संयुक्त राष्ट्र@80: 21वीं सदी के लिए वैश्विक शासन की पुनर्कल्पना | Current Affairs | Vision IAS
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संयुक्त राष्ट्र@80: 21वीं सदी के लिए वैश्विक शासन की पुनर्कल्पना

Posted 25 Oct 2025

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परिचय

संयुक्त राष्ट्र की परिकल्पना सामूहिक सुरक्षा और अंतर्राष्ट्रीय सहयोग की आधारशिला के रूप में की गई थी। इसका गठन 1945 में हुआ था, इसका उद्देश्य अंतर्राष्ट्रीय शांति और सुरक्षा को बनाए रखना, मानवाधिकारों की रक्षा करना और सभी 193 सदस्य देशों में सामाजिक एवं आर्थिक विकास को बढ़ावा देना है। इसकी स्थापना अंतर्राष्ट्रीय संबंधों के विकास में एक महत्वपूर्ण मोड़ साबित हुई।

 वैश्विक संघर्षों को रोकने और विकास को सुगम बनाने में अपनी उपलब्धियों के बावजूद, संयुक्त राष्ट्र को अपनी वैधता, प्रभावशीलता और विश्वसनीयता को लेकर आलोचनाओं का सामना करना पड़ रहा है। इसी कारण, जब संयुक्त राष्ट्र अपने 80 वर्ष पूरे कर रहा है, तो इस समय को एक उपलब्धि के साथ-साथ आत्ममंथन का भी क्षण माना जा रहा है। यह विमर्श UN को 21वीं सदी की वैश्विक व्यवस्था के अनुरूप ढालने और इसमें सुधार करने पर केंद्रित है।

1. संयुक्त राष्ट्र क्या है और यह कैसे काम करता है?

संयुक्त राष्ट्र (UN), द्वितीय विश्व युद्ध के बाद राष्ट्र संघ (लीग ऑफ नेशंस) के उत्तराधिकारी के रूप में उभरा। इसकी स्थापना राष्ट्र संघ की कमियों को दूर करने के लिए की गई थी। इसका मुख्य उद्देश्य सभी देशों को इसका सदस्य बनाना (सार्वभौमिक सदस्यता) तथा सुरक्षा परिषद (UNSC) के माध्यम से इसके निर्णयों को लागू करने की व्यवस्था करना था। 1945 में सैन फ्रांसिस्को सम्मेलन में संयुक्त राष्ट्र के चार्टर (UN Charter) को आधिकारिक रूप से अपनाया गया।

  • कार्य-प्रणाली: यह संयुक्त राष्ट्र प्रणाली का हिस्सा है, जिसमें संयुक्त राष्ट्र के अलावा, इसके छ: प्रमुख अंग, कई कोष, कार्यक्रम और विशेषीकृत एजेंसियां (इन्फोग्राफिक देखें) शामिल हैं। इनमें से प्रत्येक अंग का अपना अलग कार्यक्षेत्र, नेतृत्व और बजट होता है।
  • सदस्यता: किसी नए देश को सदस्य बनाने का निर्णय महासभा (General Assembly) द्वारा, सुरक्षा परिषद की सिफारिश पर लिया जाता है।

2. संयुक्त राष्ट्र ने अपनी स्थापना के बाद से वैश्विक परिवर्तनों को किस प्रकार दिशा दी?

संयुक्त राष्ट्र (UN) ने अपनी स्थापना के बाद से आधुनिक अंतर्राष्ट्रीय परिदृश्य के लगभग हर पहलू को प्रभावित किया है। इसकी प्रासंगिकता आज भी कई क्षेत्रों में दिखती है-

