शक्तियों का पृथक्करण (SEPARATION OF POWERS) | Current Affairs | Vision IAS
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शक्तियों का पृथक्करण (SEPARATION OF POWERS)

Posted 01 Jun 2025

Updated 28 May 2025

26 min read

सुर्ख़ियों में क्यों?

हाल ही में, भारत के उपराष्ट्रपति ने शक्तियों के पृथक्करण के सिद्धांत पर जोर देते हुए कहा कि लोकतंत्र में शासन संचालन केवल कार्यपालिका (सरकार) द्वारा होना चाहिए। इसका कारण यह है कि लोकतांत्रिक सरकार लोगों द्वारा चुनी जाती है और उनके प्रति जवाबदेह होती है।

अन्य संबंधित तथ्य

  • उपराष्ट्रपति ने इस बात पर जोर दिया कि शक्तियों के पृथक्करण के सिद्धांत के तहत सरकार के तीनों अंगों को एक-दूसरे के अधिकार क्षेत्र में प्रवेश करने से रोकने के लिए जिम्मेदारियों का स्पष्ट निर्धारण आवश्यक है।
  • उन्होंने कहा कि विधायिका, कार्यपालिका या न्यायपालिका द्वारा एक-दूसरे के अधिकार क्षेत्र में किसी भी प्रकार का प्रवेश या अतिक्रमण चुनौती उत्पन्न करता है।

शक्तियों के पृथक्करण के पीछे का विचार

  • विचार: शक्तियों के पृथक्करण का अर्थ है सरकार की तीन शाखाओं - कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका- में अधिकारों एवं कर्तव्यों का स्पष्ट विभाजन।
    • कार्यपालिका विधायिका द्वारा बनाए गए या अधिनियमित कानूनों को लागू करती है और सरकार के प्रशासन के लिए जिम्मेदार होती है।
    • विधायिका कानून बनाने वाली संस्था है। इसका मुख्य कार्य देश के शासन के लिए कानून बनाना, पुराने कानूनों में संशोधन करना या उन्हें निरस्त करना है। साथ ही, विधायिका, कार्यपालिका की जवाबदेही तय करती है और उसकी गतिविधियों पर नियंत्रण रखती है एवं जांच करती है।
    • न्यायपालिका का मुख्य कार्य न्याय प्रशासन, कानूनों की व्याख्या करना और संविधान की रक्षा करना है।
  • उत्पत्ति: अरस्तू ने पहली बार सरकार के कार्यों को अग्रलिखित तीन श्रेणियों में वर्गीकृत किया था: सामान्य मामलों से संबंधित विचार-विमर्श, मजिस्ट्रेट संबंधी और न्यायिक।
    • हालांकि, शक्तियों के पृथक्करण के सिद्धांत का आधुनिक प्रतिपादक फ्रांसीसी न्यायविद 'मोंटेस्क्यू' को माना जाता है।
  • आधुनिक सिद्धांत: मांटेस्क्यू ने अपनी पुस्तक 'द स्पिरिट ऑफ द लॉज (1748)' में शक्तियों के पृथक्करण के सिद्धांत को प्रतिपादित और स्पष्ट किया है।

