ऐसी टिप्पणियों और निर्णयों के माध्यम से भारतीय न्यायपालिका ने समय-समय पर महिला सशक्तीकरण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।
महिलाओं के सशक्तीकरण में न्यायपालिका की भूमिका
- यौन उत्पीड़न की रोकथाम: विशाखा साहनी बनाम राजस्थान राज्य (1998) मामले में, सुप्रीम कोर्ट ने कार्यस्थल पर महिलाओं के यौन उत्पीड़न को रोकने के लिए विस्तृत दिशा-निर्देश निर्धारित किए थे।
- महिला अधिकारों को कायम रखना: शायरा बानो बनाम भारत संघ (2017) मामले में, सुप्रीम कोर्ट ने ट्रिपल तलाक को असंवैधानिक घोषित किया था और इसे महिलाओं के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन बताया था।
- लैंगिक समानता: दानम्मा @ सुमन सुरपुर बनाम अमर (2018) मामले में, सुप्रीम कोर्ट ने पैतृक संपत्ति में पुत्र के समान पुत्री के अधिकार को बरकरार रखा।
- आपराधिक कानूनों में सुधार: जोसेफ शाइन बनाम भारत संघ (2018) मामले में सुप्रीम कोर्ट ने IPC की धारा 497 को खारिज कर दिया था। यह धारा एक विवाहित महिला को उसके पति की संपत्ति के रूप में मानते हुए व्यभिचार को अपराध मानती है।
- वेतन समानता: रणधीर सिंह बनाम भारत संघ (1982) मामले में, सुप्रीम कोर्ट ने संविधान के अनुच्छेद 39(d) के तहत "समान कार्य के लिए समान वेतन" को एक संवैधानिक लक्ष्य के रूप में मान्यता दी थी।
महिला सशक्तीकरण हेतु अन्य संवैधानिक और विधायी उपाय
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