यह बिल 18 वर्ष से ऊपर के ऐसी लाइलाज बीमारी (टर्मिनली इल) वयस्कों को असिस्टेड डाइंग यानी सहायता प्राप्त मृत्यु की अनुमति देता है, जिन्हें डॉक्टरों द्वारा यह बताया गया हो कि वे 6 महीने से अधिक नहीं जी पाएंगे।
- हालांकि, मृत्यु का चयन करने वाले रोगी का मानसिक रूप से स्वस्थ होना अनिवार्य है।
असिस्टेड डाइंग क्या है?
- असिस्टेड डाइंग उस स्थिति को कहते हैं, जब कोई लाइलाज बीमारी से पीड़ित मरीज डॉक्टर से जानलेवा दवा स्वयं लेकर अपना जीवन समाप्त करता है।
- इसके विपरीत, इच्छामृत्यु (Euthanasia) में डॉक्टर स्वयं मरीज को जानलेवा दवा देकर उसका जीवन समाप्त करता है, चाहे वह मरीज अंतिम अवस्था में हो या न हो। इसका उद्देश्य केवल मरीज की पीड़ा को खत्म करना होता है।
असिस्टेड डाइंग से जुड़ी प्रमुख नैतिक दुविधाएं
- रोगी की गरिमा का सम्मान बनाम जीवन की पवित्रता:
- असिस्टेड डाइंग इस विचार को मान्यता देती है कि मरीज को अपनी मृत्यु के मामले में निर्णय लेने का अधिकार है। विचारक जे.एस. मिल इसे "रिफ्लेक्टिव ऑटोनॉमी” (विचारशील स्वायत्तता)" मानते हैं यानी सोच-समझकर लिया गया निर्णय।
- दूसरी ओर, धार्मिक मान्यता यह है कि जीवन ईश्वर का दिया हुआ है, और केवल वही इसे समाप्त करने का अधिकार रखता है।
- चिकित्सा नैतिकता से टकराव: डॉक्टर्स का मूल कर्तव्य जीवन को बचाना होता है। इसलिए किसी की मृत्यु में सहायता करना उसके "हिप्पोक्रेटिक ओथ" के खिलाफ है, जिसमें कहा गया है कि डॉक्टर को कभी भी जानबूझकर किसी को हानि नहीं पहुंचानी चाहिए।
- दुरुपयोग का जोखिम: यह आशंका रहती है कि कहीं इसका गलत उपयोग न हो जाए जैसे-किसी के अंग निकालने के लिए या किसी स्वार्थवश मरीज को मरने के लिए प्रेरित करना।
- वास्तविक स्वेच्छाधीनता पर खतरा: कुछ शारीरिक रूप से अक्षम या आर्थिक रूप से कमजोर लोग खुद को परिवार पर बोझ समझकर सामाजिक दबाव में आकर यह रास्ता चुन सकते हैं, भले ही वह उनका वास्तविक स्वैच्छिक निर्णय न हो।