  • लोकतंत्र को बढ़ावा देना: अब तक संयुक्त राष्ट्र ने 377 मिलियन मतदाताओं को पंजीकृत करने में मदद की है और लगभग 50 देशों में निर्वाचन प्रक्रिया के संचालन में सहायता प्रदान की है।
    • इसके अलावा, 80 से अधिक उपनिवेशों को स्वतंत्र राष्ट्र बनने की प्रक्रिया में सहायता करके उपनिवेशवाद के उन्मूलन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।
  • मानवाधिकार: इसने 1948 में मानवाधिकारों की सार्वभौमिक घोषणा (UDHR) प्रस्तुत की। 
    • संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद (UNHRC) म्यांमार, अफगानिस्तान आदि देशों में मानवाधिकार उल्लंघनों की जांच कर रही है।
  • शांति और सुरक्षा: 1948 से अब तक संयुक्त राष्ट्र ने 70 से अधिक शांति मिशन (Peacekeeping Missions) तैनात किए हैं, जिनमें लगभग 20 लाख सैनिक और कर्मी शामिल रहे हैं।
  • मानवीय सहायता: यह दुनिया भर में लाखों शरणार्थियों और आपदा पीड़ितों को खाद्य सामग्री, आश्रय और चिकित्सा सुविधा उपलब्ध कराता है।
    • UN@80 रिपोर्ट के अनुसार, 139 मिलियन लोगों को युद्ध, अकाल और उत्पीड़न के कारण पलायन करने के दौरान संयुक्त राष्ट्र की मदद से सुरक्षा और सहायता मिली।
  • स्वास्थ्य एवं पोषण सहायता: इसने विशेष रूप से विकासशील देशों में स्वास्थ्य और पोषण स्तर को बेहतर बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।
    • विश्व के 45% बच्चों को टीके उपलब्ध कराए जाने से प्रति वर्ष 3 मिलियन लोगों की जान बचाई जा रही है (UN@80 इनिशिएटिव: वर्कस्ट्रीम 2 रिपोर्ट)।
    • बौनेपन (स्टंटिंग) और कुपोषण (वेस्टिंग) की रोकथाम के कार्यक्रमों से 5 साल से कम उम्र के 440 मिलियन बच्चों के जीवन में सुधार हुआ (UN@80 इनिशिएटिव: वर्कस्ट्रीम 2 रिपोर्ट)।
    • विश्व खाद्य कार्यक्रम (WFP), जिसे 2020 का नोबेल शांति पुरस्कार मिला, हर साल 100 मिलियन से अधिक लोगों को भोजन उपलब्ध कराता है।
  • वैश्विक मानदंड और विकास एजेंडा तय करना: संयुक्त राष्ट्र ने सतत विकास लक्ष्य (SDGs, 2015-2030) जैसे दुनिया के लिए साझा लक्ष्य और मानदंड विकसित किए हैं
    • इसकी पर्यावरण शाखा UNEP (1972) और UNFCCC (1992) ने मिलकर 2015 का पेरिस समझौता तैयार किया —जो पहला सार्वभौमिक जलवायु समझौता स्थापित किया
  • संघर्ष निवारण और मध्यस्थता: संयुक्त राष्ट्र के राजनीतिक और शांति निर्माण विभाग (DPPA) ने अब तक 170 से अधिक मध्यस्थता मिशन चलाए हैं, जैसे ईरान–इराक युद्ध (1988) में मध्यस्थता।

3. संयुक्त राष्ट्र में सुधार की आवश्यकता क्यों है?

संयुक्त राष्ट्र की वर्तमान संरचना 21वीं सदी की चुनौतियों का सामना करने के लिए पर्याप्त नहीं है। इसलिए इसके सुधार की ज़रूरत है ताकि यह संगठन अपनी विश्वसनीयताप्रभावशीलता और भरोसे को फिर से स्थापित कर सके। सुधार की ज़रूरत के प्रमुख कारण इस प्रकार हैं —

  • पुरानी शक्ति संरचना: संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद द्वितीय विश्व युद्ध के बाद की भू-राजनीति को प्रतिबिंबित करती है, न कि 21वीं सदी की वास्तविकताओं को, जिसमें वैश्विक दक्षिण के देशों जैसे भारत (संयुक्त राष्ट्र शांति स्थापना में सबसे बड़े योगदानकर्ताओं में से एक) के लिए कोई स्थायी सीट नहीं है।
    • यह असमानता कई देशों में निराशा और असंतोष पैदा करती है, जिससे ब्रिक्स, G-20, और शंघाई सहयोग संगठन (SCO) जैसे वैकल्पिक मंचों का उदय हुआ है।
  • उभरती वैश्विक चुनौतियां: अब दुनिया को कई ऐसे मुद्दों का सामना करना पड़ रहा है, जो सीमाओं से परे है जैसे — साइबर सुरक्षा और कृत्रिम बुद्धिमत्ता (AI) शासन; जलवायु परिवर्तन और जैव विविधता का ह्रास; वैश्विक स्वास्थ्य आपात स्थितियाँ (COVID-19 ने WHO की सीमित शक्ति को उजागर किया); गलत सूचना और फेक न्यूज, जो लोकतंत्र के लिए खतरा हैं; जलवायु प्रवासन और संसाधनों पर संघर्ष। इन सभी मुद्दों से निपटने के लिए संयुक्त राष्ट्र के पास पर्याप्त क्षमता और अधिकार नहीं हैं।
  • वित्तीय सीमाएं: उदाहरण के लिए, 2024 में, 50 बिलियन डॉलर की वैश्विक मानवीय अपील का केवल आधा हिस्सा ही वित्त पोषित किया जा सका।
  • लक्ष्यों को प्राप्त करने में सीमित सफलता: उदाहरण के लिए, उपलब्ध रुझान आँकड़ों के अनुसार, केवल 35% SDG ही सही राह पर हैं या मध्यम प्रगति दिखा रहे हैं। (सतत विकास लक्ष्य रिपोर्ट, 2025)
  • काम की पुनरावृत्ति और अस्पष्टता: 1946 से अब तक संयुक्त राष्ट्र ने 40,000 से अधिक प्रस्ताव, निर्णय और वक्तव्य जारी किए हैं। इससे सदस्य देशों के लिए यह समझना मुश्किल हो गया है कि कौन-सा काम प्राथमिक है और कौन-सा दोहराया जा रहा है।
  • विश्वसनीयता और वैश्विक भरोसे की हानि: लंबे समय से चले आ रहे संघर्ष गतिरोध, मानवाधिकारों के मामलों में पक्षपातपूर्ण रवैया तथा राष्ट्रों के साथ कथित तौर पर असमान व्यवहार ने संयुक्त राष्ट्र की छवि और भरोसे को कमजोर किया है।
    • उदाहरणार्थ, रूस-यूक्रेन युद्ध, इजराइल-फिलिस्तीन संघर्ष आदि मामलों में वीटो अधिकार के कारण सुरक्षा परिषद (UNSC) निर्णय लेने में असमर्थ रही।

