भारत में विधिक समुदाय के भीतर प्रणालीगत असमानता
भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने हाल ही में एक निर्णय में, जितेन्द्र @ कल्ला बनाम राज्य (सरकार) एनसीटी ऑफ दिल्ली (2025) मामले के आधार पर वरिष्ठ वकीलों को नामित करने की पद्धति और मानदंडों को संशोधित किया है। यह निर्णय इंदिरा जयसिंह बनाम भारत के सर्वोच्च न्यायालय के 2017 और 2023 के मामलों में दिए गए निर्णयों पर पुनर्विचार करता है। इसमें उच्च न्यायालयों को 13 मई, 2025 को दिए गए निर्णय के आलोक में नए नियम बनाने का निर्देश दिया गया है।
न्यायिक और राजनीतिक लोकतंत्र पर प्रभाव
- भारत में विधिक पेशा सार्वजनिक प्रकृति का होता है और इसके भीतर मौजूद असमानताएँ न्यायिक एवं राजनीतिक लोकतंत्र दोनों को प्रभावित कर सकती हैं।
- कानूनी प्रणाली को एक धनिकतंत्र (प्लूटोक्रेसी) के रूप में देखा जाता है, जिसे राजनीतिक और न्यायिक दोनों ही शाखाएँ बनाए रखती हैं।
- अधिवक्ता अधिनियम, 1961 वकीलों को उनकी योग्यता, प्रतिष्ठा या विशेष ज्ञान के आधार पर वरिष्ठ अधिवक्ता और अधिवक्ता के रूप में वर्गीकृत करता है, जो स्वाभाविक रूप से समस्याग्रस्त है।
अमेरिकी प्रभाव और चिंताएं
- रॉयटर्स की रिपोर्ट "द इको चैंबर" (2014) में इस बात पर प्रकाश डाला गया कि किस प्रकार अमेरिका में वकीलों के एक विशिष्ट समूह का कानून पर असंगत प्रभाव था।
- अमेरिका में, वकीलों का एक छोटा प्रतिशत सर्वोच्च न्यायालय की अपीलों का बड़ा हिस्सा संभालता है, जो अक्सर कॉर्पोरेट हितों का प्रतिनिधित्व करते हैं।
- भारत की न्याय व्यवस्था भी इसी प्रकार की असमानताओं के प्रति संवेदनशील है तथा उसे बढ़ती असमानता से सावधान रहना होगा।
न्यायिक प्रतिक्रिया और आलोचना
- इंदिरा जयसिंह निर्णय (2017) ने मौजूदा प्रथाओं में सुधार का प्रयास किया, लेकिन अधिवक्ता अधिनियम की धारा 16 के अंतर्गत मूलभूत समस्याओं का समाधान करने में विफल रहा।
- जितेन्द्र मामले में विवादास्पद धाराओं की वैधता की पुनः पुष्टि की गई। हालांकि, परिधीय सुधारों की मांग की गई तथा आवेदन प्रणाली को बरकरार रखते हुए उच्च न्यायालयों को नए नियम बनाने का निर्देश दिया गया।
- न्यायालय के निर्णयों में वकीलों के मनमाने और भेदभावपूर्ण वर्गीकरण के बारे में मूल तर्कों पर पुनर्विचार नहीं किया गया है।
ऐतिहासिक और सामाजिक संदर्भ
- भारतीय कानूनी पेशे की जड़ें देश के स्वतंत्रता संग्राम में हैं, जिसका नेतृत्व सामाजिक रूप से जागरूक वकीलों ने किया।
- समाजवाद और समतावाद की दिशा में ऐतिहासिक आंदोलनों के बावजूद, वर्गीकरण प्रथा कायम है, जो नाइजीरिया, ऑस्ट्रेलिया और अन्य जैसे क्षेत्राधिकारों से प्रभावित है।
वर्तमान चुनौतियाँ और असमानता
- एफ.एस. नरीमन ने वकीलों के बीच जाति-जैसी व्यवस्था के विकास की आलोचना की।
- कई योग्य और पात्र वकील किसी की नजर में नहीं आते, वे "स्टार वकीलों" की छाया में दब जाते हैं। यह एकाधिकार बौद्धिक रंगभेद को जन्म देता है और न्यायिक विविधता को नकारता है।
- प्रमुख राष्ट्रीय मुद्दों का निर्णय प्रायः कुछ चुनिंदा लोगों की दलीलों के आधार पर किया जाता है। इससे मुकदमेबाजी अमीरों का विशेषाधिकार बन जाती है, जो भारत के संवैधानिक आदर्शों के विपरीत है।
सर्वोच्च न्यायालय के वकील कालीश्वरम राज ने भारत के संवैधानिक ढांचे के भीतर न्याय को सही मायने में कायम रखने के लिए कानूनी पेशे में समानता और विविधता को अपनाने की आवश्यकता पर प्रकाश डाला।