ट्रांसजेंडर अधिकारों पर सुप्रीम कोर्ट के निर्देश
सुप्रीम कोर्ट ने ट्रांसजेंडर व्यक्तियों को समाज की मुख्यधारा में शामिल करने की दिशा में महत्वपूर्ण कदम उठाए हैं। यह फैसला जेन कौशिक नामक एक ट्रांसवुमन शिक्षिका से जुड़े मामले में आया है, जिन्हें अपनी लैंगिक पहचान के कारण भेदभाव का सामना करना पड़ा था।
मामले की पृष्ठभूमि
- जेन कौशिक ने उत्तर प्रदेश के एक स्कूल से गलत तरीके से नौकरी से निकाले जाने और गुजरात में लैंगिक पहचान के कारण नौकरी से वंचित किये जाने का आरोप लगाया।
- नालसा निर्णय (2014) और ट्रांसजेंडर व्यक्ति (अधिकारों का संरक्षण) अधिनियम, 2019 के बावजूद, भेदभाव को रोकने के उपायों का खराब कार्यान्वयन हुआ है।
सर्वोच्च न्यायालय की टिप्पणियाँ
- न्यायालय ने ट्रांसजेंडर व्यक्तियों के प्रति केन्द्र और राज्यों के "घोर उदासीन रवैये" पर गौर किया।
- इस बात पर जोर दिया गया कि अनुच्छेद 14 के तहत गैर-भेदभाव एक संवैधानिक अधिकार है, जो उचित समायोजन को अनिवार्य बनाता है।
सर्वोच्च न्यायालय द्वारा आदेशित कार्यवाहियाँ
- ट्रांसजेंडर व्यक्तियों के लिए राष्ट्रीय समान अवसर की नीति विकसित करने हेतु न्यायमूर्ति आशा मेनन के नेतृत्व में एक समिति का गठन।
- कौशिक के लिए गुजरात के स्कूल (₹50,000), केंद्र सरकार (₹50,000) तथा उत्तर प्रदेश और गुजरात राज्यों (₹50,000 प्रत्येक) से मुआवजा देने का निर्देश दिया गया।
- प्रत्येक जिले में कल्याण बोर्ड और ट्रांसजेंडर संरक्षण प्रकोष्ठों की स्थापना, अनिवार्य शिकायत अधिकारी और 2019 अधिनियम के उल्लंघन की रिपोर्ट करने के लिए एक टोल-फ्री हेल्पलाइन।
समिति का अधिदेश
- छह महीने के भीतर एक आदर्श समान अवसर नीति तैयार करने के लिए अक्काई पद्मशाली और ग्रेस बानू जैसे कार्यकर्ताओं और विशेषज्ञों को शामिल करना।
- 2019 अधिनियम में कमियों की पहचान करें, सुधारात्मक उपाय प्रस्तावित करें, और कार्यस्थलों में ट्रांसजेंडर की भागीदारी बढ़ाने के तरीके सुझाएं।
- समावेशी स्वास्थ्य देखभाल सुनिश्चित करना तथा लिंग-असंगत व्यक्तियों के अधिकारों की रक्षा करना।
कार्यान्वयन और अनुपालन
- केंद्र तथा सभी राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों को तीन महीने के भीतर नए निर्देशों का कड़ाई से अनुपालन सुनिश्चित करने का निर्देश दिया गया है।
यह न्यायिक निर्देश ट्रांसजेंडर व्यक्तियों के अधिकारों के समर्थन और संरक्षण के लिए प्रणालीगत परिवर्तनों की तत्काल आवश्यकता को रेखांकित करता है, जो सामाजिक न्याय को बढ़ावा देने में सर्वोच्च न्यायालय की सक्रिय भूमिका को दर्शाता है।