अवस्था में है। पेटेंट और TRIPS समझौते पर उपजे विवादों ने निर्धन देशों में दवाओं और वैक्सीन की पहुंच को सीमित कर दिया है।
अंतर्राष्ट्रीय संगठनों से अमेरिका का अलग होनासंयुक्त राज्य अमेरिका ने विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO), संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद (UNHRC), और पेरिस जलवायु समझौते जैसे प्रमुख अंतर्राष्ट्रीय संगठनों और समझौतों से बाहर होने का निर्णय लिया है। इस दृष्टिकोण के तहत अमेरिका बहुपक्षीय सहयोग की तुलना में अपनी संप्रभुता और आर्थिक स्वार्थ को प्राथमिकता देता है। अमेरिका के अलग होने से बहुपक्षीय शासन कमजोर हो सकता है, जिससे स्वास्थ्य, मानवाधिकार और जलवायु नीति के मामले में समन्वय और निवेश कम हो सकता है। इसके विभिन्न वैश्विक निहितार्थ हैं जैसे:
अमेरिका का यह दृष्टिकोण अल्पकालिक आर्थिक और रणनीतिक लाभ तो प्रदान कर सकता है, लेकिन इससे अमेरिका के अलग-थलग पड़ने और उसके वैश्विक प्रभाव के कम होने का जोखिम भी उत्पन्न होता है। इस बदलाव का दीर्घकालिक प्रभाव इस बात पर निर्भर करेगा कि क्या राष्ट्रवाद और एकपक्षवाद दुनिया में अपनी रणनीतिक स्थिति को कमजोर किए बिना अमेरिकी हितों को प्रभावी ढंग से सुरक्षित कर सकता है। |
5. बहुपक्षवाद को बढ़ावा देने में भारत की क्या भूमिका रही है? (What has been the role of India in promoting multilateralism?)
5. बहुपक्षवाद को बढ़ावा देने में भारत की क्या भूमिका रही है? (What has been the role of India in promoting multilateralism?)
ऐतिहासिक भूमिका (Historical Role)
- महत्वपूर्ण संस्थाओं का संस्थापक सदस्य: भारत ने अपनी स्वतंत्रता के बाद से ही बहुपक्षवाद को आकार देने में एक सक्रिय भूमिका निभाई है।
- भारत संयुक्त राष्ट्र (UN) का एक संस्थापक सदस्य रहा है और इसके एजेंडे को आकार देने में सक्रिय भूमिका निभाई है।
- भारत गुटनिरपेक्ष आंदोलन (NAM) का भी संस्थापक सदस्य रहा है, जिसका उद्देश्य शीत युद्ध के दौरान तटस्थता का पक्ष लेना और शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व को बढ़ावा देना था।
- ग्लोबल साउथ की आवाज: विश्व व्यापार संगठन (WTO) और विकासशील देशों के G-77 समूह के हिस्से के रूप में, भारत ने निरंतर ग्लोबल साउथ की चिंताओं की आवाज उठाई है।
- वैश्विक शांति का समर्थन: भारत ने ऐतिहासिक रूप से वि-उपनिवेशीकरण प्रयासों का समर्थन किया है, वैश्विक परमाणु निरस्त्रीकरण के पक्ष में आवाज़ उठाई है, और अंतर्राष्ट्रीय शांति को सामाजिक-आर्थिक विकास से जोड़ने के विचार का जोरदार समर्थन किया है।
