सुर्ख़ियों में क्यों?
हाल ही में, विधिक सेवा प्राधिकरण अधिनियम, 1987 के कार्यान्वयन के 30 वर्ष पूरे हुए हैं। यह अधिनियम 9 नवंबर, 1995 को लागू किया गया था और इस दिन को प्रतिवर्ष राष्ट्रीय विधिक सेवा दिवस के रूप में मनाया जाता है।
भारत में विधिक सहायता का विकास-क्रम
- 1949: बॉम्बे सरकार की समिति ने निःशुल्क विधिक सहायता (जैसे- अदालती शुल्क, वकील की फीस आदि) प्रदान करने को सरकार का कर्तव्य बताया था।
- 1958: 14वें विधि आयोग की रिपोर्ट में भी इस बात पर बल दिया गया कि, निःशुल्क विधिक सहायता प्रदान करना राज्य का दायित्व है।
- विधिक सहायता पर राष्ट्रीय सम्मेलन (1970) और वी.आर. कृष्ण अय्यर की अध्यक्षता वाली विशेषज्ञ समिति की रिपोर्ट (1973) में विधिक सहायता के लिए एक वैधानिक आधार की वकालत की गई है।
- 1976: अनुच्छेद 39A को संविधान में शामिल करके विधिक सहायता को संविधान के तहत औपचारिक रूप दिया गया।
- 1980: न्यायमूर्ति पी.एन. भगवती की अध्यक्षता में देश भर में विधिक सहायता कार्यक्रमों के प्रबंधन के लिए 'विधिक सेवा सहायता योजनाओं के क्रियान्वयन हेतु समिति' का गठन किया गया।
- 1987: विधिक सेवा प्राधिकरण अधिनियम, 1987 पारित किया गया।

विधिक सेवा प्राधिकरण अधिनियम, 1987 के बारे में
- इस अधिनियम के तहत, निःशुल्क और पर्याप्त विधिक सेवाएं प्रदान करने के लिए एक त्रि-स्तरीय प्रणाली स्थापित की गई:
- राष्ट्रीय विधिक सेवा प्राधिकरण (NALSA): भारत का मुख्य न्यायाधीश इसका प्रमुख होता है।
- राज्य विधिक सेवा प्राधिकरण (SLSA): उच्च न्यायालय का मुख्य न्यायाधीश इसका प्रमुख होता है।
- जिला विधिक सेवा प्राधिकरण (DLSA): जिला न्यायाधीश इसका प्रमुख होता है।
- निःशुल्क विधिक सेवाओं के लिए पात्र व्यक्ति:
- SC/ST सदस्य, महिलाएं और बच्चे, तस्करी या आपदा के शिकार, मानसिक रूप से विक्षिप्त या दिव्यांग, औद्योगिक श्रमिक, हिरासत में लिए गए व्यक्ति और निर्धारित आय सीमा (उच्चतम न्यायालय के मामले में 5 लाख रुपये से कम) से कम कमाने वाले व्यक्ति।
- राज्य अधिनियम के अंतर्गत अपनी पात्रता सीमा स्वयं तय कर सकते हैं, जो 1 लाख रुपये से 3 लाख रुपये के बीच अलग-अलग हो सकती है।
- लोक अदालतों की स्थापना: यह एक वैकल्पिक विवाद समाधान (ADR) तंत्र है, जो मुकदमा-पूर्व मामलों सहित अन्य मुकदमों का सौहार्दपूर्ण समाधान करता है। (लेख के बाद में दिए गए बॉक्स को देखें)
NALSA की भूमिका
- नीति और योजना विकास: NALSA, विधिक सेवाओं के कार्यान्वयन के लिए नीतियां और योजनाएं तैयार करता है।
- पीड़ितों को क्षतिपूर्ति : NALSA का लक्ष्य "यौन हमलों/ अन्य अपराधों की शिकार महिलाओं/ जीवित बचे लोगों के लिए क्षतिपूर्ति योजना" जैसी योजनाओं के माध्यम से यौन हमले या अन्य अपराधों की शिकार या पीड़ित महिलाओं को क्षतिपूर्ति और सहायता प्रदान करना है।
