मैंग्रोव संरक्षण का महत्व और विकास
शुरुआत में, मैंग्रोव का महत्व मुख्यतः स्थानीय समुदायों द्वारा मत्स्य पालन और आजीविका में उनकी भूमिका के लिए अधिक था। हालाँकि, अब उनका महत्व आपदा जोखिम न्यूनीकरण, जलवायु अनुकूलन और जैव विविधता संरक्षण तक विस्तृत हो गया है।
ऐतिहासिक पहलें और प्रभावशाली हस्तियाँ
- 1989 में, एम.एस. स्वामीनाथन ने जलवायु परिवर्तन प्रबंधन में मैंग्रोव की वकालत की थी तथा लवणीकरण और चक्रवात जैसे खतरों की भविष्यवाणी की थी।
- इसके परिणामस्वरूप 1990 में इंटरनेशनल सोसायटी फॉर मैंग्रोव इकोसिस्टम्स (ISME) की स्थापना की गई, जहां स्वामीनाथन पहले अध्यक्ष के रूप में कार्यरत रहे।
- स्वामीनाथन ने मैंग्रोव चार्टर का सह-निर्माण किया, जो वैश्विक मैंग्रोव संरक्षण के लिए एक आधारभूत दस्तावेज है।
ISME का योगदान
- मैंग्रोव का आर्थिक और पर्यावरणीय मूल्यांकन किया गया।
- कार्यशालाओं का आयोजन किया और पुनर्स्थापन मैनुअल और एटलस प्रकाशित किए, जिससे बंजर भूमि से मूल्यवान पारिस्थितिकी तंत्र में मैंग्रोव के बारे में धारणा बदल गई।
- विशेषज्ञ और अनुसंधान दस्तावेज़ीकरण के लिए वैश्विक मैंग्रोव डेटाबेस और सूचना प्रणाली (GLOMIS) विकसित की गई।
भारत में राष्ट्रीय प्रभाव
भारत में मैंग्रोव प्रबंधन का एक लंबा इतिहास रहा है, लेकिन औपनिवेशिक काल की प्रथाओं के कारण इसे चुनौतियों का सामना करना पड़ा। 1980 में भारतीय वन (संरक्षण) अधिनियम के लागू होने से प्रबंधन रणनीतियों में बदलाव आया।
- फिशबोन नहर विधि को प्रभावी मैंग्रोव पुनर्स्थापन के लिए विकसित किया गया था।
- यह पद्धति संयुक्त मैंग्रोव प्रबंधन कार्यक्रम के रूप में विकसित हुई, जिसने सहभागी संरक्षण प्रयासों को बढ़ावा दिया।
- 1999 के ओडिशा सुपर साइक्लोन और 2004 की सुनामी के दौरान मैंग्रोव की सुरक्षात्मक भूमिका ने उनके महत्व को उजागर किया।
वर्तमान स्थिति और आँकड़े
भारत वन स्थिति रिपोर्ट (ISFR) 2023 के अनुसार, भारत का मैंग्रोव आवरण 4,991.68 वर्ग किमी है, जो 2019 से 16.68 वर्ग किमी की वृद्धि है। यह देश के भौगोलिक क्षेत्र के 0.15% हिस्से को दर्शाता है।