समकालीन भूमिका (Contemporary Role)
- सुधारित बहुपक्षवाद का समर्थन: भारत संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद जैसे संस्थाओं के पुनर्गठन पर बल दे रहा है ताकि यह वर्तमान वैश्विक वास्तविकताओं का बेहतर ढंग से प्रतिनिधित्व करे। उदाहरण के लिए, न्यू ओरियंटेशन फॉर रिफ़ॉर्मड मल्टीलेटरलिज्म (NORMS)।
- जलवायु नेतृत्व: नवीकरणीय ऊर्जा को बढ़ावा देने के लिए अंतर्राष्ट्रीय सौर गठबंधन (ISA) एवं वैश्विक जलवायु लचीलेपन को बेहतर बनाने के लिए आपदा प्रतिरोधी अवसंरचना गठबंधन (CDRI) जैसी पहलें शुरू की गई हैं।
- बहुपक्षवाद और लघु-पक्षवाद के बीच संतुलन: भारत BRICS, G-20 और SCO जैसे बहुपक्षीय मंचों के साथ-साथ QUAD और I2U2 जैसे लघु-पक्षीय समूहों में भी सक्रिय रूप से भाग लेता है, जो इसे आर्थिक शासन से लेकर क्षेत्रीय सुरक्षा तक विविध मुद्दों का समाधान करने में सक्षम बनाता है।
- समावेशी कूटनीति: 2023 में अपनी G-20 की अध्यक्षता के दौरान, भारत ने वॉयस ऑफ ग्लोबल साउथ समिट का आयोजन करके विकासशील देशों को एक मजबूत आवाज दी, तथा अफ्रीकी संघ (AU) को G-20 में स्थायी सदस्य के रूप में शामिल होने में मदद की।
भारत के लिए चुनौती (Challenge for India)
- पश्चिम और दक्षिण के बीच रस्साकशी: भारत को पश्चिमी देशों के साथ अपनी साझेदारियों और ग्लोबल साउथ के साथ अपनी एकजुटता के बीच एक नाजुक संतुलन बनाए रखने की चुनौती का सामना करना पड़ता है।
- विभिन्नता के बीच रणनीतिक स्वायत्तता बनाए रखना: एक तरफ, यह QUAD जैसे पश्चिमी-नेतृत्व वाली पहलों और संयुक्त राज्य अमेरिका के साथ अपने रणनीतिक संबंधों को मजबूत करता है; तो वहीं दूसरी ओर, यह BRICS और SCO का भी एक महत्वपूर्ण सदस्य बना हुआ है, जो अक्सर पश्चिमी देशों के प्रभुत्व को प्रतिसंतुलित करते हैं।
- बहुपक्षीय सुधारों की धीमी प्रगति: UNSC में सुधार, निष्पक्ष IMF कोटा, और WTO के पुनरुद्धार को लेकर भारत की सतत मांग के बावजूद, इन सुधारों पर प्रगति बहुत धीमी रही है, जिससे बहुपक्षवाद को फिर से आकार देने के भारत के प्रयास मंद पड़ रहे हैं।
- भारत के पड़ोस में अस्थिरता: नेपाल, बांग्लादेश, अफगानिस्तान, पाकिस्तान और श्रीलंका जैसे देशों में व्याप्त अस्थिरता भारत के व्यापक बहुपक्षीय एजेंडों पर ध्यान केंद्रित करने की क्षमता को सीमित करते हैं।
6. बहुपक्षवाद में देखे गए प्रमुख बदलाव क्या हैं? (What are the key shifts observed in multilateralism?)
6. बहुपक्षवाद में देखे गए प्रमुख बदलाव क्या हैं? (What are the key shifts observed in multilateralism?)
