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जलवायु वित्त (Climate Finance)

23 Dec 2025
1 min

In Summary

भारत और अन्य विकासशील देशों ने COP30 में जलवायु और प्रकृति वित्त प्लेटफार्मों की योजनाओं की घोषणा की, जिसका उद्देश्य जलवायु संबंधी कार्यों, विशेष रूप से कमजोर देशों के लिए वित्तपोषण, समन्वय और पारदर्शिता में सुधार करना है।

In Summary

सुर्खियों में क्यों?

भारत सहित 12 अन्य विकासशील देशों तथा अफ्रीकी द्वीप राज्य जलवायु आयोग (African Islands States Climate Commission: AISCC) ने 'जलवायु एवं प्रकृति वित्त के लिए देश या क्षेत्र विशिष्ट मंच' विकसित करने की योजनाओं की घोषणा की है। 

अन्य संबंधित तथ्य

  • इन योजनाओं की घोषणा हाल ही में ब्राजील के बेलेम में आयोजित संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन फ्रेमवर्क अभिसमय (UNFCCC) के पक्षकारों के सम्मेलन (COP-30) में की गई। 
    • इन 12 विकासशील देशों में कंबोडिया, कोलंबिया, कजाकिस्तान, लेसोथो, मंगोलिया, नाइजीरिया, ओमान, पनामा, रवांडा, डोमिनिकन गणराज्य, टोगो और दक्षिण अफ्रीका शामिल हैं। 
  • मंचों के बारे में: देश विशिष्ट मंच रणनीतिक, देश-संचालित तंत्र होते हैं जो जलवायु प्राथमिकताओं को कार्यक्रम-आधारित निवेश दृष्टिकोण में रूपांतरित करते हैं। 
    • इन्हें वैश्विक समर्थन और निवेश प्रवाह को प्रत्येक देश की राष्ट्रीय प्राथमिकताओं के अनुरूप संरेखित करने के लिए डिज़ाइन किया गया है। 
  • वित्तपोषण: इन मंचों को हरित जलवायु कोष (GCF) के तत्परता कार्यक्रम (Readiness Programme) के अंतर्गत समर्थन प्रदान किया जाएगा। 
    • तत्परता कार्यक्रम विकासशील देशों के लिए जलवायु कार्रवाई हेतु क्षमता-निर्माण का सबसे बड़ा तंत्र है। 
    • GCF की निधि से वर्तमान में दो मौजूदा मंचों—ब्राजील देश विशिष्ट मंच (Brazil Country Platform) और कैरेबियाई क्षेत्र विशिष्ट मंच (Caribbean Regional Platform)—को समर्थन प्रदान किया जा रहा है। 
  • ये मंच खंडित परियोजना-आधारित दृष्टिकोण को प्रतिस्थापित करने का प्रयास करते हैं। क्योंकि ये मंच विभिन्न सार्वजनिक और निजी, अंतर्राष्ट्रीय तथा स्थानीय हितधारकों के बीच समन्वय स्थापित करने में सहायता करते हैं। 

जलवायु वित्त दृष्टिकोण

  • ऐतिहासिक उत्तरदायित्व: संचयी उत्सर्जन में विकसित देशों की हिस्सेदारी सर्वाधिक है, फिर भी वे पर्याप्त सार्वजनिक वित्त उपलब्ध नहीं करा रहे हैं।
  • वितरणात्मक असमानता: अल्पविकसित देश (LDCs), छोटे द्वीपीय विकासशील राज्य (SIDS) तथा स्वदेशी समुदाय सर्वाधिक जलवायु जोखिमों का सामना कर रहे हैं।
  • अंतर-पीढ़ीगत समता: अनुकूलन वित्त में वर्ष 2035 तक का विलंब भविष्य की जलवायु सहनशीलता को कमजोर करता है।
  • भारत का रुख: भारत ने समता और CBDR-RC के सिद्धांत की पुनः पुष्टि की तथा निजी वित्त पर भार स्थानांतरित करने का विरोध किया।

जलवायु वित्त से संबंधित मुद्दे

  • गारंटीकृत आपूर्ति के बिना महत्वाकांक्षा: लक्ष्य स्वैच्छिक प्रतिबद्धताओं और निजी वित्त प्रवाह पर निर्भर हैं। परिणामस्वरूप उन सार्वजनिक और रियायती वित्तीय संसाधनों की गारंटी नहीं मिलती जिनकी असुरक्षित/सुभेद्य देशों को आवश्यकता है। 
    • विकासशील देशों को जलवायु कार्रवाई के लिए प्रति वर्ष लगभग 1.3 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर की आवश्यकता है। 
    • हालांकि, COP-29 में सहमत नया सामूहिक परिमाणात्मक लक्ष्य (NCQG) केवल प्रति वर्ष 300 बिलियन अमेरिकी डॉलर का है। 
  • रियायत और पहुंच से संबंधित मुद्दे: अल्पविकसित देश (LDCs) और छोटे द्वीपीय विकासशील देश (SIDS) वित्त तक पहुँच में अनेक बाधाओं का सामना करते हैं। वहीं, मिश्रित (ब्लेंडेड) वित्तीय उपकरण तब तक ऋण का जोखिम उत्पन्न कर सकते हैं, जब तक अनुदान उपाय सुरक्षित न रखे जाएं। 
  • निजी वित्त पर अत्यधिक निर्भरता: निजी पूंजी अनुकूलन तथा हानि एवं क्षति (L&D) की तुलना में वित्तीय रूप से व्यवहार्य शमन परियोजनाओं को प्राथमिकता देती है, जबकि अनुकूलन और L&D के लिए अनुदान-आधारित वित्त की आवश्यकता होती है।
  • GCF में अप्रयुक्त निधि: हालांकि हरित जलवायु वित्त (GCF) ने 134 विकासशील देशों में 19 बिलियन अमेरिकी डॉलर से अधिक की राशि की प्रतिबद्धता की है, फिर भी वितरण तंत्रों का अनुपालन कठिन होने के कारण इसे विकासशील देशों की ओर से आलोचना का सामना करना पड़ रहा है। 
  • 2024 तक, इसकी प्रतिबद्ध निधि का केवल लगभग एक-चौथाई हिस्सा ही समुचित रूप से आवंटित किया जा सका है। 
  • 2035 की समस्या (धीमी समय-सीमाएं): वर्ष 2035 तक बड़े पैमाने पर वृद्धि को आगे खिसकाने वाले लक्ष्य राजनीतिक रूप से अपेक्षाकृत आसान हैं, लेकिन तत्काल जलवायु प्रभावों का सामना कर रहे देशों के लिए यह समस्याजनक है।
  • पारदर्शिता और अतिरिक्तता: दोहरी गणना तथा इस बात को लेकर चिंताएं बनी हुई हैं कि "जुटाया गया निजी वित्त" क्या वास्तव में मौजूदा आधिकारिक विकास सहायता (ODA) के अतिरिक्त है या नहीं। 

