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मृत्युदंड और नैतिक आयाम

Posted 01 Jun 2025

Updated 29 May 2025

50 min read

परिचय

ऐतिहासिक रूप से, लगभग सभी समाजों में जघन्य अपराधों को रोकने के लिए मृत्युदंड या प्राणदंड का उपयोग किया जाता था। 20वीं सदी के मध्य से, मानवाधिकार आंदोलनों के कारण लगभग 170 देशों में मृत्युदंड को समाप्त कर दिया गया है या इस पर रोक लगा दी गई है। इसके बावजूद, एमनेस्टी इंटरनेशनल की 2024 की एक रिपोर्ट के अनुसार चीन, ईरान, सऊदी अरब और सिंगापुर जैसे देशों में फांसी की सजा के मामलों में 32% की वृद्धि दर्ज की गई है। ऐसे में, मृत्युदंड आधुनिक आपराधिक न्याय प्रणाली और नैतिकता के संदर्भ में एक अत्यंत विवादास्पद विषय बन गया है।

प्रमुख हितधारक और उनकी चिंताएं
हितधारकहित और चिंताएं
दोषी व्यक्तिजीवन जीने का अधिकार, निष्पक्ष सुनवाई और उचित प्रक्रिया का अधिकार, भेदभाव, अपरिवर्तनीय सजा, मनोवैज्ञानिक तनाव, आदि। 
पीड़ितों के परिवारन्याय और संतोष, बदला लेने की भावना (सजा) और सुलह-संवाद आधारित न्याय, लंबी कानूनी प्रक्रिया, आदि।
कानूनी और न्यायिक प्रणालियांनिष्पक्ष सुनवाई सुनिश्चित करना, संवैधानिक मूल्यों को बनाए रखना, मानवाधिकारों के साथ गतिरोध को संतुलित करना, गलती को सुधारा नहीं जा सकता है।
मानवाधिकार संगठनप्रतिशोध के बजाय सुधार को वरीयता देना, मानवीय गरिमा, जीवन का अधिकार और न्यायिक त्रुटियों की संभावना।
सरकार और नीति निर्माताजनमत का दबाव, अंतर्राष्ट्रीय दायित्व, निवारक के रूप में मृत्युदंड की प्रभावशीलता का पता लगाना।

मृत्युदंड और इसके पीछे का दर्शन?

  • मृत्युदंड उस सजा को कहते हैं जिसमें किसी अपराधी को उसके आपराधिक कृत्य के लिए अदालत द्वारा दोषी ठहराए जाने पर मृत्यु की सजा दी जाती है। यह एक ऐसा दंड है जिसमें अपराधी के जीवन को समाप्त कर दिया जाता है।
  • यह प्रतिशोधात्मक न्याय (Retributive Justice) के सिद्धांत पर आधारित है।
    • प्रतिशोध की अवधारणा के तहत, सजा का उद्देश्य अपराध को नियंत्रित करना या रोकना नहीं बल्कि गलत को सुधारना है, और सजा की प्रकृति अपराध की गंभीरता पर आधारित होती है।
  • भारतीय न्याय संहिता (BNS) में, मृत्युदंड या प्राणदंड, मुख्य रूप से हत्या से संबंधित अपराधों के लिए धारा 103 और 104 में उल्लिखित है।