वैश्विक शक्ति संतुलन संरचना में आए हाल के बदलावों और नई चुनौतियों के उदय ने विद्वानों के बहुपक्षवाद को समझने के तरीके को काफी बदल दिया है। पहले बहुपक्षवाद का शैक्षणिक दृष्टिकोण मुख्य रूप से राष्ट्रों के बीच साझा लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए किए गए संस्थागत प्रयासों पर केन्द्रित था। हालांकि, अब नए भागीदारों, सहयोग के वैकल्पिक रूपों, और प्रभावशीलता एवं वैधता के लिए गहन मूल्यांकन प्रथाओं को भी इसमें शामिल किया जाता है।
बहुपक्षवाद में आए प्रमुख बदलाव (Key shifts in multilateralism)
राष्ट्र-केंद्रित से बहु-हितधारक शासन की ओर बदलाव (From state-centric to multi-stakeholder governance)
- परंपरागत रूप से, बहुपक्षवाद को अक्सर एक ऐसी प्रणाली के रूप में दर्शाया जाता है जो संप्रभु राष्ट्रों द्वारा संचालित होती है, जिसमें अंतर्राष्ट्रीय संगठन उनके विस्तार के रूप में कार्य करते हैं। हालांकि, यह परिप्रेक्ष्य बड़े पैमाने पर भागीदारों के प्रभाव को शामिल करने के लिए विकसित हुआ है:
- गैर-राज्य अभिकर्ता (Non-state actors): विद्वान, बहुपक्षीय प्रक्रियाओं और परिणामों को आकार देने में गैर-सरकारी संगठनों (NGOs), बहुराष्ट्रीय निगमों (TNCs), सामाजिक आंदोलनों, और नागरिक समाज संगठनों (CSOs) की भूमिका को तेजी से उजागर कर रहे हैं।
- उप-राष्ट्रीय निकाय (Sub-national entities): शहरों, क्षेत्रों और प्रांतों को भी अब वैश्विक मामलों में सक्रिय प्रतिभागियों के रूप में स्वीकार किया जाता है, खासकर जलवायु परिवर्तन और व्यापार जैसे नीतिगत क्षेत्रों में।
- क्षेत्रीय अभिकर्ता (Regional actors): यूरोपीय संघ जैसे क्षेत्रीय संगठन, और उभरती क्षेत्रीय शक्तियां वैश्विक सुरक्षा संरचना को बदल रहे हैं, जहां पहले UN सुरक्षा परिषद जैसे वैश्विक निकायों का प्रभुत्व था।
संस्थागत एकाधिकार से विवादित शासन परिसरों की ओर बदलाव (From institutional monolith to contested regime complexes)
- बहुपक्षीय प्रणाली को संयुक्त राष्ट्र के केंद्र में एक एकीकृत संरचना के रूप में देखने के बजाय, विद्वान अब इसे अतिव्यापी और कभी-कभी प्रतिस्पर्धात्मक संस्थाओं के एक जटिल जाल के रूप में वर्णित करते हैं।
- प्रतिस्पर्धी शासन निर्माण (Competitive regime creation): असंतुष्ट राज्य या समूह अब अपने हितों के साथ बेहतर ढंग से संरेखित नए बहुपक्षीय मंच बनाने के लिए स्थापित संस्थाओं को अनदेखा कर सकते हैं।
- उदाहरण: एशियाई अवसंरचना निवेश बैंक का गठन।
- शासन को बदलना (Regime shifting): अभिकर्ता मौजूदा संस्थागत प्रथाओं को चुनौती देने के लिए अधिक अनुकूल नियमों वाले वैकल्पिक बहुपक्षीय स्थानों पर भी अपना ध्यान केंद्रित कर सकते हैं।
- उदाहरण: न्यू डेवलपमेंट बैंक का गठन।
- प्रतिस्पर्धी शासन निर्माण (Competitive regime creation): असंतुष्ट राज्य या समूह अब अपने हितों के साथ बेहतर ढंग से संरेखित नए बहुपक्षीय मंच बनाने के लिए स्थापित संस्थाओं को अनदेखा कर सकते हैं।
"बहुपक्षवाद 1.0" से "नेटवर्क बहुपक्षवाद" की ओर (From "multilateralism 1.0" to "networked multilateralism")
- बहुपक्षवाद का मूल मॉडल: इसे अक्सर "1.0" के रूप में वर्णित किया जाता है, यह एक बंद, राज्य-संचालित प्रणाली थी। इसके बाद, बदलते परिप्रेक्ष्य में एक नए "वेब 2.0" मॉडल का वर्णन किया गया जो अधिक जुड़ा हुआ, विविध अभिकर्ताओं के लिए अधिक खुला हुआ, और एक अलग तर्क द्वारा परिभाषित है। इस मॉडल में निम्नलिखित शामिल हैं:
- नेटवर्क आधारित सहयोग (Networked cooperation): सहयोग अब प्रायः राज्यों, क्षेत्रीय निकायों, और गैर-राज्य अभिकर्ताओं को शामिल करने वाले अनुकुलानशील, गैर-पदानुक्रमित नेटवर्क के माध्यम से किया जाता है, न कि विशेष रूप से औपचारिक, टॉप डाउन अंतर-सरकारी संगठनों के माध्यम से। उदाहरण: ट्रैक 2 कूटनीति (Track 2 diplomacy) का उद्भव।
- व्यावहारिक सहयोग (Pragmatic cooperation): पश्चिम-उन्मुख देशों से जुड़े उदार बहुपक्षवाद के विपरीत, कुछ विद्वान तर्क देते हैं कि एक अधिक "व्यावहारिक" बहुपक्षवाद उभर रहा है, विशेष रूप से शांति और सुरक्षा के मामले में, जो उभरती शक्तियों के हितों को बेहतर ढंग से दर्शाता है। उदाहरण: BRICS का गठन।
7. बहुपक्षवाद का भविष्य क्या हो सकता है? (What can be the future of Multilateralism?)
