वित्तीय बाजार यानी कैपिटल मार्केट पूंजी जुटाने तथा बॉण्ड्स, स्टॉक्स, विदेशी मुद्रा तथा डेरिवेटिव जैसे वित्तीय परिसंपत्तियों की खरीद-बिक्री के प्लेटफॉर्म्स होते हैं।
भारत के वित्तीय बाजार की समस्याएं
- सरकारी प्रतिभूति (G-Secs) बाजार:
- विविधता की कमी: केवल कुछ प्रतिभूतियों की ही अधिक खरीद-बिक्री होती है। इसकी वजह से लंबी अवधि की प्रतिभूतियों में कारोबार कम होता है।
- सेकेंडरी मार्केट में कम भागीदारी: सेकेंडरी मार्केट में कारोबार मुख्यतः बैंकों और प्राथमिक डीलर्स द्वारा किया जाता है। इससे टर्नओवर अनुपात कम होता है।
- टर्नओवर अनुपात का अर्थ है एक वर्ष में किसी बॉण्ड की कुल खरीद-बिक्री और निवेशकों के पास रखे बॉण्ड का अनुपात।
- मनी मार्केट (मुद्रा बाजार):
- कॉल मनी मार्केट: काल मनी मार्केट में तरलता यानी कारोबार की संख्या घटती जा रही है।
- ‘कॉल मनी’ में धन का लेन-देन या निवेश एक दिवसीय आधार पर किया जाता है।
- टर्म मनी मार्केट: ओवरनाइट मार्केट यानी अल्पकालिक ऋण या निवेश पर अत्यधिक निर्भरता देखी जाती है। साथ ही, जोखिम-मुक्त टर्म लोन का अधिक विकास नहीं हो पाया है, जबकि यह ब्याज दर उत्पादों के मानक मूल्य निर्धारण के लिए जरूरी है।
- ‘टर्म मनी’ से आशय 14 दिनों से अधिक की अवधि के लिए फंड उधार लेना या देना है।
- अलग-अलग मनी मार्केट दरों में अंतर: जैसे कि कॉल मनी रेट, मार्केट रेपो रेट और ट्राई पार्टी रेपो डीलिंग सिस्टम (TREPS) रेट में अंतर देखा जाता है।
- ट्राई-पार्टी रेपो वास्तव में एक पुनर्खरीद समझौता है। इसमें थर्ड पार्टी ऋणी और ऋणदाता के बीच मध्यवर्ती की भूमिका निभाती है। थर्ड पार्टी कोलेटरल, भुगतान और निपटान जैसी प्रक्रियाएं देखती है।
- कॉल मनी मार्केट: काल मनी मार्केट में तरलता यानी कारोबार की संख्या घटती जा रही है।
- विदेशी मुद्रा (FX) बाजार: लघु और बड़े ग्राहकों के लिए प्राइसिंग में अंतर देखा जाता है। साथ ही, पारदर्शिता सुनिश्चित करने वाले नियमों एवं निर्देशों का अक्सर उल्लंघन किया जाता है।
- डेरिवेटिव बाजार:
- कारोबार के मामले में इनका आकार अभी छोटा है;
- GDP में इनकी हिस्सेदारी भी कम है;
- डेरिवेटिव उत्पादों की संख्या कम है, खरीद-बिक्री के लिए उत्पाद कम हैं यानी तरलता की कमी है आदि।
आगे की राह
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