भारत में मृत्युदंड की सजा का क्रम विकास

  • प्राचीन भारत: हिंदू विधि के तहत विभिन्न रूपों में मनुस्मृति और अर्थशास्त्र जैसे ग्रंथों में मृत्युदंड का उल्लेख है।
    • हत्या, राजद्रोह या सामाजिक मानदंडों का उल्लंघन जैसे अपराधों के लिए अक्सर कठोर दंड दिए जाते थे, जैसे- सिर को धड़ से अलग कारना, यातना देना या पानी में डुबोना।
    • हालांकि, सजा देने का तरीका क्षेत्र, शासक और जाति के अनुसार भिन्न होता था। कुछ ग्रंथों में कम गंभीर अपराधों के लिए देश निकाला या जुर्माना जैसी वैकल्पिक सजा भी दी जाती थी।
  • मध्यकालीन भारत:
    • मुगल और अन्य क्षेत्रीय साम्राज्यों के शासन में इस्लामी कानून (शरीयत) के तहत विद्रोह, हत्या और चोरी जैसे गंभीर अपराधों के लिए मृत्युदंड प्रचलित था। 
    • वहीं, हिंदू साम्राज्यों ने मनुस्मृति आधारित परंपरागत कानूनों का पालन जारी रखा, जिनमें स्थानीय रिवाजों के अनुसार दंडों में भिन्नता पाई जाती थी।
  • आधुनिक भारत:
    • औपनिवेशिक काल: अंग्रेजों ने 1860 में भारतीय दंड संहिता (IPC) के तहत मृत्युदंड को औपचारिक रूप दिया। यह सजा हत्या, राजद्रोह और हत्या के साथ डकैती जैसे अपराधों के लिए निर्धारित की गयी थी।
      • इस प्रकार, फांसी सार्वजनिक स्थानों के बजाय जेलों में दी जाने लगी।
    • स्वतंत्रता के बाद: IPC के तहत मृत्युदंड की सजा जारी रही, मुख्य रूप से जघन्य अपराधों के लिए। हालांकि, अनुच्छेद 21 के तहत संविधान इसके लिए विधि की सम्यक् प्रक्रिया (Due process of law) सुनिश्चित करता है।

मृत्युदंड के पक्ष में तर्क

  • निवारक उपाय: उपयोगितावाद (परिणामवादी नैतिकता) के सिद्धांत के आधार पर, कुछ विद्वानों का तर्क है कि मृत्युदंड गंभीर अपराधों को रोकता है। इससे समाज की रक्षा होती है और भविष्य में होने वाले अपराधों में कमी भी आती है।
  • प्रतिशोधात्मक न्याय: इस सिद्धांत के अनुसार, अपराधियों को उनके अपराध के अनुपात में सजा मिलनी चाहिए। इसके लिए अक्सर "आँख के बदले आँख" के सिद्धांत का उदाहरण दिया जाता है।
  • आपराधिक पुनरावृत्ति की रोकथाम: मृत्युदंड के कुछ समर्थक तर्क देते हैं कि जिन्हें फांसी दी जाती है वे आगे अपराध नहीं कर सकते हैं। इस प्रकार भविष्य में अपराध दर कम हो जाती है।
  • मानसिक शांति और संतुष्टि: अक्सर यह तर्क दिया जाता है कि मृत्युदंड पीड़ितों के परिवारों के लिए मानसिक शांति प्रदान करता है।
  • सार्वजनिक वित्त पर बोझ: उच्च जोखिम वाले, हिंसक अपराधियों को सुरक्षा के साथ जेलों में रखना सरकार के लिए महंगा साबित होता है।

मृत्युदंड के विपक्ष में तर्क

  • मानवाधिकारों का उल्लंघन: कान्ट की कर्त्तव्य-मूलक नैतिकता (Deontological Ethics) के अनुसार, कुछ कृत्य (जैसे- किसी का जीवन लेना) नैतिक रूप से गलत होते हैं, भले ही उनके परिणाम अच्छे क्यों न हों।
  • ठीक न की जा सकने वाली त्रुटि और भेदभाव का जोखिम: न्याय व्यवस्था कभी भी पूरी तरह से गलतियों से मुक्त नहीं होती है। कभी-कभी निर्दोष व्यक्ति को गलत तरीके से दोषी ठहरा दिया जाता है। अगर किसी व्यक्ति को फांसी दे दी जाती है, तो इसे पलट नहीं सकते। यदि बाद में यह साबित हो जाए कि व्यक्ति निर्दोष था, तो मृत्युदंड एक ऐसी सजा है जिसे कभी ठीक नहीं किया जा सकता।
  • अपराध निवारण और विकल्पों की कमी: इस बात का बहुत कम प्रमाण है कि मृत्युदंड अपराध को रोकने में आजीवन कारावास से अधिक प्रभावी है।
    • कुछ अध्ययनों से यह भी पता चला है कि मृत्युदंड का विपरीत प्रभाव पड़ सकता है, क्योंकि कुछ मामलों में अपराधियों ने पीड़ितों को गवाही देने से रोकने और मृत्युदंड की सजा से बचने के लिए उन्हें मारने की कोशिश की है।

