भारत में किशोर न्याय प्रणाली (JUVENILE JUSTICE SYSTEM IN INDIA) | Current Affairs | Vision IAS
मेनू
होम

यूपीएससी सिविल सेवा परीक्षा के लिए प्रासंगिक राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय विकास पर समय-समय पर तैयार किए गए लेख और अपडेट।

त्वरित लिंक

High-quality MCQs and Mains Answer Writing to sharpen skills and reinforce learning every day.

महत्वपूर्ण यूपीएससी विषयों पर डीप डाइव, मास्टर क्लासेस आदि जैसी पहलों के तहत व्याख्यात्मक और विषयगत अवधारणा-निर्माण वीडियो देखें।

करंट अफेयर्स कार्यक्रम

यूपीएससी की तैयारी के लिए हमारे सभी प्रमुख, आधार और उन्नत पाठ्यक्रमों का एक व्यापक अवलोकन।

ESC

भारत में किशोर न्याय प्रणाली (JUVENILE JUSTICE SYSTEM IN INDIA)

23 Dec 2025
1 min

In Summary

रिपोर्ट में भारत में किशोर न्याय के परिणामों में सुधार लाने के लिए प्रणालीगत कमियों, असंगत कामकाज और क्षमता निर्माण, प्रौद्योगिकी एकीकरण और बाल-केंद्रित सुधारों की आवश्यकता पर प्रकाश डाला गया है।

In Summary

सुर्ख़ियों में क्यों?

हाल ही में इंडिया जस्टिस रिपोर्ट द्वारा "किशोर न्याय और कानून के उल्लंघन के आरोपित बालक: अग्रिम स्तर पर क्षमता का अध्ययन" नामक रिपोर्ट प्रकाशित की गई। इस रिपोर्ट में 'किशोर न्याय (बालकों की देखभाल और संरक्षण) अधिनियम 2015' (JJ Act, 2015) के लागू होने के दस वर्ष बाद भारतीय किशोर न्याय प्रणाली के कामकाज का मूल्यांकन किया गया है।

भारत में किशोर न्याय प्रणाली

  • यह किशोर न्याय (JJ) अधिनियम, 2015 पर आधारित है। इस अधिनियम ने किशोर न्याय अधिनियम, 2000 का स्थान लिया है। इसमें किशोर न्याय (बालकों की देखभाल और संरक्षण) संशोधन अधिनियम, 2021 द्वारा संशोधन किया गया था।
  • JJ अधिनियम, 2015 उन बालकों से संबंधित कानूनों को समेकित और संशोधित करता है जो 'कानून के उल्लंघन के आरोपी पाए जाते हैं और जिन्हें 'देखभाल और संरक्षण की आवश्यकता' होती है। यह उचित देखभाल, विकास और उपचार के माध्यम से उनकी बुनियादी जरूरतों को पूरा करता है।
    • इसमें 'बालक/बालिका (Child)' को ऐसे व्यक्ति के रूप में परिभाषित किया गया है जिसने 18 वर्ष की आयु पूर्ण नहीं की है, तथा 'किशोर (Juvenile)' को 18 वर्ष से कम आयु का बालक माना गया है।
    • 'कानून के उल्लंघन के आरोपित बालक (Child in conflict with law) का अर्थ 18 वर्ष से कम आयु का वह बालक है जिस पर किसी अपराध को करने का आरोप है या जिसे अपराध का दोषी पाया गया है।

