हाल ही में, RBI गवर्नर ने स्पष्ट किया है कि सरकार ने अब तक डी-डॉलराइजेशन की दिशा में कदम नहीं उठाया है। भारत वर्तमान में अपने घरेलू व्यापार को भू-राजनीतिक अस्थिरता से उत्पन्न जोखिम से मुक्त करने पर ध्यान केंद्रित कर रहा है।
डी-डॉलराइजेशन क्या है?
- इसके बारे में: इसका उद्देश्य मौजूदा डॉलराइजेशन की व्यवस्था को बदलना है। यदि यह संभव होता है तो इससे वैश्विक व्यापार और वित्तीय लेन-देन में डॉलर के उपयोग में उल्लेखनीय कमी आएगी।
- डॉलराइजेशन का अर्थ है वैश्विक बाजार में अमेरिकी डॉलर का ऐतिहासिक वर्चस्व।
- हालिया रुझान: भारत, ब्राजील, रूस, चीन और इंडोनेशिया जैसे देश अमेरिकी डॉलर के प्रभुत्व को चुनौती देने के लिए स्थानीय मुद्रा व्यापार की ओर बढ़ रहे हैं।
- भारत ने रूस सहित अलग-अलग देशों के साथ भारतीय रुपये (INR) में ट्रेड इन्वॉयसिंग की अनुमति दी है।
- हालिया ब्रिक्स शिखर सम्मेलन (कज़ान, 2024) में भी साझा ब्रिक्स मुद्रा की संभावना पर चर्चा हुई थी।
देश डी-डॉलराइजेशन की ओर क्यों बढ़ रहे हैं?
- विनिमय दर जोखिम में कमी: डी-डॉलराइजेशन देशों को अपनी स्थानीय मुद्राओं में व्यापार करने की अनुमति देता है। साथ ही, इससे अमेरिकी डॉलर के मूल्य में उतार-चढ़ाव से जुड़े जोखिम भी कम होते हैं।
- उन्नत मौद्रिक नीति नियंत्रण: इससे देशों को अमेरिकी डॉलर से प्रभावित हुए बिना अपनी आर्थिक स्थितियों के लिए उपयुक्त रणनीतियों को लागू करने में मदद मिलेगी।
- भू-राजनीतिक लाभ: अमेरिका अपने प्रभुत्व और प्रतिबंधों के माध्यम से डॉलर का हथियार की तरह इस्तेमाल करता आया है। डी-डॉलराइजेशन अमेरिका के इस तरह के कदम को हतोत्साहित कर सकता है।
डी-डॉलराइजेशन से जुड़ी चुनौतियां क्या हैं?
- वित्तीय लेन-देन को प्रभावित करना: वर्तमान में क्रूड ऑयल, स्वर्ण जैसी कई मदों की कीमतें डॉलर में तय और विनियमित की जाती हैं। डी-डॉलराइजेशन लेन-देन की इस प्रक्रिया को जटिल बना सकता है।
- वित्तीय अस्थिरता: अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा के रूप में डॉलर का आकस्मिक परित्याग घरेलू मुद्राओं के समक्ष विनिमय दरों में उतार-चढ़ाव, महंगे ऋण जैसे जोखिम पैदा कर सकता है।
निष्कर्ष
भारत के मामले में, डी-डॉलराइजेशन को रुपये के अंतर्राष्ट्रीयकरण—रुपीफिकेशन के साथ पूरित किया जा सकता है, जो किसी भी संस्था को रुपये की खरीद या बिक्री पर पूर्ण स्वतंत्रता प्रदान करेगा।