3.1 केस स्टडी: संयुक्त राष्ट्र प्रणाली में खामियों को उजागर करने वाली वास्तविक दुनिया की चुनौतियां

केस स्टडी: संयुक्त राष्ट्र प्रणाली में खामियों को उजागर करने वाली वास्तविक दुनिया की चुनौतियां

सीरिया (2011–2024)

  • पृष्ठभूमि: सीरिया में एक भीषण गृहयुद्ध चला, जिसमें सरकारी सेना, विद्रोही गुट, ISIS और विदेशी शक्तियाँ शामिल थीं।
  • संयुक्त राष्ट्र की भूमिका: संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद (UNSC) ने कई बार कार्रवाई के लिए प्रस्ताव पेश किए, लेकिन रूस और चीन के वीटो के कारण वे पारित नहीं हो सके।
  • चुनौतियाँ:
    • मानवीय संकटों को रोकने में असमर्थता
    • राहत एजेंसियों के साथ सीमित समन्वय
    • राजनीतिक गतिरोध ने संघर्ष समाधान में संयुक्त राष्ट्र की विश्वसनीयता को कम कर दिया
  • सुधार प्राथमिकताएं: वीटो शक्ति पर नियंत्रण की व्यवस्था करने की ज़रूरत है और तेज़ एवं समन्वित मानवीय प्रतिक्रिया प्रणाली विकसित करना।

यमन (2015–2025)

  • पृष्ठभूमि: लगातार जारी गृहयुद्ध, जिसमें भुखमरी, हैज़ा महामारी, और लाखों लोगों का विस्थापन हुआ।
  • संयुक्त राष्ट्र हस्तक्षेप: OCHA ने राहत कार्यों का समन्वय किया; UNDP और UNICEF ने मानवीय कार्यक्रमों का क्रियान्वयन किया।
  • चुनौतियाँ:
    • अलग-अलग एजेंसियों के बीच काम का दोहराव और असमंजस
    • संघर्ष क्षेत्रों तक पहुंच प्रतिबंधित।
    • धन की कमी और संसाधनों की देरी से उपलब्धता
  • सुधार प्राथमिकताएं: मानवीय और विकास कार्यों का एकीकरण ज़रूरी है। इसके लिए क्षेत्रीय केंद्र और तेज़ प्रतिक्रिया तंत्र की आवश्यकता है।

दक्षिण सूडान (2013-2025)

  • पृष्ठभूमि: स्वतंत्रता के बाद का संघर्ष, जातीय हिंसा और विस्थापन।
  • संयुक्त राष्ट्र की भूमिका: नागरिकों की सुरक्षा, शांति प्रक्रियाओं के लिए समर्थन और मानवीय सहायता का समन्वय किया गया।
  • चुनौतियाँ:
    • शांति सैनिकों, एजेंसियों और NGOs के बीच कार्यों का ओवरलैप।
    • दूरदराज़ के क्षेत्रों में लॉजिस्टिक्स संबंधी कठिनाई।
    • सीमित वित्तीय और परिचालन संसाधन।
  • सुधार प्राथमिकताएं: अधिदेश स्पष्टता, क्षेत्र समन्वय और परिचालन नवाचार का महत्व।

यूक्रेन (2022–वर्तमान)