भारत में मृत्युदंड

  • कानूनी फ्रेमवर्क: भारतीय न्याय संहिता आतंकवाद, लोक सेवकों की हत्या, बलात्कार जैसे हिंसक और जघन्य अपराधों के लिए मृत्युदंड का प्रावधान करती है।
  • न्यायिक सिद्धांत: सुप्रीम कोर्ट ने बच्चन सिंह बनाम पंजाब राज्य (1980) मामले में "दुर्लभ से दुर्लभतम" सिद्धांत दिया और कहा कि मृत्युदंड उन अपराधों के लिए होना चाहिए जो इतने जघन्य हों कि वे समाज की सामूहिक अंतरात्मा को झकझोर दें।
    • मच्छी सिंह बनाम पंजाब राज्य वाद: इसके तहत न्यायालय द्वारा कुछ मानदंड निर्धारित किए गए थे, ताकि यह आकलन किया जा सके कि वास्तव में दुर्लभ से दुर्लभतम सिद्धांत के अंतर्गत कौन-से अपराध आ सकते हैं।
  • राष्ट्रपति और राज्यपाल की क्षमादान की शक्ति: एक बार जब अपील की प्रक्रिया समाप्त हो जाती है और उच्चतर न्यायालयों ने प्रतिवादी (दोषी) के लिए मृत्युदंड की पुष्टि कर दी हो, तो प्रतिवादी राज्य या राष्ट्रीय कार्यपालिका को दया याचिकाएं प्रस्तुत कर सकता है।
  • वर्तमान स्थिति: भारत में 500 से अधिक लोग मृत्युदंड की सजा का इंतजार कर रहे हैं, लेकिन  फांसी की सजा अब दुर्लभ हो गई है। कोर्ट ने अधिकतर मामलों में मृत्युदंड को आजीवन कारावास की सजा में बदल दिया है, जो सजग दृष्टिकोण को दर्शाता है। आखिरी बार वर्ष 2020 में निर्भया केस के दोषियों को फांसी दी गई थी।

 

आगे की राह

  • संतुलन की आवश्यकता: मृत्युदंड पर बहस में आरोपी के अधिकारों, पीड़ितों के हितों और समाज की न्याय और निवारण की आवश्यकता को संतुलित करना जरूरी है।
  • केवल प्रतिशोध को प्राथमिकता देने से न्याय के सुधारात्मक और पुनर्वास संबंधी पहलू की उपेक्षा हो सकती है, जो एक निष्पक्ष और मानवीय कानूनी प्रणाली के लिए महत्वपूर्ण है।
  • विधि आयोग की सिफारिश: 262वीं विधि आयोग की रिपोर्ट (2015) ने आतंकवाद और संबंधित अपराधों को छोड़कर सभी अपराधों के लिए मृत्युदंड को समाप्त करने की सिफारिश की थी। आयोग ने कहा कि मृत्युदंड का निवारक प्रभाव सीमित है और न्यायिक गलतियों का खतरा भी है।
  • अंतर्राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य: नागरिक और राजनीतिक अधिकारों पर अंतर्राष्ट्रीय प्रतिज्ञा-पत्र (ICCPR) का अनुच्छेद 6 केवल "सबसे गंभीर अपराधों" के लिए मृत्युदंड की अनुमति देता है और इसे समाप्त करने के लिए भी प्रोत्साहित करता है।
  • मानवाधिकार संगठन: मानवाधिकार संगठन यह सिफारिश करते हैं कि न्याय व्यवस्था को पीड़ित-केंद्रित बनाया जाए और पुनर्स्थापनात्मक न्याय पर जोर दिया जाए। पुनर्स्थापनात्मक न्याय में अपराधी को सुधारने और समाज में फिर से जगह बनाने के लिए काम किया जाता है।

