भारत में कृषि नीति और अल्पकालिक सोच
निकोस कज़ांत्ज़ाकिस के उपन्यास ज़ोर्बा द ग्रीक की एक घटना यह स्पष्ट करती है कि प्राथमिक उत्पादकों और भारतीय व्यवस्था के बीच नीति की अवधारणा में कितना अंतर है। भारत की कृषि नीतियाँ “आज के लिए जियो” वाली मानसिकता को दर्शाती हैं, जिनमें दीर्घकालिक दृष्टि का अभाव है। यह एक निष्क्रिय कृषि अनुसंधान प्रणाली और ऐसी नीतियों में भी झलकता है जो अल्पकालिक कृषि पद्धतियों को प्रोत्साहित करती हैं।
रणनीतिक दृष्टि और प्रणालीगत सोच
- भारत को विश्व और राष्ट्रीय आर्थिक विकास, प्रौद्योगिकीय संबंधी व्यवधान तथा जलवायु परिवर्तन और वृद्धावस्था जैसी चुनौतियों का पूर्वानुमान करने के लिए एक रणनीतिक दृष्टि की आवश्यकता है।
- वर्तमान नीतियां कृषि उत्पादन की कमी का अपर्याप्त रूप से समाधान करती हैं तथा पोषण सुरक्षा और न्यूनतम जलवायु प्रभाव की गलत धारणा रखती हैं।
- परिदृश्य नियोजन (Scenario Planning) का उद्देश्य केवल पूर्वानुमान की सटीकता नहीं, बल्कि अप्रत्याशित परिस्थितियों के लिए तैयार रहना है।
नीति और अनुसंधान एवं विकास में विफलताएँ
- राष्ट्रीय सहकारी नीति 2025 में देरी नीति निर्माण संबंधी मुद्दों को उजागर करती है।
- भारत अपने सकल घरेलू उत्पाद का 1% से भी कम अनुसंधान एवं विकास में निवेश करता है, जबकि इजरायल 6% से अधिक निवेश करता है, जिससे विकास की स्थिति प्रभावित होती है।
- राजनीतिक अनिर्णय की स्थिति महत्वपूर्ण कृषि सुधारों को रोकती है, राज्य स्तरीय विनियमनों को जटिल बनाती है तथा निजी अनुसंधान एवं विकास निवेश में बाधा डालती है।
व्यापार और प्रतिस्पर्धा पर प्रभाव
- नियामक अनिश्चितताएं और रुके हुए सुधार व्यापार वार्ता और प्रतिस्पर्धात्मकता को प्रभावित करते हैं, जिसका उदाहरण सोयाबीन की उपज में असमानता है।
- भारत के उच्च मूल्य वाले उत्पाद हाल ही में हुए भारत-ब्रिटेन समझौते जैसे व्यापारिक सौदों में सुरक्षा परीक्षणों में विफल हो जाते हैं।
प्रणालीगत दृष्टिकोण की आवश्यकता
- भारतीय नीतियां प्रायः एक-दूसरे से अलग-थलग होकर काम करती हैं तथा आपसी जुड़ाव की उपेक्षा करके आर्थिक प्रगति में बाधा डालती हैं।
- अमेरिका के टैरिफ़ एक चेतावनी संकेत की तरह काम कर सकते हैं, जिससे शासन और सुधारों में सुधार हेतु “लोकप्रियतावाद” से “परिणामवाद” की ओर बदलाव किया जा सके।