प्राचीन भारतीय लोकतंत्र
गंगईकोंडा चोलपुरम में प्रधान मंत्री के भाषण में मैग्ना कार्टा से भी पहले की भारत की प्राचीन लोकतांत्रिक प्रथाओं पर प्रकाश डाला गया। उनके संदेश में भारत की स्वदेशी, प्राचीन लोकतांत्रिक विरासत पर गर्व करने पर ज़ोर दिया गया।
ऐतिहासिक संदर्भ और साक्ष्य
- भारत की लोकतांत्रिक परंपराएं पांचवीं शताब्दी ईसा पूर्व से चली आ रही हैं, जो गांवों और जनजातियों की निर्णय लेने की प्रक्रियाओं में स्पष्ट दिखाई देती हैं।
- कौटिल्य के अर्थशास्त्र में संघों या स्थानीय यूनियनों का उल्लेख है, जो सुव्यवस्थित शासन और सहभागी लोकतंत्र को दर्शाता है।
चोल राजवंश की चुनाव प्रणाली
- कुदावोलाई प्रणाली या “मतदान प्रणाली” का प्रयोग चोल राजवंश के अंतर्गत विशेष रूप से उथिरामेरुर में स्थानीय चुनावों के लिए किया जाता था।
- पात्र उम्मीदवारों के नाम ताड़ के पत्तों पर अंकित किए जाते थे, जिसे एक निष्पक्ष युवा द्वारा निकाला जाता था, जिससे पारदर्शिता और तटस्थता सुनिश्चित होती थी।
- वैकुंठपेरुमल मंदिर के एक शिलालेख में चुनाव के लिए योग्यता, अयोग्यता और प्रक्रियाओं का विवरण दिया गया है।
योग्यताएं और अयोग्यताएं
- उम्मीदवारों की आयु 35-70 वर्ष होनी चाहिए। वे भूमि के मालिक होने चाहिए तथा उन्हें पवित्र ग्रंथों या प्रशासनिक प्रक्रियाओं में शिक्षा प्राप्त होनी चाहिए।
- अयोग्यताओं में ऋण न चुकाना, शराब पीना, नैतिक उल्लंघन तथा पिछले खातों को प्रस्तुत न करना शामिल था।
- गबन या कर्तव्य की उपेक्षा के लिए सख्त निष्कासन प्रावधान थे, जिसमें सात पीढ़ियों तक के लिए प्रतिबंध भी शामिल था।
महत्व और विरासत
- ये प्रथाएं उन्नत सहभागी लोकतंत्र को प्रतिबिंबित करती हैं और नागरिक जवाबदेही पर जोर देती हैं।
- केवल ब्रिटिश या अमेरिकी प्रणालियों जैसे बाहरी प्रभावों से प्रभावित होने की बजाय भारत का लोकतांत्रिक चरित्र उसके अपने इतिहास में गहराई से निहित है।
- वैश्विक लोकतंत्र के समक्ष चुनौतियों के मद्देनजर आधुनिक प्रथाओं को इन परंपराओं की याद दिलाना अत्यंत महत्वपूर्ण है।
निष्कर्ष
भारत की लोकतांत्रिक भावना प्राचीन और स्वदेशी है, जो नैतिक शासन और सामूहिक निर्णय लेने में निहित है। भारत के चुनाव आयोग जैसी समकालीन संस्थाओं के लिए इस इतिहास को पहचानना आवश्यक है ताकि वे ऐतिहासिक और आधुनिक दोनों प्रथाओं से विश्वास प्राप्त कर सकें।