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सैटेलाइट इंटरनेट सेवाएं (Satellite Internet Services)

01 Jul 2025
37 min

सुर्ख़ियों में क्यों? 

हाल ही में, भारतीय दूरसंचार कंपनियों एयरटेल और जियो ने स्टारलिंक की सैटेलाइट इंटरनेट सेवाओं को भारत में लाने के लिए SpaceX के साथ एक समझौते पर हस्ताक्षर किए। 

सैटेलाइट इंटरनेट के बारे में

  • परिभाषा: सैटेलाइट इंटरनेट या सैटेलाइट ब्रॉडबैंड, पृथ्वी की परिक्रमा करने वाली दूरसंचार सैटेलाइट्स के माध्यम से प्रदान किया जाने वाला एक वायरलेस इंटरनेट कनेक्शन है। 
  • अंतर: यह फाइबर, केबल या DSL जैसी भूमि-आधारित इंटरनेट सेवाओं से अलग होता है। यह डेटा ट्रांसमिट करने के लिए तारों के जाल पर निर्भर नहीं होता। 
  • अवसंरचना: सैटेलाइट इंटरनेट सिस्टम अवसंरचना में आम तौर पर तीन खंड शामिल होते हैं:
    • स्पेस सेगमेंट: यह मुख्य रूप से कई संचार उपग्रहों से बना एक कॉन्स्टेलेशन सिस्टम है। यह सैटेलाइट से सिग्नल को प्राप्त करने और फॉरवर्ड करने तथा उपयोगकर्ताओं को सैटेलाइट सिग्नल की कवरेज प्रदान करने के लिए जिम्मेदार होता है। 
      • मांग के आधार पर उपग्रहों को विभिन्न प्रकार की कक्षाओं में स्थापित किया जा सकता है। 
    • ग्राउंड सेगमेंट: इसमें उपग्रह माप और नियंत्रण नेटवर्क, गेट-वे स्टेशन आदि शामिल होते हैं। यह मुख्य रूप से सैटेलाइट इंटरनेट और ग्राउंड संचार नेटवर्क को आपस में जोड़ने की भूमिका निभाता है।
    • यूजर सेगमेंट: इसमें उपयोगकर्ताओं द्वारा उपयोग किए जाने वाले विभिन्न संचार टर्मिनल शामिल होते हैं।  

विश्व में विभिन्न प्रमुख सैटेलाइट इंटरनेट परियोजनाएं

  • प्रोजेक्ट क्यूपर: अमेज़न उपग्रह आधारित इंटरनेट बाजार में महत्वपूर्ण प्रगति कर रहा है। इसका लक्ष्य वैश्विक स्तर पर किफायती व उच्च गति वाले ब्रॉडबैंड उपलब्ध कराने के लिए 3,200 से अधिक LEO उपग्रहों की तैनाती करना है।
  • स्टारलिंक: इसे स्पेसएक्स (SpaceX) द्वारा 2019 में लॉन्च किया गया था। इसने निम्न भू कक्षा में 42,000 उपग्रह स्थापित करने की योजना बनाई है।
  • वनवेब: फ्रांसीसी उपग्रह ऑपरेटर यूटेलसैट द्वारा स्थापित वनवेब वर्तमान में SpaceX के बाद दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा उपग्रह समूह बेड़ा है।
  • क़ियानफ़ान कॉन्स्टेलेशन: चीन द्वारा क़ियानफ़ान नामक एक निम्न-भू कक्षा उपग्रह इंटरनेट मेगा-कॉन्स्टेलेशन की योजना बनाई गई है, जिसका उद्देश्य विश्वव्यापी इंटरनेट कवरेज की एक प्रणाली बनाना है।
    • इसका निर्माण शंघाई स्पेसकॉम सैटेलाइट टेक्नोलॉजी (SSST) द्वारा किया गया था, जो शंघाई म्युनिसिपल पीपुल्स गवर्नमेंट और चाइनीज एकेडमी ऑफ साइंस द्वारा सहायता प्राप्त एक फर्म है।

