हरित वित्त या ग्रीन फाइनेंस का तात्पर्य नवीकरणीय ऊर्जा, ऊर्जा-दक्ष इमारतों, संधारणीय अवसंरचना और अन्य पहलों से संबंधित परियोजनाओं के लिए वित्तीय सहायता प्रदान करना है।
- इसमें पूंजी का इस तरह से उपयोग किया जाता है कि प्रत्येक निवेश से न केवल आर्थिक लाभ हो बल्कि संधारणीयता भी सुनिश्चित हो।
हरित वित्त का महत्त्व:
- उत्सर्जन संबंधी लक्ष्यों को पूरा करना: भारत को नेट-जीरो लक्ष्यों को पूरा करने के लिए 2070 तक 10 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर से अधिक की आवश्यकता होगी।
- प्रतिस्पर्धात्मकता और राष्ट्रीय सुरक्षा को बेहतर करना: यह कार्य स्वच्छ ऊर्जा, जलवायु-अनुकूल कृषि तथा लोचशील अवसंरचना के माध्यम से किया जा सकता है।
- इससे भविष्य की मूल्य श्रृंखलाओं में भारत के नेतृत्व को सक्षम बनाया जा सकेगा, जिससे भारत हरित उद्योगों का केंद्र बन सकता है।
- रोजगार सृजन: भारत बड़ी संख्या में हरित रोजगार सृजित करने के लिए तैयार है, यानी वित्त वर्ष 2027-28 तक लगभग 7.3 मिलियन और वर्ष 2047 तक लगभग 35 मिलियन।
- अन्य: इसमें पर्यावरणीय लाभ, जस्ट ट्रांजिशन सुनिश्चित करना, आपदा-रोधी क्षमता विकसित करना आदि शामिल है।
हरित वित्त से संबंधित चुनौतियां:
- विनियामक बाधाएं और नीतिगत अनिश्चितताएं: ऊर्जा समवर्ती सूची (Concurrent List) में आती है। इसलिए, अलग-अलग राज्यों और क्षेत्रकों में इससे संबंधित नीतियों के लागू होने में समवाय एवं एकरूपता का अभाव रहता है।
- वित्तीय संस्थाओं के पास पर्यावरणीय, सामाजिक और गवर्नेंस (ESG) संबंधी सीमित विशेषज्ञता है।
- वित्त-पोषण की लागत: 100 मेगावाट सौर PV परियोजना के लिए भारत में यह दर 10.0-11.5% है, जबकि जर्मनी में यह लगभग 2.8% और संयुक्त राज्य अमेरिका में 5.3% है।
- वित्तीय घाटा: भारत द्वारा जारी किए गए ग्रीन बॉण्ड (वर्ष 2023 तक 21 बिलियन अमेरिकी डॉलर) भारत के नवीकरणीय ऊर्जा संबंधी लक्ष्यों (वर्ष 2030 तक लगभग 500 गीगावाट) की तुलना में कम है।
हरित वित्त के लिए शुरू की गई पहलें
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