  • पृष्ठभूमि: रूस द्वारा आक्रमण; बड़े पैमाने पर नागरिक विस्थापन और इंफ्रास्ट्रक्चर का विनाश हुआ।
  • संयुक्त राष्ट्र की चुनौतियाँ:
    • रूसी वीटो के कारण संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद पंगु हो गई।
    • UN महासभा (UNGA) ने प्रस्ताव पारित किए, लेकिन उसे लागू करने की कोई प्रभावी व्यवस्था नहीं थी।
    • मानवीय एजेंसियों को प्रभावित क्षेत्रों तक पहुंचने में कठिनाइयों का सामना करना पड़ा
  • सुधार प्राथमिकताएं: सुरक्षा परिषद में सुधार की सख्त ज़रूरत, वीटो के दुरुपयोग पर रोक और सभी देशों की भागीदारी के साथ समन्वित वैश्विक प्रतिक्रिया तंत्र विकसित करना आवश्यक है।

4. सुधार में कौन-कौन सी बाधाएं मौजूद हैं?

यद्यपि संयुक्त राष्ट्र ने वैश्विक शांति, सुरक्षा और विकास में महत्वपूर्ण योगदान दिया है, फिर भी इसकी प्रभावशीलता अक्सर भू-राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता, कामकाजी सीमाओं एवं संरचनात्मक अक्षमताओं से बाधित होती है

  • स्थायी सदस्यों का प्रतिरोधP-5 (पाँच स्थायी सदस्य) देश अक्सर किसी भी संरचनात्मक सुधार का विरोध करते हैं क्योंकि उन्हें अपने प्रभाव में कमी का डर रहता है।
    • UNSC के विस्तार संबंधी प्रस्तावों को वीटो शक्ति वाले स्थायी सदस्यों द्वारा रोक दिया जाता है।
    • वीटो सुधार पर चर्चाएँ अक्सर राजनीतिक और सुरक्षा कारणों से अटकी रहती हैं।
  • क्षेत्रीय प्रतिद्वंद्विता: क्षेत्रीय और उभरती शक्तियाँ वैश्विक पहचान और प्रभाव के लिए एक-दूसरे से प्रतिस्पर्धा करती हैं।
    • G-4 राष्ट्र (भारत, ब्राजील, जर्मनी, जापान) स्थायी सदस्यता चाहते हैं, जबकि इटली और पाकिस्तान जैसे देश क्षेत्रीय संतुलन का हवाला देकर इसका विरोध करते हैं।
    • अफ्रीकी राष्ट्र ऐतिहासिक रूप से कम प्रतिनिधित्व पर जोर देते हुए समान क्षेत्रीय प्रतिनिधित्व की मांग करते हैं
  • संसाधन की कमी: कुछ देशों पर बजट निर्भरता {अमेरिका सबसे बड़ा योगदानकर्ता (लगभग 22%)} संयुक्त राष्ट्र के निर्णयों को प्रभावित करती है, जिससे इसकी कार्य-प्रणाली को खतरा पैदा होता है, जैसे कि यूनेस्को से अमेरिका के हटने की स्थिति में।
  • लगभग 80% धनराशि स्वैच्छिक योगदान से आती है।
  • समीक्षा तंत्र का अभाव: संयुक्त राष्ट्र की 85% से अधिक सक्रिय नीतियों में समीक्षा या समाप्ति (यानी सनसेट क्लॉज) का प्रावधान नहीं है।
  • उभरती वैश्विक चुनौतियों से निपटने की सीमित क्षमता: संयुक्त राष्ट्र के पास साइबर सुरक्षा, AI नैतिकता, महामारी और जलवायु आपात स्थितियों जैसे नए मुद्दों पर प्रभावी ढंग से प्रतिक्रिया देने के लिए विशेष निकायों और पर्याप्त संसाधनों का अभाव है।
  • संरचनात्मक और कार्यक्रम संबंधी दोहराव: संयुक्त राष्ट्र विकास प्रणाली अनेक इकाइयों के समूह में तब्दील हो गई है, जिनमें विशिष्ट एजेंसियां भी शामिल हैं, जिनमें से अनेक के उद्देश्य, कार्य और शासन व्यवस्था एक-दूसरे से टकराते हैं।
    • UN-वुमेन और UNFPA (संयुक्त राष्ट्र जनसंख्या कोष) दोनों महिलाओं और जनसंख्या से जुड़े मुद्दों पर काम करते हैं, जिससे काम का दोहराव और संसाधनों की बर्बादी होती है।
  • कमजोर तकनीकी प्रणाली: संयुक्त राष्ट्र हर साल 2 अरब डॉलर से अधिक सॉफ्टवेयर, क्लाउड सेवाओं और इंटरनेट कनेक्टिविटी पर खर्च करता है। लेकिन इन पर समन्वय और साझा योजना की कमी है,
    जिससे —खर्च बढ़ जाता है, काम का दोहराव होता है, और तकनीकी समन्वय कमजोर पड़ता है।

5. संयुक्त राष्ट्र में सुधार के लिए हाल ही में क्या पहल की गई है?

