न्यायालयों में ‘ब्लैक कोट सिंड्रोम’ (‘Black Coat Syndrome’ in Courts) | Current Affairs | Vision IAS
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संक्षिप्त समाचार

01 Jan 2025
8 min

हाल ही में, राष्ट्रपति ने 'ब्लैक कोट सिंड्रोम' की आलोचना करते हुए सुप्रीम कोर्ट से सभी के लिए न्याय सुनिश्चित करने का आग्रह किया

  • राष्ट्रपति ने न्याय में होने वाली देरी को रेखांकित करते हुए कोर्ट में आम नागरिकों द्वारा अनुभव किए जाने वाले दबाव या तनाव का वर्णन करने के लिए "ब्लैक कोट सिंड्रोम" शब्द का इस्तेमाल किया है।
  • यह शब्द "व्हाइट कोट हाइपरटेंशन" के समान है। यह एक ऐसी स्थिति को संदर्भित करता है जिसमें व्यक्ति का ब्लड प्रेशर अस्पताल में जाने पर बढ़ जाता है। इसका मुख्य कारण तनाव या चिंता होती है, जो अस्पताल के माहौल की वजह से पैदा होती है।

ब्लैक कोट सिंड्रोम की धारणा के पीछे के कारण

  • बड़ी संख्या में लंबित मामलेः राष्ट्रीय न्यायिक डेटा ग्रिड के अनुसार, 31 अगस्त तक, सुप्रीम कोर्ट में 82,887 मामले लंबित थे।
    • इसके अलावा, बलात्कार जैसे गंभीर अपराधों के मामले में निर्णय में देरी होने से जनता के बीच यह धारणा बन जाती है कि न्यायिक प्रणाली में ऐसे महत्वपूर्ण मामलों की निपटाने को लेकर संवेदनशीलता और तत्परता का अभाव है।
  • वाद यानी केस के लिए तारीख पे तारीख निर्धारित करनाः इसके चलते विशेष रूप से गांव से कोर्ट तक आने वाले लोगों को बहुत अधिक मानसिक और वित्तीय दबाव झेलना पड़ता है। 
  • जिला न्यायपालिका से जुड़े मुद्देः उदाहरण के लिए जिला स्तर पर केवल 6.7% कोर्ट इंफ्रास्ट्रक्स्वर्स ही महिलाओं के अनुकूल हैं।
    • जिला-स्तरीय न्यायालय ही मुख्य रूप से न्यायपालिका के बारे में जनता की धारणा को आकार देते हैं।

जसीला शाजी बनाम भारत संघ मामले (2024) में, सुप्रीम कोर्ट ने प्रिवेंटिव डिटेंशन के खिलाफ प्रभावी पक्ष प्रस्तुत करने के लिए हिरासत में लिए गए व्यक्ति के अधिकारों को उचित ठहराया।

  • प्रिवेंटिव डिटेंशन का अर्थ है बिना किसी मुकदमे के किसी व्यक्ति को हिरासत में लेना। 

सुप्रीम कोर्ट के निर्णय के मुख्य बिंदुओं पर एक नज़र 

  • हिरासत में लिए गए व्यक्ति को हिरासत में लिए जाने का कारण जानने का अधिकार है। साथ ही, उसे ऐसी हिरासत से जुड़े डाक्यूमेंट्स प्राप्त करने का भी अधिकार है। 
    • यदि ऐसे डाक्यूमेंट्स को प्रस्तुत करने में विफलता या देरी होती है, तो यह संविधान के अनुच्छेद 22(5) के तहत अपना पक्ष प्रस्तुत करने के अधिकार से वंचित करने के बराबर होगा। 
  • अनुच्छेद 22(5) में यह अनिवार्य किया गया है कि किसी व्यक्ति को हिरासत में लेने वाले प्राधिकारी को:
    • हिरासत में लिए गए व्यक्ति को यथाशीघ्र उन आधारों के बारे में सूचित करना चाहिए, जिन आधारों पर उसे हिरासत में लिया गया है। 
    • हिरासत में लिए गए व्यक्ति को हिरासत में लेने के आदेश के खिलाफ अपना पक्ष रखने हेतु यथाशीघ्र अवसर प्रदान करना चाहिए। 

