कार्य संबंधी तनाव के कारण एक युवा महिला कर्मचारी की मृत्यु के चलते भारत में अलग-अलग वर्गों ने 'राइट टू डिस्कनेक्ट' पर कानून लाने की मांग की है।
- 'राइट टू डिस्कनेक्ट' का अर्थ है कि कर्मचारी वर्किंग ऑवर के बाद नियोक्ता द्वारा की गई कॉल का उत्तर देने के लिए बाध्य नहीं होंगे और ऐसे कर्मचारी पर नियोक्ता द्वारा कोई अनुशासनात्मक कार्रवाई भी नहीं की जाएगी।
भारत में 'राइट टू डिस्कनेक्ट' की आवश्यकता क्यों हैं?
- मनोसामाजिक प्रभाव: अधिक कार्य के बोझ से सामाजिक बंधन कमजोर होते हैं और अलगाव की स्थिति पैदा होती है। यहां तक कि इससे मानसिक स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं, हृदय संबंधी बीमारियों आदि का खतरा भी बढ़ सकता है।
- महिलाओं पर प्रभाव: एक हालिया रिपोर्ट से पता चलता है कि ऑडिटिंग, आई.टी. और मीडिया जैसी पेशेवर नौकरियों में भारतीय महिलाएं सप्ताह में 55 घंटे से अधिक काम करती हैं।
- अन्य: इसमें उत्पादकता की हानि; लंबे समय तक स्क्रीन पर रहने के कारण अनिद्रा, नींद के चक्र में व्यवधान आदि शामिल हैं।
भारत में 'राइट टू डिस्कनेक्ट' की स्थिति
वर्तमान में भारत में राइट टू डिस्कनेक्ट को मान्यता देने वाले कानूनों का अभाव है।
- संवैधानिक प्रावधान:
- अनुच्छेद 38: यह राज्य को लोगों के कल्याण को बढ़ावा देने का निर्देश देता है।
- अनुच्छेद 39(e): यह राज्य को कर्मचारियों के स्वास्थ्य और शक्ति के दुरुपयोग को रोकने का निर्देश देता है।
- न्यायिक निर्णय:
- विशाखा बनाम राजस्थान राज्य, 1997: इसमें महिलाओं के लिए सुरक्षित कार्यस्थल सुनिश्चित करने के लिए ऐतिहासिक फैसला दिया गया था।
- रविंद्र कुमार धारीवाल और अन्य बनाम भारत संघ, 2021: इसमें दिव्यांग व्यक्तियों को तार्किक सुविधा प्रदान करने तथा उनके लिए एक अनुकूल कार्यस्थल सुनिश्चित करने हेतु फैसला दिया गया था।
- हालिया पहल: 2018 में, लोक सभा में एक गैर-सरकारी विधेयक (Private Member’s Bill) पेश किया गया था। इसका उद्देश्य वर्किंग ऑवर के बाद 'राइट टू डिस्कनेक्ट' को स्पष्ट रूप से परिभाषित करना था।
'राइट टू डिस्कनेक्ट' पर वैश्विक स्थिति
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