किशोर न्याय (JJ) अधिनियम, 2015 के प्रमुख प्रावधान

  • किशोर न्याय बोर्ड (Juvenile Justice Board: JJB): यह कानून के उल्लंघन के आरोपित बालकों के मामलों से निपटने के लिए प्रत्येक जिले में JJB स्थापित करना अनिवार्य बनाता है।
  • अधिनियम के कार्यान्वयन की निगरानी: इसकी निगरानी राष्ट्रीय स्तर पर राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग (National Commission for Protection of Child Rights: NCPCR) और राज्य स्तर पर राज्य बाल अधिकार संरक्षण आयोग (State Commission for Protection of Child Rights: SCPCR) द्वारा की जाती है।
  • जघन्य अपराधों में प्रारंभिक मूल्यांकन: 16 वर्ष से अधिक आयु के बालक द्वारा किए गए कथित जघन्य अपराधों के मामले में, JJB बालक की मानसिक और शारीरिक क्षमता का आकलन करने के लिए एक प्रारंभिक मूल्यांकन करेगा।
    • प्रारंभिक मूल्यांकन के बाद, बाल न्यायालय यह तय कर सकता है कि बालक पर वयस्क (Adult) के रूप में मुकदमा चलाया जा सकता है या नहीं।
  • बाल कल्याण समिति (Child Welfare Committee: CWC): राज्य सरकार द्वारा प्रत्येक जिले के लिए गठित की जाती है। इसका कार्य संरक्षण की आवश्यकता वाले बालकों की देखभाल के लिए उपयुक्त व्यक्तियों की घोषणा हेतु जाँच करना और बालक को पालक देखभाल (Foster care) में रखने का निर्देश देना तथा अन्य संबंधित कार्यों का निष्पादन करना है।

किशोर न्याय प्रणाली से संबंधित मुद्दे

  • JJBs की असंगतता: वर्ष 2023–2024 तक देश में 765 जिलों में केवल 707 किशोर न्याय बोर्ड कार्यरत थे। मात्र 18 राज्यों तथा जम्मू-कश्मीर केंद्र शासित प्रदेश में प्रत्येक जिले में किशोर न्याय बोर्ड की स्थापना हो सकी थी।
  • JJBs की असमान क्षमता: 707 में से 470 JJBs के लिए किए गए एक विश्लेषण में पाया गया कि इनमें से 24% (अर्थात 111/470) बिना 'फुल बेंच' (पूर्ण पीठ) के काम कर रहे थे। इसके परिणामस्वरूप बालकों के प्रति संवेदनशील निर्णय-निर्माण में कमी एवं मामलों की अवधि में वृद्धि हुई है। साथ ही बालकों को लंबे समय तक संस्थागत आवास में रहना पड़ा है।
  • लंबित मामलों की संख्या में वृद्धि: संसाधनों की कमी के कारण 31 अक्टूबर 2023 तक 362 JJBs के समक्ष दायर 55% मामले लंबित थे। साथ ही, लंबित मामलों की दर में अत्यधिक भिन्नता है जहां ओडिशा में 83% मामले लंबित हैं तो कर्नाटक में 35% मामले लंबित हैं।
  • पर्यवेक्षण का अभाव: अभिरक्षा में रखे गए बालकों के पर्यवेक्षण में वैधानिक लक्ष्यों की पूर्ति नहीं हो रही है। बाल देखभाल संस्थानों (CCI) के मासिक निरीक्षण के कानूनी आदेश के बावजूद, 14 राज्यों और जम्मू-कश्मीर में अनिवार्य 1,992 निरीक्षणों के मुकाबले JJBs ने केवल 810 निरीक्षण किए गए हैं।
  • पर्यवेक्षण गृहों में उच्च संस्थानीकरण: अभिरक्षात्मक सुविधाओं में रखे गए कुल बालकों में से लगभग 83% पर्यवेक्षण गृहों में थे, जो जांच में होने वाले अत्यधिक विलंब को दर्शाता है।
  • सूचना तक सीमित पहुंच: वयस्क न्यायिक प्रणाली के लिए उपलब्ध 'राष्ट्रीय न्यायिक डेटा ग्रिड' (NJDG) की तरह किशोर मामलों के लिए कोई केंद्रीय सार्वजनिक भंडार (Repository) नहीं है।
  • अपर्याप्त निधि उपयोग: उपलब्ध किशोर न्याय निधियों के बावजूद, क्षमता की कमी और धनराशि के विलंबित निर्गमन के कारण अनेक राज्य आवंटनों का पूर्ण उपयोग नहीं कर पाते, जिससे वित्तीय प्रबंधन में निरंतर कमियां बनी रहती हैं और बालकों के लिए अपेक्षित परिणाम नहीं मिल पाते हैं।