प्रिवेंटिव डिटेंशन के बारे में 

  • संविधान का अनुच्छेद 22(3) प्राधिकारियों को लोक व्यवस्था या राष्ट्रीय सुरक्षा बनाए रखने जैसे निवारक कारणों से व्यक्तियों को हिरासत में लेने की अनुमति देता है।
  • भारत का संविधान प्रिवेंटिव डिटेंशन के खिलाफ कुछ सुरक्षा उपायों का भी प्रावधान करता है। ये प्रावधान निम्नलिखित हैं:
    • कोई भी प्रिवेंटिव डिटेंशन कानून किसी व्यक्ति को तीन महीने से अधिक समय तक हिरासत में रखने के लिए अधिकृत नहीं करेगा। तीन माह से अधिक अवधि तक प्रिवेंटिव डिटेंशन में रखने के लिए सलाहकार बोर्ड से मंजूरी लेनी पड़ेगी। 
    • हिरासत में लिए गए व्यक्ति को प्रिवेंटिव डिटेंशन के कारणों से यथाशीघ्र अवगत कराया जाना चाहिए।
    • हिरासत में लिए गए व्यक्ति को अपना पक्ष रखने का यथाशीघ्र अवसर प्रदान किया जाना चाहिए।

सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया है कि UAPA, 1967 के तहत अभियोजन की मंजूरी देने के लिए 14 दिन की समय-सीमा अनिवार्य है, न की विवेकाधीन।

UAPA, 1967 के बारे में

  • UAPA, 1967 को व्यक्तियों और संगठनों की कुछ गैर-कानूनी गतिविधियों की प्रभावी रोकथाम हेतु अधिनियमित किया गया था। साथ ही, यह अधिनियम आतंकवादी गतिविधियों और उनसे जुड़े मामलों से निपटने से भी संबंधित है।
  • अधिनियम के तहत आतंकवाद के आरोपी व्यक्तियों के अभियोजन के लिए निम्नलिखित दो चरणों के माध्यम से सरकार से पूर्व मंजूरी लेने की आवश्यकता होती है:
    • प्रथम चरण: इसमें एक स्वतंत्र प्राधिकरण होता है, जो जांचकर्ताओं द्वारा एकत्र किए गए साक्ष्यों की समीक्षा करता है। इस प्राधिकरण को 7 कार्य दिवसों के भीतर सरकार के समक्ष अपनी सिफारिशें प्रस्तुत करनी होती हैं।  इस प्रक्रिया का गैर-कानूनी गतिविधियां (रोकथाम) (अभियोजन की सिफारिश और मंजूरी) नियम, 2008 के नियम 3 में प्रावधान किया गया है। 
    • दूसरा चरण: नियम 4 के अनुसार, प्राधिकरण की सिफारिश के आधार पर, सरकार के पास अतिरिक्त 7 कार्य दिवस होते हैं। इस अवधि में वह अभियोजन की मंजूरी देने या न देने का निर्णय लेती है।

विधि एवं न्याय मंत्रालय के अनुसार, 2022 में केवल 0.11% मामलों का समाधान प्ली बार्गेनिंग के माध्यम से किया गया था। 

प्ली बार्गेनिंग के बारे में: 

  • यह बचाव पक्ष और अभियोजन पक्ष के बीच एक समझौता होता है। इसमें अभियुक्त कम अपराध या कम सजा के लिए दोषी ठहराया जाता है। 
  • इसे 2006 में दंड प्रक्रिया संहिता (CrPC) में संशोधन के एक भाग के रूप में प्रस्तुत किया गया था।
  • भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता (BNSS) की धारा 290 में प्ली बार्गेनिंग को समयबद्ध बनाया गया है। साथ ही, आरोप तय होने की तारीख से 30 दिनों के भीतर प्ली बार्गेनिंग के लिए आवेदन किया जा सकता है। 
  • उपयोग: यह कुछ अतिरिक्त प्रतिबंधों के साथ सात वर्ष तक के कारावास के दंडनीय अपराधों पर लागू होता है। हालांकि, यह महिलाओं व बच्चों के खिलाफ अपराध या सामाजिक-आर्थिक अपराधों से संबंधित मामलों पर लागू नहीं होता है।