संयुक्त राष्ट्र द्वारा किए गए कुछ प्रमुख सुधार प्रयासों में शामिल हैं-

  • भविष्य का शिखर सम्मेलन (2024): प्रमुख परिणामों में शामिल हैं- 
    • भविष्य के लिए समझौता: इसका फोकस तीन मुख्य क्षेत्रों पर था —सतत विकास लक्ष्य (SDGs); शांति और सुरक्षा, और भविष्य की पीढ़ियाँ । इस समझौते में “भविष्य के लिए विशेष दूत (Special Envoy for Future Generations)” और “फोरसाइट प्लेटफ़ॉर्म (Foresight Platforms)” स्थापित किए गए। 
    • ग्लोबल डिजिटल कॉम्पैक्ट (GDC): यह नैतिक AI का उपयोग, साइबर सुरक्षा सहयोग और डिजिटल समावेशन पर केंद्रित डिजिटल शासन के लिए एक मानक ढाँचा स्थापित करता है। भारत ने इस पहल में समानता और राष्ट्रीय संप्रभुता का सम्मान करने वाले मॉडल का समर्थन किया।
    • भावी पीढ़ियों पर घोषणा: इसके तहत भावी पीढ़ियों के लिए विशेष दूत नियुक्त किया गया है और एक अंतर-पीढ़ी फोरसाइट प्लेटफ़ॉर्म (Intergenerational Foresight Platform) बनाया गया, जो आने वाली पीढ़ियों से जुड़े दीर्घकालिक निर्णयों पर काम करेगा।
  • UN@80 पहल- 2025: मार्च 2025 में शुरू की गई यह पहल पूरे संयुक्त राष्ट्र सिस्टम में सुधार लाने के लिए बनाई गई है। इसका उद्देश्य है — बहुपक्षवाद को मजबूत करना; कामकाजी दक्षता और जवाबदेही बढ़ाना; आधुनिक चुनौतियों के अनुरूप बदलाव लाना और वित्तीय स्थिरता सुनिश्चित करना है। इसमें तीन मुख्य कार्यक्षेत्र शामिल हैं:
    • आंतरिक दक्षता में सुधार: संगठन के भीतर कार्यों को सरल और त्वरित बनाना।
    • अधिदेश की समीक्षा: लगभग 4,000 नीतियों (Mandates) की AI और डेटा एनालिटिक्स की मदद से व्यापक समीक्षा करना।
    • क्षेत्रीय केंद्रों की स्थापना: कर्मचारियों को कार्यस्थलों के नजदीक भेजकर तीव्र प्रतिक्रिया और बेहतर समन्वय सुनिश्चित करना।

5.1 संयुक्त राष्ट्र में सुधार के लिए किए गए पिछले प्रयास क्या रहे हैं?

  • 1965: संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद (UNSC) में सदस्यों की संख्या 11 से बढ़ाकर 15 की गई (यह अब तक का एकमात्र संरचनात्मक सुधार था)।
  • 2004: खतरों, चुनौतियों और परिवर्तन पर उच्च स्तरीय पैनल ने स्थायी और अस्थायी सीटों का विस्तार करने का आग्रह किया।
  • 2005: विश्व शिखर सम्मेलन (World Summit) के दौरान एक दस्तावेज़ पारित हुआ जिसमें “जिम्मेदारी से सुरक्षा” (R2P) के सिद्धांत को अपनाया गया, लेकिन इसने संरचनात्मक बदलाव नहीं किए।
  • 2006: डिलीवरिंग ऐज़ वन पहल ने संयुक्त राष्ट्र के विकास कार्यों में दक्षता की मांग की।
  • 2021: महासचिव एंटोनियो गुटेरेस ने “आवर कॉमन एजेंडा” पेश किया, जिसमें संयुक्त राष्ट्र की भूमिका को डिजिटल सहयोग, शांति निर्माण, और युवाओं की भागीदारी के संदर्भ में फिर से परिभाषित किया गया।
  • 2024-25: भविष्य का शिखर सम्मेलन (Summit of the Future) और शांति के लिए नए एजेंडे (New Agenda for Peace) के परिणामस्वरूप भविष्य के लिए समझौता अपनाया गया, जिसमें सतत विकास, शांति और सुरक्षा, प्रौद्योगिकी, युवा और वैश्विक शासन सुधार पर ध्यान दिया गया।

6. संयुक्त राष्ट्र में सुधारों पर भारत का क्या रुख है और वह क्या भूमिका निभा सकता है?

