सुर्ख़ियों में क्यों?
हाल ही में इंडिया जस्टिस रिपोर्ट द्वारा "किशोर न्याय और कानून के उल्लंघन के आरोपित बालक: अग्रिम स्तर पर क्षमता का अध्ययन" नामक रिपोर्ट प्रकाशित की गई। इस रिपोर्ट में 'किशोर न्याय (बालकों की देखभाल और संरक्षण) अधिनियम 2015' (JJ Act, 2015) के लागू होने के दस वर्ष बाद भारतीय किशोर न्याय प्रणाली के कामकाज का मूल्यांकन किया गया है।
भारत में किशोर न्याय प्रणाली
- यह किशोर न्याय (JJ) अधिनियम, 2015 पर आधारित है। इस अधिनियम ने किशोर न्याय अधिनियम, 2000 का स्थान लिया है। इसमें किशोर न्याय (बालकों की देखभाल और संरक्षण) संशोधन अधिनियम, 2021 द्वारा संशोधन किया गया था।
- JJ अधिनियम, 2015 उन बालकों से संबंधित कानूनों को समेकित और संशोधित करता है जो 'कानून के उल्लंघन के आरोपी पाए जाते हैं और जिन्हें 'देखभाल और संरक्षण की आवश्यकता' होती है। यह उचित देखभाल, विकास और उपचार के माध्यम से उनकी बुनियादी जरूरतों को पूरा करता है।
- इसमें 'बालक/बालिका (Child)' को ऐसे व्यक्ति के रूप में परिभाषित किया गया है जिसने 18 वर्ष की आयु पूर्ण नहीं की है, तथा 'किशोर (Juvenile)' को 18 वर्ष से कम आयु का बालक माना गया है।
- 'कानून के उल्लंघन के आरोपित बालक (Child in conflict with law) का अर्थ 18 वर्ष से कम आयु का वह बालक है जिस पर किसी अपराध को करने का आरोप है या जिसे अपराध का दोषी पाया गया है।
किशोर न्याय (JJ) अधिनियम, 2015 के प्रमुख प्रावधान
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किशोर न्याय प्रणाली से संबंधित मुद्दे
- JJBs की असंगतता: वर्ष 2023–2024 तक देश में 765 जिलों में केवल 707 किशोर न्याय बोर्ड कार्यरत थे। मात्र 18 राज्यों तथा जम्मू-कश्मीर केंद्र शासित प्रदेश में प्रत्येक जिले में किशोर न्याय बोर्ड की स्थापना हो सकी थी।
- JJBs की असमान क्षमता: 707 में से 470 JJBs के लिए किए गए एक विश्लेषण में पाया गया कि इनमें से 24% (अर्थात 111/470) बिना 'फुल बेंच' (पूर्ण पीठ) के काम कर रहे थे। इसके परिणामस्वरूप बालकों के प्रति संवेदनशील निर्णय-निर्माण में कमी एवं मामलों की अवधि में वृद्धि हुई है। साथ ही बालकों को लंबे समय तक संस्थागत आवास में रहना पड़ा है।
- लंबित मामलों की संख्या में वृद्धि: संसाधनों की कमी के कारण 31 अक्टूबर 2023 तक 362 JJBs के समक्ष दायर 55% मामले लंबित थे। साथ ही, लंबित मामलों की दर में अत्यधिक भिन्नता है जहां ओडिशा में 83% मामले लंबित हैं तो कर्नाटक में 35% मामले लंबित हैं।
- पर्यवेक्षण का अभाव: अभिरक्षा में रखे गए बालकों के पर्यवेक्षण में वैधानिक लक्ष्यों की पूर्ति नहीं हो रही है। बाल देखभाल संस्थानों (CCI) के मासिक निरीक्षण के कानूनी आदेश के बावजूद, 14 राज्यों और जम्मू-कश्मीर में अनिवार्य 1,992 निरीक्षणों के मुकाबले JJBs ने केवल 810 निरीक्षण किए गए हैं।