हाल ही में, बॉम्बे हाईकोर्ट ने सूचना प्रौद्योगिकी नियम, 2021 के नियम 3 में 2023 में किए गए संशोधन को रद्द कर दिया है। ज्ञातव्य है कि इस संशोधन के माध्यम से सूचना प्रौद्योगिकी नियमों में फैक्ट चेक यूनिट (FCU) की स्थापना को अनिवार्य करने वाला प्रावधान शामिल किया गया था। 

  • न्यायालय ने यह निर्णय कुणाल कामरा बनाम भारत संघ वाद के तहत दिया है।

पृष्ठभूमि

  • ज्ञातव्य है कि 2023 में सूचना प्रौद्योगिकी (मध्यवर्ती दिशा-निर्देश और डिजिटल मीडिया आचार संहिता) नियम, 2021 [(3(1)(b)(v)] में संशोधन किया गया था। इस संशोधन ने सरकार को FCU के माध्यम से सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स पर सरकार के कार्यों से संबंधित फेक न्यूज़ की पहचान करने का अधिकार दिया था।
    • इस तरह की फेक न्यूज़ को मध्यवर्ती द्वारा चिह्नित करके हटाया जाना था।
    • यदि मध्यवर्ती ऐसा करने में विफल रहते थे, तो उन पर कानूनी कार्रवाई की जा सकती थी। साथ ही वे अपना सेफ हार्बर का अधिकार खो देते थे। इसके तहत उन्हें थर्ड पार्टी की सहमति के खिलाफ कानूनी प्रतिरक्षा प्राप्त थी। 
  • उल्लेखनीय है कि 2023 में, सुप्रीम कोर्ट ने प्रेस इन्फॉर्मेशन ब्यूरो (PIB) में FCU की स्थापना करने वाली केंद्र की अधिसूचना पर रोक लगा दी थी।

बॉम्बे हाई कोर्ट द्वारा की गई मुख्य टिप्पणियां 

  • संशोधन असंवैधानिक हैं और सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम, 2000 के दायरे अंतर्गत नहीं हैं।  
  • निम्नलिखित अनुच्छेदों के तहत प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों और मौलिक अधिकारों का उल्लंघन हुआ है:
    • अनुच्छेद 14: कानून के समक्ष समानता;
    • अनुच्छेद 19(1)(a): वाक् और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता;
    • अनुच्छेद 19(1)(g): कोई भी व्यवसाय करने की स्वतंत्रता; तथा  
    • अनुच्छेद 21: जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार। 
  • ये संशोधन अस्पष्ट हैं और स्पष्ट रूप से फेक या भ्रामक न्यूज़ को परिभाषित नहीं करते हैं। 
    • साथ ही, “सत्य के अधिकार” की अनुपस्थिति में सरकार केवल FCU द्वारा निर्धारित सटीक सूचना के साथ नागरिकों को सही सूचना उपलब्ध कराने के लिए उत्तरदायी नहीं है।  
  • आनुपातिकता के परीक्षण के संदर्भ में भी ये संशोधन विफल रहे हैं।

राष्ट्रपति ने 23वें विधि आयोग के गठन को मंजूरी दी, हालिया विधि आयोग का गठन तीन साल यानी 1 सितंबर, 2024 से 31 अगस्त, 2027 तक के कार्यकाल के लिए किया गया है।

23वें विधि आयोग के बारे में:

  • सौंपे गए कार्यः भारतीय विधिक व्यवस्था को बेहतर बनाने के लिए कानूनी सुधारों की समीक्षा करना और सुझाव देना।
  • संरचनाः इसमें एक पूर्णकालिक अध्यक्ष, चार सदस्य और अतिरिक्त पदेन एवं अंशकालिक सदस्य शामिल होंगे।