भारत संयुक्त राष्ट्र (UN) में सुधारित बहुपक्षवाद की एक प्रमुख आवाज़ बनकर उभरा है। भारत का दृष्टिकोण सिद्धांत-आधारित व्यावहारिकता पर आधारित है अर्थात् सुधार सर्वसम्मति से हों, लेकिन नैतिक वैधता और विकासात्मक समानता पर आधारित हों।

सुधारों के प्रति भारत का रुख

  • सुरक्षा परिषद में सुधार की वकालत: भारत G-4 राष्ट्रों (भारत, ब्राजील, जर्मनी, जापान) का एक प्रमुख सदस्य है जो निम्नलिखित की वकालत करता है:
    • संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद (UNSC) में स्थायी सदस्यों की संख्या बढ़ाई जाए।
    • अफ्रीका और लैटिन अमेरिका जैसे कम प्रतिनिधित्व वाले क्षेत्रों को अधिक अस्थायी प्रतिनिधित्व मिले।
  • वीटो शक्ति पर संयम: भारत का मानना है कि वीटो शक्ति (Veto Power) का प्रयोग जिम्मेदारी और संयम के साथ किया जाना चाहिए। भारत यह सुझाव देता है कि जनसंहार या बड़े मानवाधिकार उल्लंघनों के मामलों में वीटो का उपयोग स्वेच्छा से सीमित (Voluntary Restraint) होना चाहिए।
    • उदाहरण : सीरिया और यूक्रेन पर विचार-विमर्श के दौरान, भारत ने स्थायी सदस्यों की वीटो राजनीति का पक्ष लिए बिना मानवीय पहुंच और नागरिक सुरक्षा के उपायों का समर्थन किया।
  • संयुक्त राष्ट्र विकास लक्ष्यों को राष्ट्रीय प्राथमिकताओं के साथ संरेखित करना: इस दिशा में भारत-
    • संयुक्त राष्ट्र के विकास कार्यक्रमों में विकासशील देशों की भूमिका बढ़ाने की वकालत करता है।
    • दक्षिण-दक्षिण सहयोग को विकास का समान स्तंभ मानता है।
    • पारदर्शी और स्थिर वित्तीय व्यवस्था की मांग करता है।
    • ज्ञान साझा करना, डिजिटल समावेशन और जलवायु-संवेदनशील विकास को बढ़ावा देता है।
  • महासभा की स्थिति को मजबूत करना: भारत चाहता है कि महासभा को और अधिक सशक्त और प्रभावशाली बनाया जाए। इसके लिए भारत निम्न लिखित सुझाव देता है —
    • महासभा के संकल्पों पर फॉलो-अप की व्यवस्था बनाना ताकि वे लागू हो सकें
    • महासभा और सुरक्षा परिषद के बीच समन्वय बढ़ाना।
    • आसियान, AU और सार्क जैसे संगठनों की क्षेत्रीय आवाज़ों को शामिल करना।
  • वित्तीय एवं प्रशासनिक सुधार: भारत निम्नलिखित की मांग करता है:
    • वित्तीय योगदान के दायरे को व्यापक बनाया जाए।
    • जवाबदेही और दक्षता पर आधारित बजट बनाया जाए।
    • प्रशासनिक कार्यों और खरीद प्रक्रियाओं में पूर्ण पारदर्शिता हो।
  • डिजिटल शासन और समावेशन: भारत ने ग्लोबल डिजिटल कॉम्पैक्ट (GDC) में सक्रिय भागीदारी की है, तथा संप्रभुता का सम्मान करने वाले AI शासन ढांचे और डिजिटल समावेशन के मॉडल का समर्थन किया है।
    • भारत का “डिजिटल इंडिया कार्यक्रम” दुनिया के लिए वैश्विक डिजिटल समावेशन का एक सफल उदाहरण माना जा रहा है।
  • संयुक्त राष्ट्र से परे सुधार का विस्तार: भारत केवल संयुक्त राष्ट्र ही नहीं, बल्कि  वैश्विक आर्थिक शासन प्रणाली में भी सुधार चाहता है। इस दिशा में भारत का दृष्टिकोण है — 
    • IMF और विश्व बैंक में विकासशील देशों की मत शक्ति बढ़ाई जाए।
    • विश्व व्यापार संगठन (WTO) को अधिक लोकतांत्रिक बनाया जाए।
      ताकि सभी देशों की आवाज़ को समान महत्व मिले। 

