हाईकोर्ट ने यह टिप्पणी “वीमेन इन सिनेमा कलेक्टिव बनाम केरल राज्य और अन्य” वाद से जुड़ी याचिकाओं की सुनवाई के दौरान की है। ये याचिकाएं के. हेमा समिति की रिपोर्ट से जुड़ी हुई हैं।
- दरअसल, इस समिति का गठन हाईकोर्ट की सेवानिवृत्त न्यायाधीश के. हेमा की अध्यक्षता में किया गया था। समिति का कार्य मलयालम फिल्म उद्योग में यौन उत्पीड़न और लैंगिक असमानता की जांच-पड़ताल करना था।
विवाद: सेंसरशिप के माध्यम से सिनेमा में हिंसा को विनियमित करना बनाम अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की रक्षा करना
- सिनेमा में हिंसा को विनियमित करने के पक्ष में तर्क:
- अत्यधिक हिंसा समाज पर बुरा असर डाल सकती है तथा हानिकारक व्यवहार को सामान्य बनाकर समाज को प्रभावित कर सकती है।
- फिल्मों में हिंसा का महिमामंडन दर्शकों (खासकर युवाओं) पर नकारात्मक मानसिक प्रभाव डाल सकता है।
- अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के संरक्षण के पक्ष में तर्क:
- सिनेमा समाज की वास्तविकताओं को ही प्रदर्शित करता है, जिसमें हिंसा भी एक सच्चाई है, अत: इसे प्रतिबंधित नहीं किया जाना चाहिए।
- अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता फिल्म निर्माताओं को अपने विचार स्वतंत्र रूप से प्रस्तुत करने की अनुमति प्रदान करती हैं, भले ही उसमें हिंसा का तत्व शामिल हो।
फिल्म सेंसरशिप और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर महत्वपूर्ण निर्णय:
- के.ए. अब्बास बनाम भारत संघ: इस वाद में सुप्रीम कोर्ट ने संविधान के अनुच्छेद 19(2) के तहत लोक नैतिकता के लिए एक युक्तियुक्त निर्बन्धन के रूप में फिल्मों की प्री-सेंसरशिप को उचित ठहराया था।
- एस. रंगराजन बनाम पी. जगजीवन राम वाद: सुप्रीम कोर्ट ने अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को लोक हित के साथ संतुलित करने का प्रयास किया था, तथा केवल वैध कारणों से ही सेंसरशिप की अनुमति प्रदान की थी।
- रमेश बनाम भारत संघ: इस वाद में सुप्रीम कोर्ट ने राजनीतिक विरोध या जनभावना के आधार पर डॉक्यूमेंट्री फिल्मों पर सेंसरशिप लगाने को ख़ारिज कर दिया था।
- एफ.ए. पिक्चर इंटरनेशनल बनाम सेंट्रल बोर्ड ऑफ फिल्म सर्टिफिकेशन वाद: इसमें बॉम्बे हाई कोर्ट ने फिल्म निर्माताओं के संवैधानिक अधिकारों की पुष्टि करते हुए अनावश्यक सेंसरशिप को गलत बताया था।