सैटेलाइट इंटरनेट सेवाओं का महत्व

  • दूरस्थ क्षेत्रों में डिजिटल विभाजन को कम करने में सहायक: यह अब तक कनेक्टिविटी से वंचित क्षेत्रों या सीमित कनेक्टिविटी वाले क्षेत्रों के लिए अधिक उपयुक्त है।
    • भारत की 1.4 बिलियन आबादी में से लगभग 40% लोगों के पास अभी भी इंटरनेट की सुविधा नहीं है। इसमें अधिकांश लोग ग्रामीण क्षेत्रों से संबंधित हैं।
  • आपदा के दौरान कनेक्टिविटी: इसका उपयोग आपदा के दौरान किसी निर्माण स्थल या आपातकालीन आश्रय, जैसे- अस्थायी स्थलों पर या विमान, जहाज, रेलगाड़ी और अन्य चलते-फिरते वाहनों पर किया जा सकता है।
  • डिजिटल अर्थव्यवस्था में उपयोगी: उदाहरण के लिए, प्लेटफ़ॉर्म अर्थव्यवस्थाओं, इलेक्ट्रॉनिक उपभोग, डिजिटल व्यापार और डिजिटल अवसंरचना के विकास आदि में उपयोग।
  • सामरिक स्वायत्तता: सैटेलाइट में आकस्मिक बाधा और भू-राजनीतिक तनाव के कारण अवरुद्ध होने की संभावना कम होती है।
  • सैन्य संघर्ष: उदाहरण के लिए, रूस-यूक्रेन संघर्ष में स्टारलिंक सेवाओं का उपयोग। 

सैटेलाइट इंटरनेट सेवाओं से संबंधित मुद्दे

  • आंतरिक सुरक्षा के लिए चिंता: पहलगाम जैसे हमले के मद्देनजर, NIA को संदेह है कि आतंकवादियों ने एक-दूसरे से तथा पाकिस्तान स्थित अपने ठिकानों से संपर्क करने के लिए सैटेलाइट फोन का इस्तेमाल किया होगा। 
  • डेटा गोपनीयता और डिजिटल संप्रभुता के मुद्दे: जैसे कि कौन-सा डेटा एकत्र किया जा रहा है? इसे कैसे भंडारित किया जाता है और किसके पास पहुंच का अधिकार है? 
  • प्रभावी नियंत्रण का अभाव: प्राइवेट प्लेयर्स के नेतृत्व वाले सीमाहीन वैश्विक नेटवर्क और इंफॉर्मेशन स्पेस वाले इस सिस्टम ने नियामक इकोसिस्टम के लिए चुनौतियां पेश की हैं।  
  • एकाधिकारवादी प्रवृत्तियां: अपने व्यापक उपग्रह नेटवर्क के कारण, SpaceX द्वारा एकाधिकारवादी बाजार संरचना बनाने का जोखिम उत्पन्न होता है। 
  • सैटेलाइट लेटेंसी या विलंबता: सैटेलाइट इंटरनेट में आमतौर पर पारंपरिक वायर्ड कनेक्शन की तुलना में उच्च लेटेंसी होती है, क्योंकि डेटा को उपग्रह से आने-जाने के लिए अधिक दूरी तय करनी पड़ती है। 
    • हालांकि, स्टारलिंक जैसी निम्न भू-कक्षा (LEO) प्रणालियों का लक्ष्य इस लेटेंसी को कम करना है, जिससे 25-50 मिली सेकंड की रेंज में गति प्राप्त की जा सके।  
  • वायुमंडलीय परिवर्तन: सैटेलाइट में एल्युमीनियम का उपयोग होता है, जो उपयोग के दौरान एल्युमीनियम ऑक्साइड बनाता है, जिसे एल्युमिना भी कहते हैं। एल्युमिना ओजोन क्षरण का कारण बनता है और वायुमंडल की ऊष्मा को परावर्तित करने की क्षमता को कम कर सकता है। 
  • लाइसेंसिंग और स्पेक्ट्रम मूल्य निर्धारण: VSAT लाइसेंस के लिए जटिल वार्ता और अंतर-मंत्रालयी परामर्श की आवश्यकता होती है। 
    • विशेषकर Ku और Ka बैंड के लिए, स्पेक्ट्रम मूल्य निर्धारण और शर्तों पर वार्ता चल रही है।
  • अन्य मुद्दे: मौसम सैटेलाइट इंटरनेट को प्रभावित कर सकता है। इसकी तैनाती और संचालन से जुड़ी उच्च लागत, अंतरिक्ष मलबे में वृद्धि, खगोलीय हस्तक्षेप आदि अन्य मुद्दे हैं। 

