सेंटर फॉर सोशल एंड इकोनॉमिक प्रोग्रेस (CSEP) के एक वर्किंग पेपर ने चार प्रमुख ‘हार्ड-टू-अबेट’ क्षेत्रकों के बड़े पैमाने पर डीकार्बोनाइजेशन हेतु 2022 से 2030 के बीच भारत की जलवायु वित्त-पोषण आवश्यकताओं का आकलन किया है। ये चार ‘हार्ड-टू-अबेट’ क्षेत्रक हैं: बिजली, सड़क परिवहन, इस्पात और सीमेंट। इस वर्किंग पेपर का शीर्षक “इंडियाज़ क्लाइमेट फाइनेंस रिक्वायरमेंट्स” है।
- अधिक ऊर्जा-खपत और उच्च उत्सर्जन वाली उत्पादन प्रक्रियाओं के कारण इन्हें "हार्ड-टू-अबेट" क्षेत्रक माना जाता है। दूसरे शब्दों में ऐसे क्षेत्रक, जिनमें से उत्सर्जन को कम करना बहुत मुश्किल होता है।
रिपोर्ट के मुख्य बिंदुओं पर एक नजर
- बढ़ता उत्सर्जन: वैश्विक कार्बन उत्सर्जन में भारत की हिस्सेदारी 1990 की 2.5% से बढ़कर 2023 में लगभग 8.2% हो गई।
- कुल उत्सर्जन बढ़ने के बावजूद, भारत का प्रति व्यक्ति उत्सर्जन वैश्विक औसत से कम है।
- आर्थिक विकास को खतरा: जलवायु परिवर्तन से आर्थिक विकास को गंभीर खतरा पहुंच सकता है। एक अनुमान के अनुसार, प्रति व्यक्ति GDP में 2030 तक 2.0% और 2047 तक 3-9% तक की कमी हो सकती है। यह कमी जलवायु परिवर्तन हेतु शमन प्रयासों पर निर्भर करेगी।
- अनुमानित जलवायु वित्त आवश्यकता: उपर्युक्त चार प्रमुख क्षेत्रकों के बड़े पैमाने पर डीकार्बोनाइजेशन के लिए भारत की कुल जलवायु वित्त आवश्यकता औसतन प्रतिवर्ष GDP की लगभग 1.3% होगी।
नीतिगत सिफारिशें
- निजी क्षेत्र से निवेश को प्रोत्साहित करना: निम्न-कार्बन उत्सर्जन तकनीकों और इलेक्ट्रिक वाहनों को अपनाने हेतु निजी क्षेत्र से निवेश को प्रोत्साहन देना चाहिए और विनियामकीय कदम उठाने चाहिए।
- अवसंरचना विकास में सरकार की भूमिका: सरकार को EV चार्जिंग नेटवर्क जैसी अति-महत्वपूर्ण अवसंरचना विकसित करनी चाहिए। साथ ही, उसे विद्युत क्षेत्रक में ग्रिड प्रबंधन और बैटरी स्टोरेज के अनुसंधान एवं विकास में तथा हाइड्रो-पंप स्टोरेज में निवेश करना चाहिए।
- अंतर्राष्ट्रीय सहयोग को बढ़ावा: हार्ड-टू-अबेट क्षेत्रकों में कार्बन कैप्चर एंड स्टोरेज (CCS) प्रौद्योगिकी के आदान-प्रदान हेतु वैश्विक सहयोग आवश्यक है।