उपराष्ट्रपति ने कहा कि लोकतंत्र में शक्तियों के पृथक्करण का सिद्धांत इस बात पर बल देता है कि कार्यपालिका संसद और जनता (चुनावों के माध्यम से) के प्रति जवाबदेह है, न्यायालयों के प्रति नहीं।
शक्ति पृथक्करण की अवधारणा:
- यह विचार फ्रांसीसी दार्शनिक मोंटेस्क्यू ने दिया था। यह शासन का एक मूलभूत सिद्धांत है, जो किसी एक इकाई या व्यक्ति में शक्तियों के संकेन्द्रण पर रोक लगाता है।
- यह सरकार के कार्यों को अलग-अलग शाखाओं, विधानपालिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका में विभाजित करता है।
लोकतंत्र में शक्तियों के पृथक्करण का महत्त्व:
- यह अवधारणा सत्ता को एक से अधिक केंद्रों में विभाजित करके नागरिकों को राज्य के अत्याचार से बचाने में मदद करती है। उदाहरण के लिए- भारतीय संविधान का अनुच्छेद 50 न्यायपालिका और कार्यपालिका के पृथक्करण का प्रावधान करता है।
- यह सिद्धांत शासन प्रणाली में नियंत्रण एवं संतुलन सुनिश्चित करता है; विधायिका और न्यायपालिका को अपने अधिकार क्षेत्र में रहकर कार्य करने को प्रोत्साहित करता है तथा जवाबदेही को बढ़ाता है। उदाहरण के लिए- केशवानंद भारती वाद में शीर्ष न्यायालय ने ‘मूल ढांचे का सिद्धांत’ प्रतिपादित करके संविधान में संशोधन करने की संसद की शक्ति को सीमित किया था।
- यह विधि के शासन और स्वतंत्रता को बनाए रखता है। उदाहरण के लिए- एक स्वतंत्र न्यायपालिका कानूनों की निष्पक्ष व्याख्या कर सकती है, जिससे समानता को मजबूती मिलती है।
भारत में सत्ता का पृथक्करण
- अमेरिका में अध्यक्षीय प्रणाली के तहत शक्तियों के पृथक्करण के सिद्धांत को सख्ती से लागू किया गया है। इसके विपरीत, भारत में कार्यात्मक अतिव्यापन की अनुमति दी गई है। उदाहरण के लिए- भारत की संसदीय प्रणाली के तहत कार्यपालिका का गठन विधायिका के सदस्यों में से ही किया जाता है।
- स्वतंत्र कार्यप्रणाली सुनिश्चित करता है: उदाहरण के लिए- अनुच्छेद 122 और 212 के तहत, न्यायालयों को संसद/ राज्य विधान-मंडलों की कार्यवाही की जांच करने से प्रतिबंधित किया गया है।
- व्यावहारिक परस्पर निर्भरता: उदाहरण के लिए- सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट्स के न्यायाधीशों की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा की जाती है।