- पर्यवेक्षण गृहों में उच्च संस्थानीकरण: अभिरक्षात्मक सुविधाओं में रखे गए कुल बालकों में से लगभग 83% पर्यवेक्षण गृहों में थे, जो जांच में होने वाले अत्यधिक विलंब को दर्शाता है।
- सूचना तक सीमित पहुंच: वयस्क न्यायिक प्रणाली के लिए उपलब्ध 'राष्ट्रीय न्यायिक डेटा ग्रिड' (NJDG) की तरह किशोर मामलों के लिए कोई केंद्रीय सार्वजनिक भंडार (Repository) नहीं है।
- अपर्याप्त निधि उपयोग: उपलब्ध किशोर न्याय निधियों के बावजूद, क्षमता की कमी और धनराशि के विलंबित निर्गमन के कारण अनेक राज्य आवंटनों का पूर्ण उपयोग नहीं कर पाते, जिससे वित्तीय प्रबंधन में निरंतर कमियां बनी रहती हैं और बालकों के लिए अपेक्षित परिणाम नहीं मिल पाते हैं।
किशोर न्याय प्रणाली से संबंधित महत्वपूर्ण न्यायिक-निर्णय
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किशोर न्याय प्रणाली को मजबूत करने के लिए आगे की राह
- इंडिया जस्टिस रिपोर्ट की सिफारिशें:
- JJB की क्षमता को मजबूत करना: न्यायाधीशों, अधीक्षकों, परिवीक्षा अधिकारियों, परामर्शदाताओं तथा विधिक सहायता अधिवक्ताओं जैसे प्रमुख पदों पर पर्याप्त एवं प्रशिक्षित मानव संसाधन की नियुक्ति सुनिश्चित की जाए।
- दक्षता बढ़ाने के लिए तकनीक का उपयोग करना: डिजिटल केस-मैनेजमेंट सिस्टम तथा केंद्रीकृत डेटाबेस की स्थापना करके पुलिस, न्यायालयों और बाल देखभाल संस्थानों (CCI) को आपस में जोड़ा जाना चाहिए, ताकि कानून के उल्लंघन के आरोपित बालकों की प्रभावी निगरानी हो सके और उनके सर्वोत्तम हितों की रक्षा सुनिश्चित की जा सके।
- प्रशिक्षण को प्राथमिकता देना: संबंधित सभी कार्मिकों के लिए नियमित प्रशिक्षण कार्यक्रम आयोजित किए जाएं तथा समय-समय पर उनके कार्य-निष्पादन का मूल्यांकन किया जाए।
- फास्ट-ट्रैक किशोर न्यायालयों की स्थापना करना: मुकदमों के लंबित रहने के कारण बालकों को लंबे समय तक अभिरक्षा में रखने से बचाने के लिए फ़ास्ट-ट्रैक कोर्ट का गठन किया जाना चाहिए।
- सख्त निगरानी और जवाबदेही तंत्र: किशोर संस्थानों के भीतर मानवाधिकारों के उल्लंघन, दुर्व्यवहार या शोषण को रोकने के लिए जवाबदेही सुनिश्चित करने की आवश्यकता है।
- किशोरों के साथ व्यवहार: पुलिस थानों और न्यायालयों में विशेष 'किशोर न्याय इकाइयां' स्थापित की जानी चाहिए। इससे मामलों को संवेदनशीलता के साथ निपटाया जा सकेगा और उचित कानूनी प्रक्रिया का पालन सुनिश्चित होगा।
निष्कर्ष
भारत की किशोर न्याय प्रणाली को मजबूत करने के लिए केवल नियमों के पालन वाली मानसिकता से हटकर एक ऐसी 'बाल-केंद्रित' और 'अधिकार-आधारित' संरचना को अपनाने की आवश्यकता है, जो प्रतिशोध के बजाय पुनर्वास को प्राथमिकता दे। किशोर न्याय बोर्डों में अक्षमता को दूर करना, पारदर्शिता और केस ट्रैकिंग के लिए तकनीक का उपयोग करना तथा नियमित प्रशिक्षण एवं निगरानी को संस्थागत बनाना, कानून के उल्लंघन के आरोपित बालकों के भविष्य में सार्थक सुधार ला सकता है।