निष्कर्ष

1948 में मानवाधिकारों की सार्वभौम घोषणा-पत्र (UNDHR) को अपनाने के बाद से, दुनिया भर में मृत्युदंड के खिलाफ एक बड़ा रुझान देखा गया है। इसके बावजूद, कई देशों में मृत्युदंड अभी भी लागू है, और यह अक्सर अन्यायपूर्ण मुकदमों, राजनीतिक दमन या गैर-हिंसक अपराधों के लिए इस्तेमाल किया जाता है। इस प्रकार, न्याय और जीवन के सम्मान को सुनिश्चित करने के लिए मानवीय और साक्ष्य-आधारित विकल्पों की आवश्यकता होती है।

अपनी नैतिक अभिक्षमता का परीक्षण कीजिए

रवि, एक 28 वर्षीय व्यक्ति है, जिसे एक हाई-प्रोफाइल मामले में एक पुलिस अधिकारी की पूर्व-नियोजित और क्रूर हत्या के मामले में दोषी ठहराया गया है, जिसे मीडिया में व्यापक कवरेज मिला है। ट्रायल कोर्ट ने उसे भारतीय न्याय संहिता के प्रासंगिक प्रावधानों के तहत मौत की सजा सुनाई है। मारे गए अधिकारी का परिवार फांसी के माध्यम से न्याय और मामले के निस्तारण की मांग कर रहा है, जबकि कई मानवाधिकार संगठन सजा को आजीवन कारावास में बदलने के लिए याचिका दायर कर रहे हैं, जिसमें सजा की अपरिवर्तनीय प्रकृति और मृत्युदंड के उन्मूलन की ओर वैश्विक रुझान का हवाला दिया गया है। रवि मुकदमे और अपील की प्रक्रिया के दौरान पहले ही 3 साल कारागार में व्यतीत कर चुका है, और उसका मानसिक स्वास्थ्य स्पष्ट रूप से बिगड़ गया है। उसके वकील का तर्क है कि सजा उसके जीवन और गरिमा के मौलिक अधिकार का उल्लंघन करती है।

आप विधि और न्याय मंत्रालय में एक वरिष्ठ अधिकारी हैं, जिन्हें सरकार को यह सलाह देने का काम सौंपा गया है कि सजा को बरकरार रखा जाए या दया की सिफारिश की जाए।

उपर्युक्त केस स्टडी के आधार पर, एक वरिष्ठ अधिकारी के रूप में निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर दीजिए:

  1. इस मामले में शामिल नैतिक दुविधाओं की पहचान कीजिए।
  2. इस परिदृश्य में मृत्युदंड से संबंधित प्रतिस्पर्धी मूल्यों और नैतिक दर्शनों (जैसे- उपयोगितावाद बनाम कर्त्तव्य-मूलक नैतिकता) पर चर्चा कीजिए।
  3. इस मामले में प्रमुख हितधारक कौन-कौन हैं? संक्षेप में उनके दृष्टिकोण और नैतिक चिंताओं की रूपरेखा तैयार कीजिए।
  4. यदि आप अंतिम निर्णय लेने की स्थिति में होते, तो आपकी सिफारिश क्या होती और क्यों? नैतिक सिद्धांतों, संवैधानिक मूल्यों और प्रासंगिक कानूनी सिद्धांतों का उपयोग करके अपने उत्तर को उचित ठहराएं।
  5. मृत्युदंड का सहारा लिए बिना न्याय और सार्वजनिक विश्वास सुनिश्चित करने के लिए वैकल्पिक उपाय सुझाएं।
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