कानूनी रूप से, 'अश्लीलता' (Obscenity) को अभद्र अभिव्यक्ति माना जा सकता है। इसे शब्दों, कार्यों या इशारों के माध्यम से प्रदर्शित किया जा सकता है।
अश्लीलता से जुड़े नैतिक मुद्दे
- अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता बनाम अश्लीलता पर कानून: संविधान के अनुच्छेद 19(1)(a) के तहत वाक् और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की गारंटी दी गई है। हालांकि, इस अधिकार को भारतीय न्याय संहिता (BNS), 2023 की धारा 294 और धारा 296 तथा कुछ अन्य कानूनों द्वारा सीमित किया गया है।
- अश्लीलता की अलग-अलग परिभाषा: अश्लीलता की कोई स्पष्ट और सटीक परिभाषा न होने के कारण इसकी व्याख्या अलग-अलग तरीकों से की जाती है।
- उदाहरण के लिए- अवीक सरकार बनाम पश्चिम बंगाल राज्य मामले में, सुप्रीम कोर्ट ने निर्णय दिया था कि जो अभिव्यक्ति एक समुदाय में अश्लील समझी जाती है, वह अभिव्यक्ति किसी अन्य समुदाय में स्वीकार्य हो सकती है।
- सेंसरशिप बनाम कलाकारों की स्वतंत्रता: अक्सर ‘सार्वजनिक नैतिकता की रक्षा के लिए सेंसरशिप लगाने’ और ‘कलाकारों द्वारा क्रिएटिव रूप से स्वयं को अभिव्यक्त करने की स्वतंत्रता’ के बीच टकराव की स्थिति देखी जाती है।
- उदाहरण के लिए- मकबूल फ़िदा हुसैन बनाम राज कुमार पांडे मामले में न्यायालय ने कहा कि केवल ‘नग्नता’ के आधार पर किसी कलात्मक अभिव्यक्ति को अश्लील नहीं माना जा सकता। इस निर्णय से कलात्मक अभिव्यक्ति और सामाजिक मानदंडों के बीच नैतिक दुविधा उजागर हुई।
अश्लील अभिव्यक्ति से संबंधित मुद्दे पर मुख्य सिफारिशें
- ‘अश्लील अभिव्यक्ति’ को स्पष्ट रूप से परिभाषित किया जाना चाहिए। साथ ही, परिभाषा तय करते समय संदर्भ या परिस्थिति को ध्यान में रखा जाना चाहिए और व्यक्तिगत विचारों से ऊपर उठकर सोचना चाहिए।
- हानि सिद्धांत (Harm Principle) का उपयोग करना चाहिए। इसका अर्थ है कि केवल इस आधार पर अश्लील अभिव्यक्ति पर प्रतिबंध नहीं लगाना चाहिए कि यह आम लोगों की संवेदनाओं को ठेस पहुंचा रही है, बल्कि इससे होने वाली वास्तविक हानि को ध्यान में रखकर प्रतिबंध लगाना चाहिए।
- ‘समुदाय के लिए मानक’ सिद्धांत को अपनाना चाहिए। इसके तहत 'समकालीन सामुदायिक मानक' टेस्ट को लागू करना चाहिए, जो समय के साथ समाज की बदलती नैतिकता और मूल्यों को प्रतिबिंबित करें।
अश्लीलता को रोकने से संबंधित कानूनी प्रावधान
अश्लीलता के मुद्दे पर न्यायिक निर्णय
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