भारत की संभावित भूमिका

  • वैश्विक दक्षिण की आवाज: भारत दक्षिण-दक्षिण सहयोग का समर्थक है तथा उत्तर और दक्षिण के बीच सेतु के रूप में कार्य करता है।
    • भारत की यह भूमिका “वॉइस ऑफ द ग्लोबल साउथ समिट” जैसी पहलों में स्पष्ट दिखाई देती है, जो एक अधिक समावेशी और न्यायपूर्ण वैश्विक व्यवस्था बनाने की दिशा में कदम है।
  • गठबंधन निर्माण: भारत कई मंचों के माध्यम से काम करता है, जिससे भारत की स्थिति को राजनीतिक वैधता मिलती है और इसके सहयोगात्मक दृष्टिकोण को रेखांकित किया जाता है:
    • G-4 समूह (भारत, ब्राज़ील, जर्मनी, जापान): सुरक्षा परिषद (UNSC) के विस्तार के लिए काम करता है।
    • L.69 समूह: संयुक्त राष्ट्र में व्यापक सुधार की मांग करता है।
    • अफ्रीकी संघ के साथ साझेदारी:  न्यायपूर्ण प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करने के लिए।
    • BRICS और G-20: वैश्विक बहुपक्षीय सुधार को गति देने के लिए।
  • विश्वसनीय साझेदार: विकास और मानवीय पहलों के लिए भारत का सक्रिय समर्थन, वैश्विक शांति के लिए उसकी संचालन क्षमता और प्रतिबद्धता को दर्शाता है। इससे भारत को संयुक्त राष्ट्र सुधारों, विशेष रूप से सुरक्षा परिषद के विस्तार, के लिए राजनयिक विश्वसनीयता भी मिली है। भारत के योगदान के कुछ प्रमुख उदाहरणों में शामिल हैं-
    • सतत विकास लक्ष्यों (SDG) में प्रदर्शन: भारत ने SDG सूचकांक में 2021 में 120वें स्थान से बढ़कर 2025 में 99वां स्थान हासिल किया है (कुल 167 देशों में, सतत विकास रिपोर्ट, 2025 के अनुसार)।
    • संयुक्त राष्ट्र-समन्वित मानवीय कार्यों में योगदान: उदाहरण के लिए, COVID-19 महामारी के दौरान भारत ने कई विकासशील देशों को टीके, ऑक्सीजन और तकनीकी सहायता दी —यह कार्य WHO और UNDP के समन्वय में किया गया।
    • शांति निर्माता के रूप में भारत: भारत ने 1950 से अब तक 50 से अधिक संयुक्त राष्ट्र शांति अभियानों में 290,000 से अधिक सैनिकों का योगदान दिया है।
    • जलवायु एवं पर्यावरण शासन में नेतृत्व: भारत की पहलें जैसे — आपदा-रोधी अवसंरचना गठबंधन (CDRI) और अंतर्राष्ट्रीय सौर गठबंधन (ISA) संयुक्त राष्ट्र के जलवायु और आपदा प्रबंधन लक्ष्यों के अनुरूप हैं।

7. संयुक्त राष्ट्र में सुधार के मुख्य क्षेत्र क्या हो सकते हैं?

संयुक्त राष्ट्र की निरंतर प्रासंगिकता सुनिश्चित करने के लिए, सुधार व्यापक, समावेशी और अनुकूलनीय होना चाहिए

