सुर्ख़ियों में क्यों?
हाल ही में, भारत ने विकासशील देशों और ग्लोबल साउथ के बढ़ते कर्ज की समस्या से निपटने के लिए ग्लोबल साउथ हेतु ग्लोबल डेवलपमेंट कॉम्पैक्ट का प्रस्ताव प्रस्तुत किया है।
ग्लोबल डेवलपमेंट कॉम्पैक्ट (GDC) क्या है?
- भारत ने तीसरे वॉयस ऑफ ग्लोबल साउथ शिखर सम्मेलन के दौरान ग्लोबल साउथ के लिए एक व्यापक और मानव-केंद्रित "ग्लोबल डेवलपमेंट कॉम्पैक्ट" का प्रस्ताव प्रस्तुत किया है।
ग्लोबल डेवलपमेंट कॉम्पैक्ट (GDC) की प्रमुख विशेषताएं
- इसमें चार सिद्धांत शामिल हैं: विकास के लिए व्यापार; संधारणीय विकास के लिए क्षमता निर्माण; प्रौद्योगिकी साझाकरण; तथा परियोजना विशिष्ट रियायती वित्त एवं अनुदान।
- ऋण का कोई बोझ नहीं: यह सुनिश्चित करना कि विकास और बुनियादी ढांचे के वित्त-पोषण से विकासशील देशों पर ऋण/ कर्ज का बोझ न बढ़े।
- इससे चीन के "ऋण जाल" में फंसने वाले देशों की चिंताओं का भी समाधान होने की उम्मीद है।
- विकास के वैकल्पिक मार्ग की तलाश करना: यह आर्थिक संवृद्धि, सामाजिक समावेशन एवं पर्यावरणीय संधारणीयता के लिए वैकल्पिक मार्ग तलाशने में सहायता करेगा।
विकासशील देशों पर बढ़ते ऋण के लिए उत्तरदायी कारण
- उधार लेने की उच्च लागत: विकासशील देश संयुक्त राज्य अमेरिका की तुलना में 2 से 4 गुना अधिक तथा जर्मनी की तुलना में 6 से 12 गुना अधिक दरों पर उधार लेते हैं।
- उच्च सार्वजनिक ऋण: 2023 में विकासशील देशों का सार्वजनिक ऋण 29 ट्रिलियन डॉलर था। विकासशील देशों का सार्वजनिक ऋण विकसित देशों की तुलना में दोगुनी तेजी से बढ़ रहा है।
- सीमित घरेलू संसाधन: विकासशील देश अक्सर अक्षम या अप्रभावी कर नीतियों और कमजोर कानून व्यवस्था के कारण सीमित घरेलू संसाधन, खराब ऋण प्रबंधन, कम सरकारी राजस्व जैसी समस्याओं से जूझते हैं।
- राजनीतिक अस्थिरता: इसके परिणामस्वरूप, नीतिगत अनिश्चितता पैदा होती है तथा निवेशकों का विश्वास कम हो जाता है। साथ ही, सॉवरेन क्रेडिट रेटिंग में गिरावट के कारण ब्याज दरें बढ़ जाती हैं और उधार लेने की लागत में बढ़ोतरी होती है।
- निजी ऋणदाताओं (बॉण्ड धारक, बैंक और अन्य ऋणदाता) पर अत्यधिक निर्भरता: 2010 के बाद से, निजी ऋणदाताओं द्वारा दिए जाने वाले बाह्य सार्वजनिक ऋण का हिस्सा सभी क्षेत्रों में बढ़ गया है। यह 2022 में विकासशील देशों के कुल बाह्य सार्वजनिक ऋण का 61% था।
- नई वैश्विक चुनौतियां: कोविड-19 महामारी, जलवायु परिवर्तन, भू-राजनीतिक अनिश्चितताओं, अमेरिका-चीन व्यापार युद्ध आदि ने वैश्विक आर्थिक स्थिति पर दबाव को बढ़ा दिया है। इससे ऊर्जा आपूर्ति श्रृंखलाएं बाधित हुई हैं तथा विकासशील देशों की वित्तीय कमजोरियां में बढ़ोतरी हुई है।

अत्यधिक ऋण बोझ के प्रभाव
- ऋण स्थिरता का मुद्दा: वर्तमान में, विश्व के लगभग 60% निम्न आय वाले देशों पर ऋण संकट का उच्च जोखिम है या वे पहले से ही इस स्थिति में आ गए हैं।
