भारत की अर्थव्यवस्था और प्रतिस्पर्धा नीति में परिवर्तन
भारत की अर्थव्यवस्था में महत्वपूर्ण बदलाव हो रहे हैं, फिर भी इसकी प्रतिस्पर्धा नीति पुरानी प्रतीत होती है। वैश्विक ढाँचे डिजिटल युग के अनुकूल विकसित हो रहे हैं, वहीं भारत का प्रतिस्पर्धा-विरोधी दृष्टिकोण पुराने ज़माने की याद दिलाता है, जो नवाचार और नए विचारों के लिए संभावित रूप से बाधाएँ पैदा कर रहा है।
प्रतिस्पर्धा अधिनियम 2002 की सीमाएँ
- यह कार्य प्रतिक्रियात्मक है, जो एकाधिकार परिणामों को पहले से रोकने के बजाय, उनके घटित होने के बाद ही उनकी पहचान करता है।
- तीव्र एल्गोरिदम आधारित निर्णयों के युग में, पूर्वव्यापी प्रवर्तन अपर्याप्त है।
भौतिक अवसंरचना केंद्रीकरण
- बंदरगाहों और हवाई अड्डों जैसी आवश्यक अवसंरचनाओं पर कुछ ही संस्थाओं का नियंत्रण बढ़ रहा है, जिससे बाधाएं उत्पन्न हो रही हैं।
- बुनियादी ढांचे के निजीकरण से उपभोक्ता के विकल्प कम हो जाते हैं, जिससे 'इनविजिबल टैक्स ऑफ एब्सेंस' उत्पन्न होता है।
प्रतिस्पर्धा-विरोधी नीतियों में वैश्विक रुझान
- यूरोपीय संघ का डिजिटल बाजार अधिनियम डेटा पृथक्करण और अंतर-संचालनीयता को लागू करता है।
- ब्रिटेन का कानून सक्रिय विनियामक हस्तक्षेप की अनुमति देता है।
- अमेरिका कानूनी कार्रवाई के जरिए बड़ी टेक कंपनियों को आक्रामक तरीके से निशाना बना रहा है।
- जापान, दक्षिण कोरिया और चीन भी निष्पक्ष प्रतिस्पर्धा सुनिश्चित करने के लिए कदम उठा रहे हैं।
भारत का प्रस्तावित डिजिटल प्रतिस्पर्धा विधेयक
- इसका उद्देश्य 'व्यवस्थित रूप से महत्वपूर्ण डिजिटल मध्यस्थों' को तटस्थ बुनियादी ढांचे के रूप में कार्य करने के लिए विनियमित करना है।
- बंडलिंग और अनुचित प्रथाओं पर रोक लगाता है, जिससे नीतिगत ढांचे को पुनर्जीवित करने में मदद मिलती है।
निष्कर्ष: आगे की राह
- प्रतिस्पर्धा-विरोधी नीति के द्वारा निष्पक्षता सुनिश्चित की जानी चाहिए तथा प्रभुत्व को अधिकार बनने से रोकना चाहिए।
- भारत के सामने एक विकल्प है- या तो बहुलवादी बाजार को बढ़ावा देना या एकाधिकारवादी नियंत्रण को कायम रहने देना।