26 नवंबर को संविधान दिवस के अवसर पर प्रधानमंत्री ने नागरिकों से अपने मूल कर्तव्यों का पालन करने और भारत के लोकतांत्रिक ढांचे को मजबूत करने में सक्रिय योगदान देने का आग्रह किया।
मूल कर्तव्यों की संवैधानिक स्थिति
- संवैधानिक प्रावधान: 42वें संविधान संशोधन अधिनियम, 1976 द्वारा संविधान के भाग-4A के अनुच्छेद 51A में मूल कर्तव्यों को जोड़ा गया।
- समिति की सिफारिश पर: स्वर्ण सिंह समिति (1976) की सिफारिश पर संविधान में मूल कर्तव्यों को जोड़ा गया।
- संशोधन: प्रारंभ में संविधान में 10 मूल कर्तव्य जोड़े गए थे। 86वें संविधान संशोधन अधिनियम, 2002 के द्वारा 11वां मूल कर्तव्य जोड़ा गया।
- मूल कर्तव्यों के उद्देश्य:
- नागरिकों के लिए नैतिक दायित्व निर्धारित करना,
- नागरिकों में देशभक्ति और एकता की भावना का संचार करना, तथा
- देश की अखंडता अक्षुण्ण रखने को बढ़ावा देना।
- स्वरूप:
- ये वाद-योग्य नहीं (non-justiciable) हैं यानी इन कर्तव्यों के अनुपालन से जुड़े मामलों को न्यायालय में चुनौती नहीं दी जा सकती है। ऐसा इसलिए क्योंकि न्यायालय इन्हें लागू नहीं कर सकते। इसके बावजूद शासन और नागरिकों की जिम्मेदारी तय करने के लिए ये कर्तव्य अत्यंत महत्वपूर्ण हैं।
अधिकार और कर्तव्य के बीच संबंध
- पूरक प्रकृति का होना: अधिकार और कर्तव्य एक-दूसरे के पूरक और एक-दूसरे पर निर्भर हैं। एक का सार्थक उपयोग तभी संभव है जब दूसरे का अनुपालन किया जाए।
- लोकतंत्र में संतुलन सुनिश्चित करना: मूल कर्तव्य सुनिश्चित करते हैं कि एक व्यक्ति के द्वारा अधिकारों के उपयोग से किसी दूसरे व्यक्ति के अधिकारों का उल्लंघन न हो या सामाजिक सद्भाव को हानि न पहुंचे।
- नैतिकता से संबंध: मूल कर्तव्य अनुशासन, संस्थाओं का सम्मान करने और संवैधानिक मूल्यों को बढ़ावा देते हैं। इससे वह नैतिक ढांचा मजबूत होता है जिसमें मूल अधिकारों का समुचित उपयोग सुनिश्चित होता है।
- मूल अधिकारों का सतत पालन: मूल अधिकार तभी सार्थक बने रहते हैं जब नागरिक अपने कर्तव्यों का पालन करते हैं। वास्तव में मूल कर्तव्य, मूल अधिकारों को दीर्घ-काल तक अक्षुण्ण रखने के लिए आधार प्रदान करते हैं।
कर्तव्य-केन्द्रित नैतिक ढांचे का समर्थन करने वाले दार्शनिक
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