किशोर न्याय प्रणाली से संबंधित महत्वपूर्ण न्यायिक-निर्णय

  • शीला बरसे बनाम भारत संघ वाद (1986): इस मामले में उच्चतम न्यायालय ने निर्देश दिया कि जिला एवं सत्र न्यायाधीश नियमित रूप से सुधार गृहों का दौरा करें ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि अभिरक्षा में रखे गए किशोर बालकों के अधिकारों का उल्लंघन तो नहीं हो रहा है।
  • संपूर्ण बेहूरा बनाम भारत संघ वाद (2005): उच्चतम न्यायालय ने सभी राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों को निर्देश दिया कि वे मामलों के बैकलॉग को रोकने के लिए किशोर न्याय बोर्डों (JJBs) और बाल कल्याण समितियों (CWCs) की स्थापना और उनका सुचारू कामकाज सुनिश्चित करें।

 

किशोर न्याय प्रणाली को मजबूत करने के लिए आगे की राह

  • इंडिया जस्टिस रिपोर्ट की सिफारिशें:
    • JJB की क्षमता को मजबूत करना: न्यायाधीशों, अधीक्षकों, परिवीक्षा अधिकारियों, परामर्शदाताओं तथा विधिक सहायता अधिवक्ताओं जैसे प्रमुख पदों पर पर्याप्त एवं प्रशिक्षित मानव संसाधन की नियुक्ति सुनिश्चित की जाए।
    • दक्षता बढ़ाने के लिए तकनीक का उपयोग करना: डिजिटल केस-मैनेजमेंट सिस्टम तथा केंद्रीकृत डेटाबेस की स्थापना करके पुलिस, न्यायालयों और बाल देखभाल संस्थानों (CCI) को आपस में जोड़ा जाना चाहिए, ताकि कानून के उल्लंघन के आरोपित बालकों की प्रभावी निगरानी हो सके और उनके सर्वोत्तम हितों की रक्षा सुनिश्चित की जा सके।
    • प्रशिक्षण को प्राथमिकता देना: संबंधित सभी कार्मिकों के लिए नियमित प्रशिक्षण कार्यक्रम आयोजित किए जाएं तथा समय-समय पर उनके कार्य-निष्पादन का मूल्यांकन किया जाए।
  • फास्ट-ट्रैक किशोर न्यायालयों की स्थापना करना: मुकदमों के लंबित रहने के कारण बालकों को लंबे समय तक अभिरक्षा में रखने से बचाने के लिए फ़ास्ट-ट्रैक कोर्ट का गठन किया जाना चाहिए।
  • सख्त निगरानी और जवाबदेही तंत्र: किशोर संस्थानों के भीतर मानवाधिकारों के उल्लंघन, दुर्व्यवहार या शोषण को रोकने के लिए जवाबदेही सुनिश्चित करने की आवश्यकता है।
  • किशोरों के साथ व्यवहार: पुलिस थानों और न्यायालयों में विशेष 'किशोर न्याय इकाइयां' स्थापित की जानी चाहिए। इससे मामलों को संवेदनशीलता के साथ निपटाया जा सकेगा और उचित कानूनी प्रक्रिया का पालन सुनिश्चित होगा।

निष्कर्ष

भारत की किशोर न्याय प्रणाली को मजबूत करने के लिए केवल नियमों के पालन वाली मानसिकता से हटकर एक ऐसी 'बाल-केंद्रित' और 'अधिकार-आधारित' संरचना को अपनाने की आवश्यकता है, जो प्रतिशोध के बजाय पुनर्वास को प्राथमिकता दे। किशोर न्याय बोर्डों में अक्षमता को दूर करना, पारदर्शिता और केस ट्रैकिंग के लिए तकनीक का उपयोग करना तथा नियमित प्रशिक्षण एवं निगरानी को संस्थागत बनाना, कानून के उल्लंघन के आरोपित बालकों के भविष्य में सार्थक सुधार ला सकता है।

Title is required. Maximum 500 characters.

Search Notes

Filter Notes

Loading your notes...
Searching your notes...
Loading more notes...
You've reached the end of your notes

No notes yet

Create your first note to get started.

No notes found

Try adjusting your search criteria or clear the search.

Saving...
Saved

Please select a subject.

Referenced Articles

linked

No references added yet

Subscribe for Premium Features