आगे की राह 

  • पायलट प्रोग्राम: दूरदराज के क्षेत्रों, जैसे- ऑयल फील्ड्स या रेगिस्तानी समुदायों में इसकी उपयोगिता प्रदर्शित कर सकते हैं और जनता का विश्वास बना सकते हैं। 
  • व्यापक नियामक फ्रेमवर्क: भारत को लाइसेंसिंग, डेटा गवर्नेंस और स्पेक्ट्रम आवंटन के लिए स्पष्ट नीतियां बनानी चाहिए। 
  • निजी ऑपरेटरों के साथ सहयोग करना: टैक्स में छूट और ग्रांट जैसी प्रोत्साहन योजनाओं से निजी क्षेत्रक को बढ़ावा मिलेगा और यह राष्ट्रीय सुरक्षा और आर्थिक उद्देश्यों से मेल खाएगा।
  • हाइब्रिड मॉडल: सैटेलाइट और टेरेस्ट्रियल नेटवर्क का मिश्रण करके हाइब्रिड मॉडल के जरिए अधिकतम दक्षता हासिल की जा सकती है। 
  • अन्य: ग्रामीण और दूरदराज के क्षेत्रों को एकीकृत करने को प्राथमिकता देना, मजबूत क्षेत्रीय और कूटनीतिक पहल आदि। 

संबंधित सुर्ख़ियां:

दूरसंचार विभाग (DoT) ने सैटेलाइट इंटरनेट सेवाओं के लिए ग्लोबल मोबाइल पर्सनल कम्युनिकेशन बाय सैटेलाइट (GMPCS) प्राधिकरण हेतु यूनिफाइड लाइसेंस (UL) में संशोधन के माध्यम से सुरक्षा निर्देश जारी किए। 

संशोधनों के माध्यम से प्रमुख सुरक्षा निर्देश

  • सुरक्षा मंजूरी: लाइसेंसधारक को भारत में विशेष गेटवे/ हब लोकेशन के लिए मंजूरी लेनी होगी और निगरानी/ इंटरसेप्शन सुविधाओं का पालन करना होगा।
  • निगरानी और वैध इंटरसेप्शन: लाइसेंसधारक को निगरानी समेत सुरक्षा प्रावधानों को पूरा करना होगा और इसके लिए सेंट्रलाइज्ड मॉनिटरिंग सिस्टम (CMS) स्थापित होगा।  
  • प्रतिबंध: विशेष रूप से युद्ध या आपात स्थिति में, लाइसेंसधारक के पास किसी उपभोक्ता या भौगोलिक क्षेत्र में सेवा रोकने या बंद करने की क्षमता होनी चाहिए।  
  • विशेष निगरानी क्षेत्र (SMZs): अंतर्राष्ट्रीय सीमाओं से 50 कि.मी. के भीतर और विशेष आर्थिक क्षेत्र (EEZ) में 200 समुद्री मील तक के क्षेत्रों को SMZ घोषित किया जाएगा, जहाँ गतिविधियों की निगरानी होगी।  
  • जियो-फेंस्ड कवरेज: यह सुनिश्चित किया जाएगा कि कोई भी यूज़र टर्मिनल भारत से बाहर स्थित गेटवे या जियो-फेंस क्षेत्र के बाहर से नेटवर्क एक्सेस न कर सके। 
  • NavIC आधारित पोजिशनिंग सिस्टम: लाइसेंसधारक को 2029 तक समयबद्ध तरीके से NavIC सिस्टम को अपने यूजर टर्मिनल में लागू करने की योजना बनानी होगी। 
  • डेटा सेंटर: लाइसेंसधारक को यह सुनिश्चित करना होगा कि डेटा सेंटर भारत की भौगोलिक सीमा के भीतर स्थित हो। 

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