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टियर-2 इन्फ्लुएंसर्स डिजिटल इंडिया में सांस्कृतिक पूंजी को पुनर्परिभाषित कर रहे हैं (Tier-2 Influencers redefining Cultural Capital in Digital India)

21 Jul 2025
1 min

सुर्ख़ियों में क्यों?

हाल ही में, टियर-2 और टियर-3 शहरों के डिजिटल इन्फ्लुएंसर्स  यानी छोटे कस्बों और क्षेत्रीय शहरों से आने वाले कंटेंट क्रिएटर्स का उदय हुआ है। इनका भारत में डिजिटल प्रभाव और सांस्कृतिक पूंजी की गतिशीलता पर गहरा प्रभाव पड़ा है।

सांस्कृतिक पूंजी क्या है?

  • पियरे बोरदियू के अनुसार सांस्कृतिक पूंजी गैर-आर्थिक संपत्तियों को संदर्भित करती है, जैसे- शिक्षा, भाषा और सांस्कृतिक ज्ञान, जो सामाजिक गतिशीलता प्रदान करते हैं।
  • भारत में पारंपरिक सांस्कृतिक पूंजी:
    • महानगरों का प्रभुत्व: दिल्ली और मुंबई जैसे शहर मीडिया, फैशन व मनोरंजन में सांस्कृतिक प्रवृत्तियों को आकार देते हैं। 
    • भाषा पदानुक्रम: अंग्रेजी और उच्च-जाति की बोलियां बौद्धिक व सौंदर्य संबंधी क्षेत्रों पर हावी हैं। 
    • कुलीन संस्थान: सांस्कृतिक मान्यता FTII, NSD, दूरदर्शन और देश के अग्रणी विश्वविद्यालयों जैसी संस्थाओं के साथ जुड़ाव से प्राप्त होती है। 

टियर-2 इन्फ्लुएंसर्स का उदय

  • इसमें जयपुर, पटना, सूरत, गुवाहाटी जैसे शहरों के क्रिएटर्स शामिल हैं, जिनके सोशल मीडिया पर बड़ी संख्या में फॉलोअर्स हैं। हालांकि, इनकी पहचान मूल रूप से क्षेत्रीय है।
  • प्लेटफॉर्म तक पहुंच: सोशल मीडिया (यूट्यूब, इंस्टाग्राम आदि) ने कंटेंट निर्माण को लोकतांत्रिक बनाया है।

टियर-2 इन्फ्लुएंसर्स कैसे सांस्कृतिक पूंजी को फिर से परिभाषित कर रहे हैं?

  • रुचि और प्रभाव का विकेंद्रीकरण
    • जो प्रतीक पहले केवल शहरी जीवनशैली की परिष्कृत पहचान माने जाते थे, अब उन्हें ग्रामीण और क्षेत्रीय संस्कृतियों से जुड़ी नई पहचान और मान्यता मिल रही है।
    • उदाहरण के लिए- किरण डेम्बला जैसे गाँव-आधारित क्रिएटर्स बड़े पैमाने पर ट्रेंड बनाते हैं।
  • सांस्कृतिक शक्ति के रूप में स्थानीय भाषा 
    • IAMAI के आंकड़ों के अनुसार, 50% से अधिक शहरी इंटरनेट उपयोगकर्ता क्षेत्रीय भाषा में कंटेंट का उपयोग करना पसंद करते हैं।
    • शेयरचैट (भारत-फर्स्ट ऐप) जैसे प्लेटफॉर्म्स 15 भाषाओं में 180 मिलियन से अधिक मासिक उपयोगकर्ताओं का दावा करते हैं।
    • भोजपुरी, हरियाणवी और मराठी में कंटेंट को लाखों व्यूज मिलते हैं।
  • लोक और स्थानीय परंपराओं का पुनरुद्धार
    • टियर-2 इन्फ्लुएंसर्स लोक संगीत, पारंपरिक व्यंजनों और क्षेत्रीय अनुष्ठानों को डिजिटल कंटेंट में एकीकृत करते हैं।
      • उदाहरण के लिए- राजस्थान के मांगणियार संगीत को इंस्टाग्राम रील्स के माध्यम से बढ़ावा दिया जा रहा है।
    • विलेज कुकिंग चैनल (तमिलनाडु) जैसे यूट्यूब चैनलों के 20 मिलियन से अधिक सब्सक्राइबर्स हैं।
  • आकांक्षा का लोकतंत्रीकरण
    • सौरव जोशी जैसे इन्फ्लुएंसर्स अपने सरल जीवन, परिवार और संबंधित गतिविधियों को प्रदर्शित करते हुए, सफलता को परिष्करण की बजाय प्रामाणिकता के रूप में परिभाषित करते हैं।
    • स्थानीय नायक → राष्ट्रीय प्रतीक: कई टियर-2 इन्फ्लुएंसर्स युवाओं को अपनी मूल बोली में कंटेंट बनाने के लिए प्रेरित करते हैं।
  • निम्न-वर्गीय अभिव्यक्तियों के लिए मंच
    • हाशिए पर रहे समुदायों (दलित, आदिवासी, OBC आदि) के क्रिएटर्स अपनी पहचान और जीवन के अनुभवों को व्यक्त करने के लिए मंच प्राप्त करते हैं।
    • उदाहरण के लिए- खबर लहरिया, एक जमीनी ग्रामीण डिजिटल न्यूज रूम है। यह पूरी तरह से दलित महिलाओं द्वारा चलाया जाता है।

