यह तारीख लोकपाल और लोकायुक्त अधिनियम, 2013 के लागू होने के बाद, 2014 में लोकपाल की स्थापना का प्रतीक है।
लोकपाल और लोकायुक्त के बारे में
- इस अवधारणा की उत्पत्ति 1966 के प्रशासनिक सुधार आयोग (ARC) की रिपोर्ट से हुई है।
- लोकपाल और लोकायुक्त अधिनियम, 2013 ने केंद्र स्तर पर लोकपाल (राष्ट्रीय स्तर का लोकपाल) और राज्य स्तर पर लोकायुक्त की व्यवस्था की। इसका उद्देश्य सार्वजनिक कार्यालयों में जवाबदेही सुनिश्चित करना और भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाना है।

- लोकपाल या ऑम्बुड्समैन की अवधारणा 19वीं शताब्दी में स्वीडन में उत्पन्न हुई थी।
लोकपाल से संबंधित मुख्य प्रावधान
- संरचना एवं सदस्य: भारत के राष्ट्रपति द्वारा नियुक्त किए जाते हैं।
- अध्यक्ष- भारत का वर्तमान में सेवारत या पूर्व मुख्य न्यायाधीश या सुप्रीम कोर्ट का न्यायाधीश या कोई प्रतिष्ठित व्यक्ति।
- लोकपाल में एक अध्यक्ष और अधिकतम 8 सदस्य होते हैं। इन आठ सदस्यों में से चार न्यायिक सदस्य होने चाहिए। शेष चार सदस्य अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति/ अन्य पिछड़े वर्ग/ अल्पसंख्यकों और महिलाओं में से होने चाहिए।
- चयन समिति: इसमें प्रधान मंत्री (अध्यक्ष), लोक सभा अध्यक्ष, विपक्ष का नेता, मुख्य न्यायाधीश/ नामित और एक प्रतिष्ठित न्यायविद शामिल होते हैं।
- कार्यकाल: 5 वर्ष या 70 वर्ष की आयु जो भी पहले हो।
- अधिकार क्षेत्र: लोकपाल के अधिकार क्षेत्र में प्रधान मंत्री (सुरक्षा उपायों के साथ), मंत्री, सांसद, ग्रुप A/B/C/D के अधिकारी/ कर्मचारी तथा केंद्र सरकार द्वारा वित्त-पोषित संस्थाओं के अधिकारी आते हैं।
- लोकपाल का मुख्य कार्य भ्रष्टाचार की शिकायतों की जांच करना, जिसमें केंद्रीय सतर्कता आयोग (CVC) या व्हिसलब्लोअर द्वारा भेजी गई शिकायतें भी शामिल हैं।
- अभियोजन विंग: लोकपाल अपनी अभियोजन विंग स्थापित कर सकता है।
- मामलों के लिए समय-सीमा: प्रारंभिक जांच-पड़ताल: 90 दिन; जांच: 6 महीने (जरूरत पड़ने पर बढ़ाई भी जा सकती है)।
- लोकपाल से संबंधित मुख्य चुनौतियां/ मुद्दे: 7 साल से अधिक पुरानी शिकायतों का अभी तक निपटारा नहीं किया गया है; नियुक्तियों में देरी हो रही है आदि। इसके अलावा, पिछले 5 वर्षों से लगभग 90 प्रतिशत शिकायतों को इसलिए अस्वीकार कर दिया गया है, क्योंकि वे सही प्रारूप में नहीं थीं।