‘भगवद्गीता’ भारतीय दर्शन का एक पवित्र धर्मग्रंथ है। संस्कृत में रचित यह ग्रंथ भारतीय महाकाव्य ‘महाभारत’ का अभिन्न अंश है।
- इसे काव्य रूप में प्रस्तुत की गई है। इसका संकलन लगभग 200 ईसा पूर्व में हुआ था।
- यह भगवान श्री कृष्ण और अर्जुन के बीच कुरुक्षेत्र की युद्धभूमि में हुए संवाद का संग्रह है।
- हाल ही में भगवद्गीता पांडुलिपि को “यूनेस्को मेमोरी ऑफ द वर्ल्ड इंटरनेशनल रजिस्टर” में सूचीबद्ध किया गया है।
भगवद्गीता की नैतिक शिक्षाओं की वर्तमान में प्रासंगिकता
- कर्म कर और फल की चिंता मत कर: यह शिक्षा “निष्काम कर्म” के दर्शन द्वारा अभिव्यक्त होती है। यह दर्शन बताता है कि मनुष्य का अधिकार केवल अपने कर्म पर है, उस कर्म के फल पर नहीं—चाहे फल यानी परिणाम मनोनुकूल हो या प्रतिकूल।
- यह सकाम कर्म के दर्शन के विपरीत है, जिसमें किसी विशेष फल की इच्छा से प्रेरित होकर कर्म किए जाते हैं।
- समाज और व्यक्ति के कल्याण का समन्वय: भगवद्गीता धर्म और व्यवस्था संरक्षित रखने; लोक-संग्रह के माध्यम से समरसता, एकता और सार्वभौमिक कल्याण की स्थापना करने जैसे व्यापक सामाजिक और वैश्विक लक्ष्यों पर बल देती है।
- भावनात्मक स्तर पर धैर्य बनाए रखना: भगवद्गीता “स्थितप्रज्ञ” का उपदेश देती है। स्थितप्रज्ञ से आशय उस व्यक्ति से है जो भावनात्मक रूप से धैर्यवान, विपरीत परिस्थितियों से प्रभावी ढंग से निपटने वाला, परिवर्तन के अनुरूप ढलने वाला और मानसिक स्वास्थ्य को सेहतमंद रखने वाला हो।
- नेतृत्व-कौशल का विकास: भगवद्गीता ‘स्वधर्म’—अर्थात व्यक्ति द्वारा अपने कर्तव्य या धर्म के पालन पर विशेष जोर देती है।
- अन्य शिक्षाएं:
- निर्णय लेने की क्षमता (Decisiveness): भगवद्गीता अनिर्णय को निर्बल पक्ष और निर्णय लेने में स्पष्टता को सबल पक्ष के रूप में देखती है।
- विनम्रता: अपनी सीमाओं का ज्ञान।