  • सुरक्षा परिषद में सुधार: इसकी सदस्यता को जनसंख्या के आकार, आर्थिक योगदान और वैश्विक जिम्मेदारी के अनुरूप बढ़ाया जा सकता है।
    • स्थायी सदस्यों की संख्या बढ़ाकर उभरती हुई शक्तियों — भारत, ब्राज़ील, जर्मनी और जापान (G-4 देश) को शामिल किया जाना चाहिए।
  • कार्य पद्धतियाँ और वीटो सुधारयह निर्णय लेने की प्रभावशीलता और नैतिक वैधता को बढ़ा सकता है। कुछ प्रमुख प्रस्तावों में शामिल हैं-
    • अनौपचारिक बैठकों में पारदर्शिता बढ़ाई जाए और गैर-सदस्य देशों की भागीदारी सुनिश्चित की जाए।
    • वीटो के उपयोग पर जवाबदेही तंत्र बनाया जाए, ताकि जब कोई देश वीटो शक्ति का प्रयोग करे तो उसे सार्वजनिक रूप से इसका कारण बताना पड़े
    • वीटो पर स्वैच्छिक संयम (Voluntary Veto Restraint) अपनाया जाए, खासकर जनसंहारयुद्ध अपराध और मानवता विरोधी अपराधों के मामलों में। (यह प्रस्ताव फ्रांस–मेक्सिको पहल से जुड़ा है।)
  • संरचनात्मक सुधार: UNDP और UNOPS, UNFPA और UN Women जैसे अतिव्यापी कार्य वाली संस्थाओं के बीच संभावित एकीकरण या विलय पर विचार किया जाए।
  • प्रौद्योगिकी का लाभ उठाना: संयुक्त राष्ट्र को अपनी तकनीकी व्यवस्था को एकीकृत और कुशल बनाना चाहिए। सभी एजेंसियों के लिए साझा ICT सेवाओं (Pooled ICT Services) की शुरुआत की जाए। टेक्नोलॉजी एक्सेलेरेटर प्लेटफ़ॉर्म (TAP) और UN सिस्टम डेटा कॉमन्स को लागू किया जाए, ताकि डिजिटल और AI आधारित समाधान जिम्मेदारी और प्रभाव के साथ इस्तेमाल किए जा सकें।
  • विकास और मानवीय सुधार: विकास और मानवीय सहायता से जुड़े कार्यों को 2030 एजेंडा (SDGs) की प्राथमिकताओं के साथ जोड़ा जाए। देशों में संयुक्त राष्ट्र के कार्यक्रमों की निगरानी के लिए  रेज़िडेंट कोऑर्डिनेटर सिस्टम को और मजबूत किया जाए।
  • वित्तीय सुधार:
    • सरलीकृत पूल्ड फंडिंग: सकल घरेलू उत्पाद के आधार पर क्षमता के अनुसार सभी सदस्यों से अनिवार्य फंडिंग दायित्वों के साथ-साथ पूल्ड और कोर फंडिंग के लिए प्रोत्साहन को मजबूत करना।
    • विविध स्रोतों से योगदान: उभरती अर्थव्यवस्थाओं और निजी क्षेत्रक को योगदान के लिए प्रोत्साहित किया जाए।
    • परिणाम-आधारित बजटिंग: फंडिंग को मापने योग्य परिणामों से जोड़ा जाए।
    • स्थिर वित्त की व्यवस्था: कुछ चुनिंदा दाताओं पर अत्यधिक निर्भरता को रोकने के लिए वित्त वितरण प्रणाली में सुधार किया जाए।
  • नई वैश्विक चुनौतियों का समाधान: जलवायु शासन, AI नैतिकता, साइबर सुरक्षा, महामारी के लिए विशेष निकाय बनाए जाएं और वैश्विक स्वास्थ्य आपात स्थितियों के लिए स्वायत्तता और संसाधनों के लिए WHO जैसे संगठनों को मजबूत करना।
  • अधिदेश में सुधार:
    • अधिदेश के दौरान: सभी सक्रिय कार्यों और कार्यक्रमों की स्पष्ट जानकारी उपलब्ध कराई जाए, ताकि सदस्य देश अधिक प्रासंगिक और असरदार अधिदेश तैयार कर सकें।
    • अधिदेश लागू करते समय: बैठकों और रिपोर्टों के लिए कुशल व्यवस्था स्थापित करना; प्रबंधन प्रणाली को मजबूत किया जाए, और संसाधनों का प्रभावी उपयोग सुनिश्चित किया जाए।
    • अधिदेश की समीक्षा को सुदृढ़ बनाना: अधिदेश की समीक्षा के लिए तंत्र को सुदृढ़ बनाना; प्रभाव के संबंध में संयुक्त राष्ट्र प्रणाली की जवाबदेही को बढ़ाना।

निष्कर्ष

संयुक्त राष्ट्र अपनी 80वीं वर्षगांठ मना रहा है और एक महत्वपूर्ण मोड़ पर है। इसकी स्थापना के समय जो आदर्श रखे गए थे — शांति, समानता और सहयोग; वे आज भी उतने ही प्रासंगिक हैं, लेकिन इसकी कार्य-प्रणाली और संरचना अक्सर इन आदर्शों पर पूरी तरह खरी नहीं उतरती। अब संयुक्त राष्ट्र को चाहिए कि वह अपने संरचनात्मक (Structural) और कार्यात्मक (Operational) कमज़ोरियों को दूर करे, और खुद को आज की वैश्विक वास्तविकताओं के अनुरूप बनाए। यह 80वाँ वर्ष केवल जश्न का नहीं, बल्कि नवीनीकरण और एक ऐसे बहुपक्षीय सहयोग को मजबूत करने का अवसर है जो समानता पर आधारित और वास्तव में प्रभावी हो।

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  • संयुक्त राष्ट्र@80
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  • आर्थिक और सामाजिक परिषद
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