जलवायु वित्त और भारत:

भारत की जलवायु वित्त आवश्यकताएं (TERI के अनुसार):

  • वर्ष 2070 तक निवल-शून्य लक्ष्य: लगभग 10.1 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर की आवश्यकता।
  • NDC का कार्यान्वयन (2015–2030): अनुमानित 2.5 ट्रिलियन से 6–8 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर।

जलवायु वित्त जुटाने हेतु उठाए गए कदम (घरेलू स्तर पर)

  • सॉवरेन ग्रीन बॉन्ड्स (SGrBs): वित्त वर्ष 2022–23: ₹16,000 करोड़, वित्त वर्ष 2023–24: ₹20,000 करोड़
  • कार्बन क्रेडिट ट्रेडिंग योजना (CCTS): भारतीय कार्बन बाज़ार (ICM) की स्थापना। विभिन्न क्षेत्रों के लिए ग्रीनहाउस गैस (GHG) तीव्रता के लक्ष्य अधिसूचित किए गए।
  • RBI और जलवायु जोखिम: ड्राफ्ट डिस्क्लोजर फ्रेमवर्क बैंकों/NBFCs को जलवायु जोखिमों के प्रकटीकरण का प्रस्ताव करता है।
    • ग्रीनवॉशिंग को रोकने के लिए ग्रीन डिपॉजिट्स के लिए फ्रेमवर्क जारी किया गया।
  • IFSC, गिफ्ट (GIFT) सिटी: इसे विदेशी पूंजी आकर्षित करने हेतु एक सतत वित्त केंद्र (Sustainable Finance Hub) के रूप में विकसित किया जा रहा है।

भारत तथा अन्य विकासशील देशों के लिए आगे की राह 

  • पूर्वानुमेय सार्वजनिक वित्त प्रवाह पर बल: 300 बिलियन अमेरिकी डॉलर को जुटाने के लक्ष्य के लिए पूर्वानुमेय सार्वजनिक वित्त प्रवाह और स्पष्ट समय-सीमा निर्धारण पर बल दिया जाना चाहिए। 
  • रियायत की सुरक्षा: अनुकूलन तथा हानि एवं क्षति (L&D) के लिए अनुदान आधारित उपायों और हानिकारक ऋण से बचाने वाले वित्तीय साधनों पर बल दिया जाना चाहिए।
  • "जुटाए गए वित्त" (मोबिलाइजेशन) के लेखांकन का मानकीकरण: दोहरी गणना से बचने के लिए पारदर्शी पद्धतियों का समर्थन किया जाना चाहिए। 
  • घरेलू ढांचों का सुदृढ़ीकरण: जलवायु वित्त वर्गीकरण और प्रकटीकरण मानदंडों को वैश्विक मानकों (ISSB) के अनुरूप संरेखित किया जाना चाहिए।
  • घरेलू सुरक्षा उपायों के साथ बैंक-योग्य पाइपलाइन तैयार करना: नवीकरणीय ऊर्जा और जलवायु समुत्थानशीलता से जुड़ी संप्रभु (sovereign) परियोजना पाइपलाइन विकसित की जानी चाहिए, जिन्हें सामाजिक एवं पर्यावरणीय सुरक्षा उपायों से जोड़ा गया हो।
  • मिश्रित (ब्लेंडेड) वित्तीय सुविधाओं पर क्षेत्रीय सहयोग: दक्षिण–दक्षिण सहयोग के तहत ऐसे मिश्रित तंत्रों की संभावनाएं तलाशी जानी चाहिए, जो निजी पूंजी को सार्वजनिक हित के अनुरूप संरेखित करें। 

निष्कर्ष

देश विशिष्ट मंच पहल वैश्विक दक्षिण द्वारा जलवायु वित्त में नेतृत्व संभालने और वैश्विक जलवायु सहयोग की संरचना को पुनर्गठित करने का एक प्रयास है। COP-30 ने इसके लिए एक राजनीतिक ढाँचा तैयार किया और कुछ आशाजनक व्यवस्था प्रस्तुत की है। हालांकि, अब इसकी सफलता कार्यान्वयन और पारदर्शिता पर निर्भर करती है। बेलेम की विश्वसनीयता इस बात पर टिकी है कि वह प्रतिबद्धताओं को पूर्वानुमेय, सार्वजनिक और रियायती वित्त में कैसे परिवर्तित करता है। सबसे महत्वपूर्ण यह है कि वितरण के साधन ऐसे हों जो सुभेद्य देशों को नए ऋण के भार से सुरक्षित रखें। 

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