GST परिषद और नीति आयोग जैसी संस्थाएं वार्ता के लिए मंच प्रदान करती हैं,। ये संस्थाएं भारत की लोकतांत्रिक सफलता के मूल सिद्धांत "स्वशासन और साझा शासन" को मजबूत करते हैं।
भारत का संवैधानिक ढांचा: शक्ति संतुलन
- संघीय विशेषताएं:
- लिखित संविधान: भारत का संविधान एक लिखित दस्तावेज है, जिसमें संशोधन की स्पष्ट प्रक्रिया दी गई है।
- द्वि-स्तरीय शासन व्यवस्था: शासन प्रणाली दो स्तरों पर संचालित होती है- केंद्र और राज्य स्तर।
- द्विसदनीय व्यवस्था: राज्य सभा राज्यों के हितों और आकांक्षाओं का प्रतिनिधित्व करती है। यह लोक सभा में संभावित बहुमतवाद (majoritarianism) को नियंत्रित करने का भी काम करती है। इसका अर्थ है कि जब लोक सभा में किसी दल का व्यापक बहुमत होता है, तब भी लोक सभा में बहुमत द्वारा पारित कानून की राज्य सभा में भी जांच-परख की जाती है।
- शक्तियों का विभाजन: संविधान की अनुसूची VII के अंतर्गत तीन सूचियों के माध्यम से केंद्र और राज्यों के बीच विधायी शक्तियों का विभाजन किया गया है।
- एकात्मक विशेषताएं
- सशक्त केंद्र: शक्तियों का विभाजन केंद्र सरकार के पक्ष में अधिक है। उदाहरण के लिए- समवर्ती सूची में शामिल विषयों पर संसद द्वारा बनाए गए कानूनों को प्राथमिकता दी जाती है।
- एकल संविधान और नागरिकता: पूरे देश में सभी नागरिकों पर एक समान कानून और अधिकार लागू होते हैं।
- राज्यों पर संसद का प्राधिकार: अनुच्छेद 3 संसद को राज्यों की सहमति के बिना राज्यों के नाम, क्षेत्र और सीमाओं को बदलने का अधिकार देता है।
- अन्य: इसमें एकीकृत न्यायपालिका, अखिल भारतीय सेवाएं, आपातकालीन शक्तियां, अंतर्राष्ट्रीय संधियों से संबंधित बाध्यताओं को पूरा करने हेतु संसद द्वारा कानून बनाने का अधिकार, आदि शामिल हैं।
संघीय ढांचे के समक्ष मौजूदा दौर की चुनौतियां
- राजकोषीय केंद्रीकरण: उदाहरण के लिए- GST के लागू होने से राज्यों की वित्तीय स्वायत्तता प्रभावित हुई है।
- प्रशासनिक और राजनीतिक केंद्रीकरण: उदाहरण के लिए- कोविड-19 वैश्विक महामारी के दौरान आपदा प्रबंधन अधिनियम का उपयोग करके 'राज्यों से न्यूनतम परामर्श' के साथ राष्ट्रव्यापी लॉकडाउन लगाया गया।
- अन्य: इसमें राज्यपाल द्वारा राष्ट्रपति की मंजूरी के लिए विधेयक को रोक कर रखना, केंद्रीय वित्त आयोग की सिफारिश पर कर एवं राजस्व का हस्तांतरण करना, आदि शामिल हैं।
निष्कर्ष
नीति आयोग जैसे संस्थान, “टीम इंडिया” की भावना को दर्शाते हुए केंद्र और राज्यों को राष्ट्र निर्माण के समान भागीदार के रूप में जोड़ते हैं। ऐसे संस्थान एक ऐसा सार्थक संतुलन विकसित कर सकते हैं, जो एकता और क्षेत्रीय स्वायत्तता, दोनों के बीच सामंजस्य स्थापित करे तथा उभरती विकासात्मक चुनौतियों का समाधान खोजने में सहायक बने।