- ब्याज का भुगतान करने के लिए अधिक संसाधनों का आवंटन: 54 विकासशील देश अपने कुल राजस्व के 10 प्रतिशत से अधिक हिस्सा 'निवल ब्याज भुगतान' पर खर्च करते हैं।
- यह कल्याणकारी योजनाओं पर सार्वजनिक व्यय को बढ़ाने की सरकार की क्षमता को सीमित करता है। अफ्रीका में, लोग शिक्षा और स्वास्थ्य पर जितना खर्च करते हैं, उससे ज़्यादा पैसा सिर्फ ब्याज चुकाने में खर्च कर देते हैं। औसतन, वे ब्याज पर 70 डॉलर, शिक्षा पर 60 डॉलर और स्वास्थ्य पर 39 डॉलर खर्च करते हैं।
- जलवायु परिवर्तन शमन में बाधक: उदाहरण के लिए- वर्तमान में विकासशील देश जलवायु कार्रवाई पहलों (2.1%) की तुलना में अपने ब्याज भुगतान (2.4%) के लिए अपनी GDP का एक बड़ा हिस्सा व्यय कर रहे हैं।
- निजी ऋणदाताओं पर अत्यधिक निर्भरता: इससे ऋण पुनर्गठन, विशेष रूप से संकट के दौरान उच्च अस्थिरता की चुनौतियां सामने आती हैं। इसके अलावा, निजी ऋणदाताओं से ऋण लेना बहुपक्षीय और द्विपक्षीय स्रोतों से मिलने वाले रियायती वित्त-पोषण की तुलना में अधिक महंगा है।
- संप्रभु ऋण संकट और वैश्विक वित्तीय अस्थिरता: विकासशील देशों में ऋण का उच्च स्तर वैश्विक वित्तीय अस्थिरता को बढ़ाने में योगदान दे सकता है, क्योंकि इससे उधार लेने और पुनर्भुगतान का एक दुष्चक्र शुरू हो जाता है। इससे डिफ़ॉल्ट और आर्थिक संकट का जोखिम बढ़ता है।
- उदाहरण के लिए- केवल पिछले तीन वर्षों में, 10 विकासशील देशों में 18 सॉवरेन डिफॉल्ट हुए हैं। यह पिछले दो दशकों में दर्ज की गई कुल संख्या से भी अधिक है।
संधारणीय एवं समावेशी ऋण समाधान के लिए यू.एन. ट्रेड एंड डेवलपमेंट (पूर्ववर्ती अंकटाड) की सिफारिशें
- वैश्विक वित्तीय सुधार: वैश्विक वित्तीय संरचना में व्यापक सुधार और संप्रभु ऋण पुनर्गठन (Sovereign debt restructuring) के समन्वय एवं मार्गदर्शन के लिए एक वैश्विक ऋण प्राधिकरण की स्थापना करने की आवश्यकता है।
- रियायती ऋण: बहुपक्षीय एवं क्षेत्रीय बैंकों की आधार पूंजी में वृद्धि करके उनकी ऋण देने की क्षमता का विस्तार करना चाहिए।
- वित्त-पोषण में पारदर्शिता: वित्त-पोषण की शर्तों में पारदर्शिता को बढ़ाने के लिए संसाधन एवं सूचना विषमता को कम करने की जरूरत है।
- शोषण करने वाले ऋणदाताओं को हतोत्साहित करना: शोषण करने वाली कर्ज देने की पद्धतियों/ प्रणालियों को हतोत्साहित करने के लिए विधायी उपाय लागू करने की आवश्यकता है।
- संकट के समय लोचशीलता: बाहरी संकटों के दौरान आर्थिक स्थिरता बनाए रखने के लिए ऋण भुगतान पर अस्थायी रोक लगाने के नियमों को लागू करना आवश्यक है।
- स्वचालित पुनर्गठन (Automatic Restructuring): स्वचालित पुनर्गठन नियमों को विकसित करना तथा वैश्विक वित्तीय सुरक्षा जाल को मजबूत करना चाहिए।
निष्कर्ष
विकासशील देशों के बढ़ते सार्वजनिक ऋण से निपटने के लिए घरेलू पहलों और अंतर्राष्ट्रीय सहयोग को मिलाकर एक व्यापक रणनीति बनाने की आवश्यकता है। इसमें ऋण पुनर्गठन, राजकोषीय समेकन, दीर्घकालिक समाधान के लिए विकास को प्रोत्साहित करने वाली नीतियां आदि शामिल होने चाहिए।