भारतीय समाज के लिए निहितार्थ

  • सांस्कृतिक लोकतंत्रीकरण: ये उन विविध प्रकार के सौंदर्यशास्त्र, रीति-रिवाजों और प्रथाओं को वैधता प्रदान करते हैं, जिन्हें कभी मुख्यधारा का हिस्सा नहीं माना जाता था।
  • आर्थिक सशक्तीकरण: ShareChat और Moj पर लगभग 80% क्रिएटर्स टियर-2 व टियर-3 शहरों से हैं। ये माइक्रो-ट्रांजेक्शन जैसे नए मुद्रीकरण मॉडल का उपयोग करके अपनी अधिकांश कमाई कर रहे हैं।
  • बदलता राजनीतिक परिदृश्य: टियर-2 इन्फ्लुएंसर्स चुनावों और नीतिगत चर्चाओं में डिजिटल ओपिनियन-मेकर्स बन रहे हैं। राजनीतिक दल उनका नौकरी, जाति और स्थानीय गौरव जैसे मुद्दों पर क्षेत्रीय युवाओं को संगठित करने के लिए उपयोग कर रहे हैं।
  • शहरी-ग्रामीण विभाजन को खत्म करना: ये एक साझा राष्ट्रीय पहचान की भावना पैदा करते हैं, जो स्थानीय गौरव को समायोजित करती है। साथ ही, ये ग्रामीण भारत को लेकर प्रतिगामी या सांस्कृतिक रूप से हीन के रूप में रूढ़िवादी सोच को चुनौती देते हैं।

चुनौतियां और नैतिक चिंताएं

  • डिजिटल डिवाइड: ग्रामीण क्षेत्र में इंटरनेट पैठ अभी भी शहरी भारत से कम है; उपकरणों और प्रशिक्षण तक पहुंच की कमी के कारण कम आय वाले क्रिएटर्स अधिक गुणवत्तापूर्ण कंटेंट सृजित नहीं कर पाते हैं।
  • एल्गोरिदम पूर्वाग्रह: सोशल मीडिया एल्गोरिदम क्लिकबेट या सनसनीखेज कंटेंट को प्राथमिकता देते हैं। बड़े व्यवसाय अभी भी ब्रांड साझेदारी के लिए बड़े शहरों के विख्यात क्रिएटर्स को पसंद करते हैं।
  • रूढ़िवादिता और टोकनिज़्म: ग्रामीण संस्कृति को कई बार असली रूप में पेश करने की बजाय "अनोखी" या "विशेष" रूप में दिखाया जाता है। ब्रांड्स प्रायः क्षेत्रीय पहचान को सिर्फ दिखावे के लिए अपना लेते हैं, वे उसके साथ सच्चे रूप से जुड़ाव नहीं बनाते हैं। 
  • संस्कृति का वस्तुकरण: स्थानीय अनुष्ठानों या प्रथाओं को अक्सर वायरल होने के लिए अत्यधिक सरल बना दिया जाता है, जिससे सांस्कृतिक विकृति का जोखिम उत्पन्न होता है।

निष्कर्ष

जैसे-जैसे डिजिटल इंडिया आगे बढ़ रहा है, वैसे-वैसे टियर-2 इन्फ्लुएंसर्स स्थानीय भाषाओं को दृश्यमान बनाकर, क्षेत्रों को प्रासंगिक बनाकर, और निम्न-वर्ग को शक्तिशाली बनाकर, एक अधिक समावेशी एवं लोकतांत्रिक सांस्कृतिक अंतर्क्रिया का सूत्रपात कर रहे हैं, जो अभिजात्यवाद पर प्रामाणिकता और एकरूपता पर विविधता को महत्व देती है।

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