विचारार्थ विषयों यानी टर्म्स ऑफ रेफरेंस (ToR) पर एक नज़र:

  • अप्रचलित कानूनों की समीक्षा या निरसन:
    • मौजूदा कानूनों की समय-समय पर समीक्षा करने के लिए एक मानक संचालन प्रक्रिया (SOP) तैयार करना ताकि उनका सरलीकरण किया जा सके।
    • प्रासंगिक और वर्तमान आर्थिक जरूरतों के मद्देनजर कानूनों को निरस्त करने एवं उनमें आवश्यक संशोधन का सुझाव देना।
  • कानून और गरीबी: गरीबों को प्रभावित करने वाले कानूनों की समीक्षा करना और सामाजिक-आर्थिक विषयों से जुड़े कानूनों के बनने के बाद उनका ऑडिट करना।
  • न्यायिक प्रशासन की समीक्षा:
    • न्याय मिलने में होने वाली देरी को समाप्त करके तथा बकाया राशि का शीघ्र निपटान करके मामलों का किफायती निपटान सुनिश्चित करने हेतु।
    • प्रक्रियाओं का सरलीकरण, अलग-अलग हाई कोर्ट्स के नियमों में सामंजस्य स्थापित करने हेतु ।
  • राज्य के नीति निदेशक सिद्धांत (DPSP): प्रस्तावना में निर्धारित उद्देश्यों को प्राप्त करने एवं DPSPs का प्रभावी कार्यान्वयन सुनिश्चित करने हेतु मौजूदा कानूनों की जांच करना तथा सुधार हेतु सुझाव देना।
  • लैंगिक समानताः कानूनों को मजबूत बनाने हेतु उनकी समीक्षा करना तथा आवश्यक संशोधन के लिए सुझाव देना।
  • विसंगतियों तथा असमानताओं को दूर करने के लिए केंद्रीय कानूनों में संशोधन हेतु सुझाव देना।
  • खाद्य सुरक्षा, बेरोजगारी पर वैश्वीकरण के प्रभाव की जांच करना तथा हाशिए पर रहने वाले लोगों की सुरक्षा के लिए उपायों की सिफारिश करना।

हाल ही में, कर्नाटक के राज्यपाल ने राज्य के मुख्यमंत्री के अभियोजन हेतु जांच की मंजूरी दे दी है। 

अभियोजन हेतु स्वीकृति: 

  • लोक सेवकों के खिलाफ अभियोजन चलाने से पहले सक्षम प्राधिकारी से मंजूरी प्राप्त करना आवश्यक होता है, ताकि उन्हें दुर्भावनापूर्ण अभियोजन से बचाया जा सके। 
  • मंजूरी देने के लिए सक्षम प्राधिकारी: राज्य या केंद्र सरकार (CrPC के तहत) और लोक सेवक को हटाने की शक्ति रखने वाला प्राधिकारी (PCA के तहत)।

कानूनी ढांचा: 

  • भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता (BNSS) की धारा 218 (इसे पहले CrPC की धारा 197 के तहत कवर किया गया था)। 
  • भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम (PCA), 1988 की धारा 17A (2018 का संशोधन) और धारा 19.

भारत की राष्ट्रपति ने नई दिल्ली में भारत के नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक (CAG) द्वारा आयोजित 16वीं ASOSAI सभा के उद्घाटन समारोह में भाग लिया।

ASOSAI के बारे में

  • यह सर्वोच्च लेखा परीक्षा संस्थाओं के अंतर्राष्ट्रीय संगठन के क्षेत्रीय समूहों में से एक है। 
  • इसकी स्थापना 1979 में 11 सदस्यों के साथ हुई थी। अब इसकी सदस्य संख्या 48 हो गई है।
  • पहली सभा और गवर्निंग बोर्ड की बैठक नई दिल्ली में आयोजित की गई थी।
    • भारत वर्तमान में ASOSAI का अध्यक्ष है। 
  • इस सभा में ASOSAI के नियमों और विनियमों को मंजूरी दी गई थी।

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