भारत में शक्तियों का पृथक्करण

  • नाजुक संतुलन: भारतीय संविधान शक्तियों के सीमित पृथक्करण के एक नाजुक संतुलन पर आधारित है। इसमें विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका के बीच कार्यों का विभाजन किया गया है। साथ ही, उनके बीच नियंत्रण एवं संतुलन को बनाए रखा गया है, ताकि एक-दूसरे के कार्यों का अतिक्रमण न किया जा सके।
    • विधायिका कानून बनाने के लिए उत्तरदायी है, कार्यपालिका कानून को लागू करने के लिए जिम्मेदार है और न्यायपालिका कानूनों की व्याख्या करने एवं विवादों को सुलझाने के लिए जिम्मेदार है।
  • एक-दूसरे के कार्यों का आपस में टकराव (Functional Overlap): भारतीय संविधान सरकार के तीनों अंगों के बीच शक्तियों का स्पष्ट रूप से विभाजन नहीं करता है। इस कारण कुछ मामलों में इन अंगों के कार्यों का आपस में टकराव होता है। उदाहरण के लिए-
    • राष्ट्रपति, कार्यपालिका का प्रमुख होने के बावजूद, संविधान के अनुच्छेद 123 के अनुसार अध्यादेश जारी करने जैसी विधायी शक्तियों का प्रयोग कर सकता है।
    • विधायिका भी कई मामलों में न्यायिक कार्य करती है, जैसे- राष्ट्रपति और न्यायाधीशों को पद से हटाना या अपने विशेषाधिकार के उल्लंघन से संबंधित मामले में खुद ही निर्णय लेना, आदि।
    • न्यायपालिका कभी-कभी कार्यपालिका को दिशा-निर्देश जारी करती है और कुछ मामलों में विधायी संशोधन से जुड़े सुझाव भी देती है, जिससे वह विधायी और कार्यकारी शक्तियों का उपयोग करती हुई प्रतीत होती है।
  • मूल ढांचे का हिस्सा: सुप्रीम कोर्ट ने माना है कि शक्तियों के पृथक्करण का सिद्धांत संविधान के मूल ढांचे का हिस्सा है।
  • सरकार के विभिन्न अंगों के बीच संघर्ष:
    • न्यायिक हस्तक्षेप: कई बार सुप्रीम कोर्ट अपने निर्णयों के माध्यम से विधायिका के कार्य क्षेत्र में घुसपैठ करता है।
      • उदाहरण के लिए- सुप्रीम कोर्ट ने निर्णय दिया कि राज्यपाल द्वारा राष्ट्रपति की स्वीकृति के लिए सुरक्षित रखे गए राज्य विधेयकों पर राष्ट्रपति को तीन महीने के भीतर निर्णय लेना होगा।
  • विधायिका द्वारा अतिक्रमण: कई बार विधायिका ऐसे कानून बनाती है, जो सरकार के अन्य अंगों के अधिकारों एवं शक्तियों का अतिक्रमण करते हैं, जैसे कि राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग (National Judicial Appointments Commission: NJAC) अधिनियम। इस अधिनियम के तहत न्यायाधीशों की नियुक्ति की सिफारिश करने वाली समिति में केंद्रीय कानून मंत्री और दो प्रतिष्ठित व्यक्ति शामिल किए गए थे।
  • कार्यपालिका द्वारा अतिक्रमण: कई अधिकरणों (ट्रिब्यूनल्स) में कार्यपालिका के सदस्यों का बहुमत होता है। यह शक्तियों के पृथक्करण के सिद्धांत की अवहेलना करता है। साथ ही, लगातार अध्यादेश जारी करने से कानून बनाने की विधायिका की शक्ति की उपेक्षा होती है।

निष्कर्ष

शक्ति के पृथक्करण का उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि सत्ता का केंद्रीकरण सरकार के किसी एक अंग के हाथ में न हो, ताकि व्यक्तियों की स्वतंत्रता और आजादी सुरक्षित रहे। हालांकि, सरकार के अंग पूरी तरह से अलग-अलग ढंग से कार्य नहीं कर सकते; वे वास्तव में आपसी सहयोग और एक-दूसरे के सम्मान के साथ कार्य करते हैं ताकि कोई एक अंग दूसरे के कार्यों का अतिक्रमण न कर सके। इस प्रकार, कुछ कार्यात्मक टकराव और पर्याप्त नियंत्रण एवं संतुलन के साथ शक्तियों का व्यापक पृथक्करण लोकतंत्र को सशक्त बनाता है। 

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  • शक्तियों का पृथक्करण
  • द स्पिरिट ऑफ द लॉज (1748)
  • मोंटेस्क्यू
  • राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग
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