सिंगापुर के विदेश मंत्री ने भारत के विदेश मंत्री के साथ अपनी बैठक के दौरान इस तथ्य को स्वीकार किया है।
- बहुध्रुवीयता का अर्थ है कि विश्व में कई शक्तिशाली देश या समूह होते हैं, जो अंतर्राष्ट्रीय मामलों में अहम भूमिका निभाते हैं। यह स्थिति द्विध्रुवीयता (जैसे संयुक्त राज्य अमेरिका और सोवियत संघ के बीच शीत युद्ध के समय) या एकध्रुवीयता (जैसे केवल संयुक्त राज्य अमेरिका का प्रभुत्व) से अलग होती है।
- एक बहुध्रुवीय विश्व में, अलग-अलग क्षेत्रों और देशों के अपने हित, मूल्य एवं एजेंडा होते हैं, तथा वे विविध मुद्दों पर एक-दूसरे के साथ सहयोग या प्रतिस्पर्धा करते हैं।
एक बहुध्रुवीय विश्व व्यवस्था का उदय
- विश्व का बहुध्रुवीयता की ओर अनम्य संक्रमण: वर्तमान वैश्विक प्रणालियां द्वितीय विश्व युद्ध के बाद संयुक्त राज्य अमेरिका और सोवियत संघ के प्रभुत्व वाली द्विध्रुवीयता की वैश्विक संरचना से बाहर निकल रही हैं।
- संयुक्त राष्ट्र (UN), अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (IMF), और विश्व बैंक जैसी संस्थाओं की उपयोगिता पर अब सवाल उठाए जा रहे हैं, क्योंकि ये एक अलग दौर में बनी थीं तथा वर्तमान स्थितियों के अनुरूप अनुकूलन नहीं कर रही हैं।
- उदाहरण के लिए- न्यू डेवलपमेंट बैंक (NDB) अब विश्व बैंक का एक विकल्प बन रहा है।।
- बहुपक्षीय मंचों का उदय: पहले जो सुरक्षा व्यवस्था पश्चिमी व सोवियत देशों के नियंत्रण में थी (जैसे नाटो या वारसा संधि), अब उसकी जगह नरम और लचीले समूहों ने ले ली है।
- उदाहरण के लिए- ब्रिक्स+, क्वाड और शंघाई सहयोग संगठन (SCO) जैसे समूह।
बहुध्रुवीय व्यवस्था में भारत की केंद्रीय भूमिका
- भारत का गुटनिरपेक्षता से बहुपक्षीयता की ओर बदलाव: भारत अब केवल एक पक्ष में नहीं खड़ा होता, बल्कि पश्चिमी समूहों (जैसे QUAD) और यूरेशियन समूहों (जैसे SCO) दोनों के साथ काम करता है। यह एक व्यवहारिक व संतुलित दृष्टिकोण है।
- छोटे समूहों यानी मिनीलेटरल्स में भारत की बढ़ती भागीदारी: भारत अब छोटे और विशेष मुद्दों पर बने समूहों में सक्रिय भूमिका निभा रहा है। उदाहरण के लिए- क्वाड, IPEF, I2U2 आदि।
- भारत एक बहुध्रुवीय विश्व की दिशा में काम कर रहा है, जिसमें बहुध्रुवीय एशिया केंद्र में है।
बहुध्रुवीयता बनाए रखने में भारत के समक्ष चुनौतियां
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