7. बहुपक्षवाद का भविष्य क्या हो सकता है? (What can be the future of Multilateralism?)
द्वितीय विश्व युद्ध की समाप्ति के बाद से शांति, सुरक्षा, आर्थिक समृद्धि और सतत विकास के लिए बहुपक्षवाद ऐतिहासिक रूप से अंतर्राष्ट्रीय सहयोग का आधार रहा है। हालांकि, हाल के वर्षों में, बहुपक्षवाद को उभरते राष्ट्रवाद, भू-राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता, संस्थागत कठोरता और वैश्विक ढांचे से एकतरफा रूप से बाहर निकलने वाले या इच्छुक देशों के लघु गठबंधनों के उदय सहित कई प्रमुख चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है। बहुपक्षवाद के भविष्य को लेकर निम्नलिखित विकल्पों पर विचार किया जा सकता है:
संकर बहुपक्षवाद (Hybrid Multilateralism)
- भविष्य में शासन का एक बहुस्तरीय या संकर रूप देखने को मिल सकता है, जहाँ विभिन्न प्रकार के संस्थाएं एक साथ काम करते हों।
- UN और WTO जैसी सार्वभौमिक संस्थाएं व्यापक वैश्विक नियम और फ्रेमवर्क प्रदान करना जारी रखेंगी।
- QUAD, AUKUS, या I2U2 जैसे लघु-पक्षीय समूह सुरक्षा, प्रौद्योगिकी, या क्षेत्रीय सहयोग जैसे विशिष्ट क्षेत्रों में काम करेंगे, जो निर्णय लेने में लचीलापन और तीव्रता प्रदान करते हैं।
- केवल राष्ट्रों को ही नहीं, बल्कि निजी कंपनियों, नागरिक समाज और विशेषज्ञों को भी शामिल करने वाले बहु-हितधारक मंच प्रौद्योगिकी, जलवायु नवाचार, और वैश्विक स्वास्थ्य जैसे क्षेत्रों में शासन को आकार देंगे।
क्षेत्रवाद और मुद्दा-आधारित गठबंधन (Regionalism and Issue-Based Coalitions)
- यूरोपीय संघ (EU), ASEAN, और अफ्रीकी संघ (AU) जैसे क्षेत्रीय संगठन क्षेत्रीय सुरक्षा, व्यापार, और विकास चुनौतियों के प्रबंधन में एक बड़ी भूमिका निभाएंगे।
- वन-साइज-फिट-ऑल वैश्विक फ्रेमवर्क के बजाय, जलवायु वार्ताओं, महामारी की तैयारियों, या डिजिटल अर्थव्यवस्था शासन जैसे विशिष्ट मुद्दों के इर्द-गिर्द बनने वाले लचीले गठबंधनों का उदय होगा।
- उदाहरण: यद्यपि QUAD एक स्वतंत्र और निष्पक्ष हिंद-प्रशांत क्षेत्र की बात करता है, किंतु AUKUS सैन्य संगठन के रूप में अधिक सक्रिय है, दोनों का ही उद्देश्य चीन को प्रतिसंतुलित करना है।
ग्लोबल साउथ की बड़ी भूमिका (Greater Role for Global South)
- बहुपक्षवाद का भविष्य भी ग्लोबल साउथ के बढ़ते प्रभाव के साथ आकार लेगा। उभरती अर्थव्यवस्थाएं निर्णय लेने में एक मजबूत आवाज की मांग कर रही हैं।
- BRICS का BRICS+ के रूप में विस्तार और G-20 में अफ्रीकी संघ का शामिल होना, वैश्विक शासन में अधिक न्यायसंगत प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करने की दिशा में एक सकारात्मक बदलाव का संकेत देता है।
