हाल ही में, भारतीय रिज़र्व बैंक (RBI) ने बैंकों और गैर-बैंकिंग वित्तीय कंपनियों (NBFCs) के बीच को-लेंडिंग व्यवस्था (CLA) के लिए संशोधित दिशा-निर्देश जारी किए हैं। ये दिशा-निर्देश बैंकिंग विनियमन अधिनियम (1949), भारतीय रिज़र्व बैंक अधिनियम (1934) और राष्ट्रीय आवास बैंक अधिनियम (1987) के अंतर्गत जारी किए गए हैं।
को-लेंडिंग क्या है?
- को-लेंडिंग व्यवस्था (CLA) के तहत, विनियमित संस्थाएं (REs) आपस में साझेदारी कर उधारकर्ताओं को ऋण प्रदान कर सकती हैं, बशर्ते कि वे वर्तमान विनियामक नियमों का पालन करें।
संशोधित दिशा-निर्देशों की मुख्य विशेषताएं
- न्यूनतम हिस्सा: प्रत्येक विनियमित संस्था को ऋण का न्यूनतम 10% हिस्सा अपने पास रखना होगा।
- प्राथमिकता प्राप्त क्षेत्रक को ऋण (PSL) का दर्जा: यदि ऋण PSL मानदंडों में आता है, तो हर ऋणदाता को-लेंडिंग (CL) के तहत अपने हिस्से के लिए PSL दर्जे का दावा कर सकता है।
- एकसमान परिसंपत्ति वर्गीकरण प्रणाली: यदि एक ऋणदाता किसी ऋण को गैर-निष्पादित परिसंपत्ति (NPA) के रूप में वर्गीकृत करता है, तो सभी अन्य साझेदार ऋणदाताओं को भी उस ऋण को NPA वर्गीकृत करना होगा।
- मिश्रित ब्याज दर: उधारकर्ताओं से ली जाने वाली ब्याज दर सभी विनियमित संस्थाओं की आंतरिक ब्याज दरों के भारित औसत के आधार पर तय की जाएगी, जो उनके वित्त-पोषण योगदान के अनुपात में होगी।
को-लेंडिंग का महत्त्व
- बैंकों के लिए: दूरदराज क्षेत्रों में NBFCs की कनेक्टिविटी के कारण बेहतर पहुंच, PSL लक्ष्यों के साथ बेहतर अनुपालन, आदि।
- NBFCs के लिए: साझा ऋण जोखिम, किफायती पूंजी तक बेहतर पहुंच, आदि।
- उपभोक्ताओं के लिए: प्रतिस्पर्धी ब्याज दरों के कारण सस्ते ऋण तक पहुंच, बेहतर अनुकूलन क्योंकि NBFCs अक्सर स्थानीय बाजार की वास्तविकताओं के अनुकूल लचीली ऋण संरचनाएं प्रदान करते हैं, आदि।