- क्षमता निर्माण: यह वकीलों के लिए मानकीकृत चयन प्रक्रिया को अनिवार्य करता है और विधिक सेवा वकीलों तथा पैरा-लीगल वालंटियर्स (PLVs) के लिए प्रशिक्षण मॉड्यूल विकसित करता है।
- जेल विधिक सहायता: लगभग सभी जेलों में जेल विधिक सहायता क्लिनिक (PLACs) के कामकाज की देखरेख करता है।
- विधिक सहायता और परामर्श: इसमें अधिवक्ता प्रतिनिधित्व, प्रक्रिया शुल्क का भुगतान, मसौदा तैयार करने और अनुवाद सहित दस्तावेजों की तैयारी तथा कार्यवाही में विधिक दस्तावेजों की प्रमाणित प्रतियां प्रदान करना शामिल है।
- जनहित याचिका (PIL): उदाहरण के लिए, NALSA ने एक जनहित याचिका (PIL) दायर की जिसके परिणामस्वरूप 2014 में उच्चतम न्यायालय का ऐतिहासिक निर्णय आया। इस निर्णय में ट्रांसजेंडर समुदाय के अधिकारों को मान्यता प्रदान की गई।
नोट: निःशुल्क विधिक सेवाओं में लाभार्थियों को केंद्र या राज्य सरकार की कल्याणकारी योजनाओं तक पहुंच बनाने में सहायता और परामर्श प्रदान करना भी शामिल है, ताकि उनकी न्याय तक समग्र पहुंच सुनिश्चित की जा सके।
भारत में विधिक सहायता से संबंधित चुनौतियां
- जागरूकता और विधिक साक्षरता का अभाव: केवल 15% ग्रामीण निवासी इन निःशुल्क विधिक सेवाओं के बारे में जानते हैं (NALSA रिपोर्ट 2022)।
- प्रतिनिधित्व की निम्न गुणवत्ता: अपर्याप्त पारिश्रमिक, उच्च कार्यभार आदि के कारण गरीबों को मिलने वाली विधिक सहायता प्रायः 'निम्न गुणवत्ता की विधिक सहायता' बन जाती है।
- अल्प-वित्तपोषण: विभाग से संबंधित संसदीय समिति की रिपोर्ट (2024) में संकेत मिलता है, कि भारत का प्रति व्यक्ति निःशुल्क विधिक सहायता व्यय अत्यधिक कम है, अर्थात प्रति वर्ष मात्र 0.75 रुपये प्रति व्यक्ति।
- डिजिटल विभाजन: यद्यपि टेली-लॉ जैसे तकनीकी कार्यक्रम मौजूद हैं, लेकिन निम्न डिजिटल साक्षरता और अपर्याप्त डिजिटल अवसंरचना के कारण ग्रामीण क्षेत्रों में उनकी प्रभावशीलता सीमित है।
- उदाहरण के लिए: शहरी क्षेत्रों में 67% की तुलना में ग्रामीण भारत के केवल 33% हिस्से के पास इंटरनेट तक पहुंच है।
- सीमित भौतिक पहुंच: ग्रामीण भारत में प्रत्येक 10,000 लोगों पर 1 वकील बनाम शहरी क्षेत्रों में प्रत्येक 1,000 लोगों पर 1 वकील, ग्रामीण क्षेत्रों में वकीलों की कम उपलब्धता को दर्शाता है।
निष्कर्ष
एक मजबूत विधिक सहायता प्रणाली के लिए बेहतर जन जागरूकता, परामर्श की बेहतर गुणवत्ता और संस्थागत क्षमता में वृद्धि की आवश्यकता है। प्रौद्योगिकी का उपयोग करना, PLVs को सशक्त बनाना और दुर्बल समूहों के लिए आवश्यकता-आधारित दृष्टिकोण अपनाने से न्याय तक पहुंच में सुधार हो सकता है।
लोक अदालत
|