- भारत, ब्राजील और दक्षिण अफ्रीका जैसे देश लगातार UNSC, WTO और अन्य वित्तीय संस्थाओं में सुधारों पर जोर दे रहे हैं। इसका उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि विकासशील राष्ट्रों की चिंताओं को वैश्विक एजेंडे में प्राथमिकता दी जाए।
बहुपक्षवाद का भविष्य इसके नष्ट होने के बजाय इसमें परिवर्तन और अनुकूलन में निहित है। महत्वपूर्ण सुधार, समावेशिता, नवाचार और सहयोग के साथ, बहुपक्षवाद वैश्विक चुनौतियों का समाधान करने और एक स्थिर, न्यायपूर्ण, और स्थायी अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था को बढ़ावा देने के लिए एक केंद्रीय तंत्र के रूप में बना रह सकता है।
क्या लघुपक्षवाद, बहुपक्षवाद के भविष्य के रूप में उभर सकता हैं? (Can Minilaterals emerge as the future of Multilateralism?)लघुपक्षवाद अनौपचारिक, लचीले, स्वैच्छिक फ्रेमवर्क हैं जो परिस्थितिजन्य हितों, साझा मूल्यों, या प्रासंगिक क्षमताओं पर आधारित होते हैं।
लघुपक्षवाद के लाभ (Advantages of Minilateralism)
भारत के लिए लघुपक्षवाद के लाभ (Advantages of Minilateralism for India)
हालांकि, जैसा कि अमृता नारलिकर ने कहा है, "लघुपक्षवाद समावेशी बहुपक्षवाद के पूरक के रूप में सबसे अच्छा काम कर सकते हैं, विकल्प के रूप में नहीं," क्योंकि ये कमजोर राष्ट्रों की आवाज को दबा सकते हैं, विखंडन का जोखिम उत्पन्न कर सकते हैं, और इसमें कठोर प्रवर्तन की कमी हो सकती है। पेरिस जलवायु वार्ताओं ने व्यापक आम सहमति को तीव्र बनाने के लिए लघुपक्षवाद की उपयोगिता का प्रदर्शन किया, लेकिन बहुपक्षीय मंच वैधता और बाध्यकारी प्रतिबद्धताओं के लिए आवश्यक बने हुए हैं। |
निष्कर्ष (Conclusion)
8. निष्कर्ष (Conclusion)
बहुपक्षवाद एक ऐसे चौराहे पर खड़ा है, जहां एक तरफ, जलवायु परिवर्तन, महामारी और डिजिटल व्यवधान जैसे संकटों से निपटने के लिए पहले से कहीं अधिक सहयोग की आवश्यकता है। तो वहीं दूसरी ओर, भू-राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता, एकपक्षवाद और संस्थागत जड़ता सामूहिक कार्रवाई को कमजोर कर रही है।
बहुपक्षवाद का भविष्य मौजूदा संरचनाओं का त्याग करने में नहीं, बल्कि उनमें सुधार करने, उनका विविधीकरण करने और उन्हें लोकतांत्रिक बनाने में निहित है।
भारत के लिए, यह एक चुनौती और एक अवसर दोनों है। दुनिया के सबसे अधिक आबादी वाले लोकतंत्र, सबसे तेजी से बढ़ती प्रमुख अर्थव्यवस्था, और एक सभ्यतागत शक्ति के रूप में, भारत वसुधैव कुटुंबकम् - "दुनिया एक परिवार है" के लोकाचार में निहित समावेशी, टिकाऊ और लचीले बहुपक्षवाद को आकार देने में नेतृत्वकारी भूमिका निभा सकता है।
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- उभरती वैश्विक व्यवस्था
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- ग्लोबल साउथ का कम प्रतिनिधित्व
- सुधारित बहुपक्षवाद